×

ओड़ा ब्रिज ब्लास्ट - कहीं घटना का कारण वह तो नहीं जिससे सरकार और मीडिया दामन बचाना चाहती है

घटना के कारणों की विवेचना करे तो यह न तो मीडिया को टीआरपी दे सकता है और न ही जीने को ऑक्सीजन दे सकता है
 

उदयपुर अहमदबाद ब्रोडगेज़ लाइन पर स्थित ओड़ा ब्रिज पर शनिवार रात पर विस्फोट से उड़ाने की साज़िश का एसओजी एटीएस और राजस्थान पुलिस ने आज गुरुवार को पर्दाफाश कर लिया। राज़ के पर्दाफाश होते ही तमाम कयास पर भी लगाम लग गई। पहला तो यह कि यह न तो आतंकवादी घटना है। न ही G-20 की मेज़बानी में जुटी लेकसिटी की आबो हवा को ख़राब करने की साज़िश। न ही किसी माफिया की शरारत थी। 

जैसा की फ़िलहाल एटीएस ने खुलासा किया की मुआवज़ा और नौकरी नहीं मिलने से खफा आरोपियों ने ओड़ा ब्रिज पर एक्सप्लोसिव रखा था। घटना के तीन आरोपी जिसमे एक जुवेनाइल भी शामिल है, को पकड़ा गया है।  यह तीनो आरोपी एक ही परिवार से है। यानी वह परिवार जिनकी 70 बीघा ज़मीन 1974-75 और 1980 में रेलवे और हिंदुस्तान जिंक द्वारा अवाप्त की गई थी, जिसके लिए उसको उचित मुआवजा सरकार से नहीं मिला है या ज़मीन के बदले नौकरी नहीं मिली है। इसके लिए यह लगातार कई साल से प्रयासरत था, कई चक्कर काटे लेकिन न तो सुनवाई हुई न कहीं से कोई मदद मिली, इस कारण इसने गुस्से में इस घटना को अंजाम दिया।

यानी देखा जाए तो घटना के पीछे का कारण नौकरी न मिलने का दर्द (बेरोज़गारी), ज़मीन का उचित मुआवज़ा न मिलना (नाइंसाफी) और कोई सुनवाई न होना (असंतोष), अवसाद और सरकारी वादों का छलावा जैसे वह मुद्दे जिन से सरकार तो बचना चाहती ही है, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया भी अपना दामन छुड़ाना चाहता है। हालाँकि आरोपियों ने जिस घटना को अंजाम दिया है वह यकीनन सज़ा के हक़दार है। माना उनके साथ कुछ गलत हुआ है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं की वह इस प्रकार राष्ट्र की सम्पति को नुक्सान पहुंचाए। या किसी की जान के साथ खिलवाड़ करे। 

खैर, आरोपी पकड़ में आ गए है और उन्हें अपनी करतूतों की सज़ा मिल जाएगी और मिलनी भी चाहिए, लेकिन घटना की परिणीति जिसके कारण हुई है या जिनकी वजह से आरोपियों ने यह कदम उठाये है उन्हें कौन सजा देगा ? क्या मुद्दों से भटका हुआ मीडिया इस पर अपना लब खोलेगा ? वोटो की भूखी और कॉर्पोरेट्स के चंगुल में फंसी सरकारे इस पर कुछ सोचेगी ? आरोपी आदिवासी समुदाय से संबंध है। जी हाँ वही आदिवासी समुदाय जिसका धर्म कर्म जीवन सब कुछ जंगल ज़मीन है। वहीँ आदिवासी जिनकी ज़मीनो पर ब्रोडगेज़, हाइवे और बड़ी बड़ी इंडस्ट्रीज़ निर्मित होती है। (देश के विकास के लिए यह ज़रूरी भी है) और उनकी ज़मीनो के बदले उन्हें मुआवज़ा दिया जाता है। लेकिन मुआवज़ा देने में सरकार और कॉर्पोरेट्स कितनी ईमानदारी बरतते है यह बताने की शायद आवश्यकता नहीं।

इतने कम समय में एटीएस ने घटना का खुलासा कर सच्चाई सामने लाकर वाकई में तारीफे काबिल काम किया है जिनके लिए वह बधाई के पात्र है। न सिर्फ आरोपियों को पकड़ा बल्कि घटना का कारण भी सामने आया। वर्ना खुलासे से पहले तथाकथित मैन स्ट्रीम कही जाने वाली टीआरपी की भूखी और अपने पूर्वाग्रहों से ग्रसित मीडिया टीवी पर बवाल काट रही थी। मुख्य मुद्दों से भटका कर सिर्फ अपनी टीआरपी और सरकारों की आंख का तारा बनने के चक्कर में कितने ही एंकर गला फाड़ फाड़ कर बड़ी साज़िश और न जाने कितने मनगढंत अफ़साने और मनोहर कहानियां सुना सुनाकर देश का मनोरंजन कर रहे थे । एटीएस और जाँच एजेंसियों का शुक्रिया कि इन एंकरों के गलो को फिलहाल राहत दी। 

अब घटना के कारणो की गूँज शायद कम सुनाई दे। क्यूंकि घटना के कारणों की विवेचना करे तो यह न तो मीडिया को टीआरपी दे सकता है और न ही जीने को ऑक्सीजन दे सकता है। क्यूंकि यह वोह मुद्दे है जिन्हे उठाने पर न सिर्फ सरकारी नाराज़गी झेलनी पड़ेगी बल्कि कॉर्पोरेट्स से मिलने वाले भारी भरकम विज्ञापनों से भी हाथ धोना पड़ सकता है। लेकिन यकीन मानिये जब एक बेरोज़गारी, नाइंसाफी, असंतोष ही अवसाद को जन्म देता है और यही अवसाद और दबा हुआ आक्रोश कभी कभी इस प्रकार लावा बनकर बाहर निकलता है।