सांस्कृतिक पत्रकारिता पर तीन दिवसीय राष्‍ट्रीय कार्यशाला का समापन

सांस्कृतिक पत्रकारिता पर तीन दिवसीय राष्‍ट्रीय कार्यशाला का समापन

पत्रकारिता की दुनिया में कल्‍चरल रिपोर्टिंग महज विधाओं की रिपोर्टिंग नहीं है बल्कि यह अपने समाज को सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन दर्शन से भी रुबरु करवाती है। यह बात माखन लाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय भोपाल के पूर्व प्रो-चांसलर प्रो कमल दीक्षित ने कही। वे मंगलवार को मोहनलाल सुखाडिया विश्‍वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग और पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के साझे में सांस्कृतिक पत्रकारिता विषय पर शिल्पग्राम के दर्पण सभागार में चल रही तीन दिवसीय राष्‍ट्रीय कार्यशाला के समापन समारोह को

 

सांस्कृतिक पत्रकारिता पर तीन दिवसीय राष्‍ट्रीय कार्यशाला का समापन

पत्रकारिता की दुनिया में कल्‍चरल रिपोर्टिंग महज विधाओं की रिपोर्टिंग नहीं है बल्कि यह अपने समाज को सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन दर्शन से भी रुबरु करवाती है। यह बात माखन लाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय भोपाल के पूर्व प्रो-चांसलर प्रो कमल दीक्षित ने कही। वे मंगलवार को मोहनलाल सुखाडिया विश्‍वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग और पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के साझे में सांस्कृतिक पत्रकारिता विषय पर शिल्पग्राम के दर्पण सभागार में चल रही तीन दिवसीय राष्‍ट्रीय कार्यशाला के समापन समारोह को सम्‍बोधित कर रहे थे।

प्रो दीक्षित ने कहा कि सांस्कृतिक पत्रकारिता ने अपने अच्छे आयामों से समाज में जीने का नज़रिया बदला था लेकिन पूर्व की भांति बाद के लोगों ने समाज को बेहतर बनाने में उस स्तर की मदद नहीं की, जिसकी जरुरत थी। उन्‍होंने कहा कि पत्रकारिता में खबर को खबर से आगे जाकर समझना होगा, इसके लिए विषयों के अंतर्मन को भी ध्यान में रखना होगा।

इस अवसर पर वरिष्‍ठ पत्रकार त्रिभुवन ने कहा कि पत्रकारिता में बड़ी भूमिका शिक्षण संस्थानों की होती है। इसमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्ष शामिल है। पत्रकारिता का भी अपना एक व्याकरण होता है। जब हम सांस्कृतिक पत्रकारिता की बात करें तो ऐसा नहीं है कि इसे सिर्फ छोटी बीट की तरह ही समझा जाता है। उन्‍होंने कहा कि इस विधा के पत्रकार को अपने टूल्स मजबूत करने होंगे। साथ ही अपने क्षेत्र की जानकारी जरूर होनी चाहिए। हमें अपने शहर के प्रतिष्ठित लोगों के बारे में भी जानकारी होनी चाहिए कल्‍चरल न्‍यूज अन्‍य बीटों से भी निकल आती है इसकी दृष्टि विकसित करनी चाहिए।

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वरिष्‍ठ पत्रकार सिकन्दर पारीक ने कहा की पत्रकारिता के जंगल में सांस्कृतिक पत्रकारिता एक पुष्प के समान है, जिसमें सुंदरता और खुशबू दोनों है। कल्‍चरल रिपोर्टिंग के लिए पूर्व तैयारियों की आवश्यकता होती है। यह एक ऐसी बीट है जिसमें उसका जानकर ही उसे सही ढंग से कर पाता है। पत्रकारिता में वाकई चिंतन, मनन और मंथन की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि सांस्कृतिक पत्रकारिता के पाठक कम हुए है इसे अभी भी पसंद किया जा रहा है लेकिन इस बीट के नवोदित पत्रकारों में जिज्ञासा की कमी है, जिसे बढ़ाया जाना चाहिए।

समापन समारोह के अध्‍यक्ष पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद के निदेशक फुरकान खान ने कहा कि हमें ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जो सांस्कृतिक कार्यक्रमों की स्‍वस्‍थ और गहरी समझ के साथ समीक्षा कर सके। कार्यशाला के आयोजन सचिव तथा पत्रकारिता विभाग के प्रभारी डॉ कुंजन आचार्य ने संचालन करते हुए कार्यशाला के तीन दिन की समीक्षा की। भारत भूषण ओझा ने प्रतिवेदन प्रस्‍तुत किया।

मंगलवार को सुबह के सत्र में साहित्यिक पत्रकारिता पर विस्‍तार से चर्चा हुई। चर्चा से पूर्व कविताओं की प्रस्‍तुतियां हुई। वरिष्‍ठ गीतकार नरोत्‍तम व्‍यास ने अपनी कविता -एक झील पूछती है, कहाँ में आंसू बहाऊँ…पूछती है, सोचते, गुजरी सदी को…क्या हुआ है आज के इस आदमी को…कहता है कि इससे पहले में नहाऊं.. सुनाकर झील की दुर्दशा, झीलों में घटते पानी, झीलों को लेकर कम होती इच्छाशक्ति को झीलों की आवाज बनकर उसकी व्यथा व्यक्त की। कवि व्‍यास ने भूखमरी और राजनीति पर बहुत ही मार्मिक कविता का पाठ किया। उन्‍होंने कविता में कहा कि कि सरहदों में कैद खाली पेटों के गौदाम थे…पसलियां निकली तो सारे राज शाया हो गए। भूखों को दुनिया ने बक्शी सुखी हुई रोटियां… तोड़ी तो कई देशों नक्शे नुमाया हो गए।

कवयित्री शकुंतला सरूपरिया ने परिवार में बेटियों का महत्व बताते हुए उसके संरक्षण का संदेश दिया। कवयित्री ने बेटियों के जन्म पर बधाई दीजिए…. कविता के माध्यम से श्रोताओं को संदेश दिया कि जिस तरह एक बेटे के जन्म पर बधाई दी जाती है उसी की भांति हमें बेटी के जन्म पर भी एक दूसरे को बधाई देनी चाहिए। कवयित्री ने कहा कि स्त्री के किसी भी रूप को हम वंदनीय मानेंगे तो दुनिया में बहुत बदलाव ला सकते है। एमएम की छात्राएं गरिमा शर्मा तथा रुचिका जैन ने भी कविता पाठ किया। सोनू साफी ने सांस्‍कृतिक प्रस्‍तुति दी।

साहित्यिक प्रस्‍तुतियों के बाद उन पर चर्चा करते हुए सूचना एवं जनसम्‍पर्क विभाग के उपनिदेशक गौरीकान्त शर्मा ने कहा कि सांस्कृतिक पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रकारिता में कोई अंतर नहीं है। साहित्यिक पत्रकारिता की संख्या और गुणवत्ता में कमी आई है। अखबारों में साहित्य के लिए जगह कम हो गई है। यह मान लिया गया है कि साहित्य के पाठकों की संख्या कम हो गई है, लेकिन ऐसा नहीं है। सोशल मीडिया पर साहित्य को काफी पसंद किया जा रहा है। अखबारों में जो जगह साहित्य या सांस्कृतिक पत्रकारिता के लिए थी, अब वह फ़िल्मी कलाकारों से भरी जा रही है। साहित्यिक व सांस्कृतिक पत्रकारिता महज प्रेस विज्ञप्ति पर सीमट कर रह गई है। सांस्कृतिक पत्रकारिता में न्यूज़ के साथ व्यूज डालने की आवश्यकता है।

विशेषज्ञ के तौर पर कार्यक्रम संयोजक डा कुंजन आचार्य ने कहा कि सांस्कृतिक व साहित्यिक पत्रकारिता में किसी कविता की रिपोर्टिंग के दौरान प्रसंग व व्याख्या का समावेश होना चाहिए। उसकी कविता का भावार्थ खबरों में दिखना चाहिए। साथ ही क्राइम रिपोर्टर की तरह ही सांस्कृतिक रिपोर्टिंग में भी पत्रकार को अपडेट रहना चाहिए।

चर्चा में वरिष्‍ठ विशेषज्ञ राजस्थान विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के सह आचार्य डॉ मनोज लोढ़ा ने कहा की सांस्कृतिक पत्रकारिता के लिए हमें शब्दों के अर्थ में भेद करने की आवश्यकता है। साथ ही विभिन्न क्षेत्रों की जानकारी रखना भी जरूरी है। युवा पीढ़ी को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही हमें शब्दों को सही ढंग से समझना होगा। रिपोर्टिंग के दौरान हमको स्केल तय करनी होगी कि किसको कितनी भव्यता देनी चाहिए। डॉ लोढ़ा ने कहा कि सांस्कृतिक पत्रकारिता का संबंध आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास से भी है।

सत्र की अध्‍यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ ज्योतिपुंज ने कहा कि मीडिया पेपर और पेनलेस होता जा रहा है लेकिन मेरा अनुरोध है कि पत्रकार पेन भी रखे और पेपर भी रखे। यह एक साधना है, जिसे लेखन के जरिए जारी रखा जाना चाहिए। डॉ ज्‍योतिपुंज ने कहा कि सांस्कृतिक पत्रकारिता में संवेदना को सहेजना जरूरी है। आप संवेदना के जुड़े लोगों के लिए लिख रहे हो तो आप में भी संवेदना होनी चाहिए।

दोपहर के सत्र में तीन दिन तक प्रतिभागियों द्वारा की गई रिपोर्टिंग उन्‍हीं के द्वारा प्रस्‍तुत की गई। वरिष्‍ठ पत्रकार और कला मर्मज्ञ इकबाल खां तथा डा मनोज लोढा ने सभी रिपोर्ट की समीक्षा की तथा बेहतर लेखन के लिए सुझाव दिए।

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