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बोर्ड की परीक्षा का टालना क्या बच्चो के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाने के समान नहीं है ?

इस देश में महामारी में चुनाव हो सकते है लेकिन बोर्ड की परीक्षा नहीं हो सकती  

 

10वीं और 12वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा का परिणाम वह स्तर है जहाँ से छात्र छात्रों को उनकी मंज़िल की नींव रखने का मौका मिलता है जहाँ उनको अपने भविष्य के सपनो को सच करने के दिशा एवं मार्ग प्रशस्त होता है।

कोरोना वायरस की वजह से आई हुई तकलीफों से हर कोई परिचित है। कोरोना काल में हम सभी दर्दनाक मंजर देख चुके है।  जब से कोरोना वायरस ने फैलना शुरू किया था तब से न केवल भारत बल्कि पुरे विश्व को इस वायरस ने झकझोर के रख दिया है। जैसा पहली लहर का घातक असर था,  दूसरी लहर उससे भी कहीं अधिक बदतर निकली। इस महामारी ने दुनिया को क़यामत का दीदार करवा दिया। कोरोना ने कई लोगो की जिंदगियाँ, कितनो के घर तबाह और कितनो के रोज़गार छीन लिए है।

वहीँ, हम बात करें शिक्षा की, तो कोरोना काल में बच्चो का भविष्य अन्धकार में डूबता नज़र आ रहा है। ये भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता कि बच्चो के स्वास्थ और जान पर की परवाह न करते हुए क्या परीक्षा का संचालन किया जा सकता था। वहीँ दूसरी ओर ज़हन में यह बात भी खलती है की क्या बोर्ड परीक्षाओं जैसी महत्वपूर्ण परीक्षा के परिणाम बिना पर्चे / परीक्षा के देना उचित है? 

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) और राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (RBSE) द्वारा 10वीं, 12वीं परीक्षा रद्द करने का निर्णय भले ही बच्चो के स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर लिया गया फैसला हो लेकिन आपने कभी सोचा है की बच्चे अपने सपनो को उड़ान कैसे दें सकेंगे । अब आप ये सोच रहे होंगे की सपनो को उड़ान जैसे मिलनी चाहिए पढाई लिखाई कर के अपने सपनो को पूरा करेंगे लेकिन क्या इन सपनो की नींव बिना शिक्षा बिना मेहनत के रखी जा सकती है।

एक तरफ जहाँ छोटे एवं मध्यम व्यपारी वर्ग, नौकरी पेशावर्ग इस महामारी से उपजे हालात में टैक्स में छूट, पानी बिजली के बिलों में कटौती करने और बिल एवं टैक्स भरने की तिथि आगे बढ़ाने की मांग कर रहा है वहीँ बड़े बड़े औद्योगिक घराने भी बैंक लोन की भारी भरकम किश्तों में रियायत की मांग कर रहा है। होटल एवं पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोग लॉकडाउन में रियायत की मांग कर रहा है वहीँ इन छात्रों के हितो के लिए मांग करने वाला कोई नहीं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है की निजी स्कूल अभिभावकों से फीस की मांग कर रहा है जबकि ऑनलाइन क्लासों में किस तरह पढाई करवाई गई उनसे सभी वाकिफ है। अभिभावक जिन्हे न्याय पालिका से भी कोई राहत नहीं मिली, मजबूर है फीस भरने को। अभिभावक अपने बच्चो की पढाई के लिए मजबूरी में ही सही हर मुसीबत झेलने को तैयार है। फिर भी बच्चो का भविष्य अधरझूल में ही नज़र आ रहा है। 

10वीं और 12वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा का परिणाम वह स्तर है जहाँ से छात्र छात्रों को उनकी मंज़िल की नींव रखने का मौका मिलता है जहाँ उनको अपने भविष्य के सपनो को सच करने के दिशा एवं मार्ग प्रशस्त होता है। वही यदि बिना मेहनत और परीक्षा के आधार पर शिक्षा हासिल करनी पड़े तो सोचे ज़रा उस शिक्षा का क्या महत्व रह जाएगा? कुछ बच्चे ऐसे होनहार है जो पुरे साल पढाई करके इस उम्मीद में बैठे है की एग्जाम होंगे और वो पुरे साल की मेहनत लगन से की गयी पढाई, उस परीक्षा के ज़रिये रंग लाएगी; लेकिन परीक्षा का रद्द होना उनकी मेहनत पर पानी फेर गया। बहरहाल कुछ बच्चे ऐसे भी है जो पढाई तो करते है लेकिन सरकार के इस फैसले से खुश हैं, क्यूंकि उन्हें एग्जाम नहीं नहीं देने होंगे। देश में कुछ बच्चो के माता पिता ऐसे भी है जो की दिन रात मेहनत कर अपने बच्चो को उच्च स्तर की शिक्षा देने की जद्दो जहद करते है अगर ऐसे में परीक्षा रद्द कर दी जाए तो उन माता पिता का परिश्रम व्यर्थ नहीं हो जायेगा? वही दूसरी तरफ अध्यापक जिन्होंने पुरे साल मेहनत कर के ऑनलाइन पद्धति के जारिए खुद से सीख कर बच्चों को कड़ी लगन और मेहनत से पढ़ाया...उनकी मेहनत पर इस फैसले ने पानी फेर दिया।

CBSE के पूर्व अध्यक्ष अशोक गांगुली ने इस परिपेक्ष्य में एक साक्षात्कार में कहा है की बारहवीं कक्षा में दसवी कक्षा के मापदंड प्रक्रिया को नहीं अपनाया जा सकता, क्योंकि यह स्तर अलग है। अगर बोर्ड चाहे तो परीक्षाएं, बच्चे अपने ही स्कूल में ही दे सकते हैं। मानक परीक्षा के अलावा कोई भी आकलन प्रक्रिया सही और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन को प्रतिबिंबित नहीं करेगा। ऐसे मूल्यांकन में विश्वसनीयता, वैधता और विश्वसनीयता की कमी रहेगी। कोई भी आकलन जो विश्वसनीय नहीं है, उसे स्क्रीनिंग प्रक्रिया या उन्मूलन प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता है। कई छात्र अंतिम परीक्षा के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं। वही छात्र वर्ग सबसे अधिक पीड़ित होंगे। वर्ष के दौरान औसत प्रदर्शन उनके करियर को ध्वस्त कर देगा।

यहाँ सवाल यह उठता है की इन बच्चो का भविष्य किस आधार पर तय होगा। छात्रों का स्वास्थय और उनका जीवन जरुरी है पर क्या देश के कल का भविष्य ज़रुरी नहीं क्योंकि कहा जाता है की आज के बच्चे ही देश के कल का सुनहरा भविष्य है। जहाँ चुनावो की रैलियां, चुनाव प्रचार और राजनितिक, सामाजिक और धार्मिक शक्ति प्रदर्शन के आयोजन बिना सुरक्षा इन्तेज़ामो और जमकर गाइडलाइन की धज्जियां उड़ाते हुए सम्पन्न हो जाते है तो क्या सुरक्षा के माकूल इंतेज़ाम और एहतियात के साथ परीक्षा क्यों नहीं ली जा सकती? बिलकुल ली जा सकती है अगर सरकार इच्छाशक्ति दिखाए तो कुछ नामुमकिन नहीं। सरकार की इच्छा शक्ति से ज़्यादा ज़रूरी था बोर्ड के अपने उद्देश्य की तरफ प्रतिबद्धता दोहराना।

क्या CA के इम्तिहान कैंसिल हुए, क्या IIT की परीक्षा कैंसिल हुई? क्या असाम का बोर्ड अगस्त में परीक्षा नहीं करवा रहा है? देखा जाए तो सिर्फ एक महीने का फर्क ही पड़ा जो परीक्षाए मई में आयोजित होनी थी वह जून में लॉक डाउन खुलने के बाद आयोजित हो सकती थी। जबकि हकीकत यह है की दूसरे कार्य यानि बेशर्मी से फिर राजनितिक, धार्मिक और सामाजिक रैलियाँ और शक्ति प्रदर्शन पुनः शुरू हो जाएंगे।

12th बोर्ड के परीक्षा के आधार पर ही यूनिवर्सिटी और कॉलेज चाहे वह घरेलु हो या अंतर्राष्ट्रीय प्रवेश देते हैं। जहां दूसरे देश इस बीमारी से 90% मुक्त हो गए है वही भारत अभी तक 50 % मुक्त भी नहीं हुआ। इस बीमारी के चलते बच्चो के सपने और भविष्य दांव पर लगा हुआ है। बोर्ड परीक्षाएं कैंसिल करने के हित में जिन्होंने अपनी बात रखी, उन्होंने कहा की CBSE, RBSE एवं हर बोर्ड एक मानक अंकन योजना तयार करे, और कॉलेज अपने स्तर पर बच्चों को प्रवेश देने के लिए कोई योजना बनाए। यानी की मानक अंकन फॉर्मूले (standard marking scheme) से हर बच्चें के अंकों का इनपुट गैर मानक (non-standard) होगा और यहां तक कि आउटपुट भी गैर मानक (non-standard) होगा। दूसरी ओर कॉलेज और यूनिवर्सिटीज़ में प्रवेश का तरीक भी गैर मानक (non-standard) होगा। 

यह तो तय है कि सरकार ने बच्चो के भविष्य को लेकर नहीं सोचा और सिर्फ अपनी प्रशासनिक जवाबदेही कम करने के लिए एक ही चोट से बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड कर दिया। देश में बेरोज़गारो की संख्या कम नहीं है और देश में रोज़गार भी उपलब्ध नहीं है। रोज़गार की तलाश में आज हमारी होनहार प्रतिभाएं अपने देश को छोड़ कर दूसरे देशो में सेवाएं दे रही हैं। क्यूंकि या तो उन्हें उनके खुद के देश में रोज़गार नहीं मिलता या सिर्फ डिग्री लेकर ऐसे काम करने पड़ते है जो उनकी प्रतिभाओं से मेल नहीं खाता है।

उदयपुर, जोधपुर, कोटा और अलवर के कुछ शिक्षकों और स्कूल के प्रिंसिपल और निजी स्कूल के मालिकों से बात करने पर यह आंकड़ा सामने आया है की 94.6% शिक्षाविद परीक्षा आयोजित करने के पक्ष में हैं। और यहाँ सरकार ने बच्चों से तथाकथित सर्वे द्वारा पूछ कर लिया गया फैसला बताती है। बड़े अफ़सोस की बात है कि सरकार ऐसे स्तर पर अपरिपक्व आँकड़े का इस्तेमाल कर के फैसला सुना रही है। पढ़ाई लिखाई के बारे में फैसला पढ़े लिखों की राय से लिया जाना चाहिए वहीँ न्यायपालिका को भी गौर करना चाहिए।

ऐसी स्थिति में सरकार को एक बार फिर अपने फैसले पर गौर करना चाहिए और परीक्षाएं रद्द न करके परीक्षाएं करवानी चाहिए...चाहे देर से सही - यहाँ बच्चो के भविष्य का सवाल है। हमारे देश में सिर्फ गिनती के कुछ बच्चे ऐसे है जिनके माता-पिता पैसे के बलबूते पर अपने बच्चो को पढ़ा सकते है। देश में ज़्यादा तादाद उन बच्चों की है जो की मध्यम एवं गरीब वर्ग के हैं। उनकी मेहनत अगर इस स्तर पर रंग नहीं लाएगी तो कब लाएगी?