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मीडिया जिन मुद्दों को उठाने में कतरा रहा है उन्ही को जवान ने उठाया 

मुद्दा कोई नया नहीं है, यह वही मुद्दे है जिन्हे सारा देश जानता है लेकिन कोई मीडिया उस विषय पर बोलना नहीं चाहता

 

किंग खान की 'जवान' फिल्म इन दिनों धूम मचा रही है। पिछली फिल्म 'पठान' जहाँ केवल एक्शन और मसाला फिल्म थी, वहीँ 'जवान' एक्शन और मसाला होने के साथ साथ कई गंभीर मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करती है। वही मुद्दे जिन्हे मैनस्ट्रीम मीडिया नज़रअंदाज़ कर रही है या यूँ कहे कि बचती आ रही है।  

फिल्म ने शाहरुख़ के स्टारडम के ज़रिये कई मार्मिक मुद्दों पर ध्यान दिलाया है। चाहे वह फ़र्ज़ी हथियार खरीद फरोख्त के चलते जवानो की बलि चढाने का मुद्दा हो या मामूली क़र्ज़ के चलते किसानो के जान देने का मुद्दा हो या ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ती साँसे हो या चुनावो में छलकपट। किंग खान ने एक्शन, मसाला और सिनेमैटिक लिबर्टी का सहारा लेकर पुरज़ोर तरीके से उठाई है।  

ऐसा नहीं है कि 'जवान' पहली फिल्म है जहाँ ज्वलंत मुद्दे उठाये गए हो, फिल्मे समाज का आइना होती है पहले भी फिल्मे ऐसे मुद्दों को उठाती रही है। चाहे वह 'दो बीघा ज़मीन' हो, 'जाने भी दो यारो' हो, 'दामिनी' हो या 'रंग दे बसंती' जैसी कई फिल्मे है जिन्होंने तत्कालीन समाजिक व्यवस्था और भ्रष्ट सिस्टम की पोल खोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी  है। इनमे में कई फिल्मे राजनीती की भेंट चढ़ जाती है तो किसी को दर्शक नहीं मिलते। वहीँ कई फिल्मे सफल भी रही है। 

अलग अप्रोच रही है गंभीर मुद्दों को उठाने की 

'जवान' फिल्म की अप्रोच थोड़ी अलग रही है। इस फिल्म ने गंभीर मुद्दों को एक्शन और मसाला में पिरोया गया है। फिल्मे के कई सीन दिल को छू लेते है। जैसे की फिल्म के आखिर में शाहरुख़ का संवाद जहाँ वह आम जनता से अपने वोट की ताकत का अहसास करवाते है, या वह सीन कि चालीस हज़ार का मामूली कर्ज कैसे किसी किसान का परिवार बर्बाद कर देता है वहीँ उद्योगपतियों के चालीस हज़ार करोड़ के क़र्ज़ को बैंक माफ़ कर देता है। मेट्रो ट्रैन हाइजैकिंग कर उसी उद्योगपति से चालीस हज़ार करोड़ वसूल कर किसानो के खाते में ट्रांसफर करवाने का दृश्य हो। 

कहानी की बात करें, तो 'जवान' फिल्म की शुरुआत मुंबई मेट्रो के हाइजैक से होती है, जहां शाहरुख खान अपनी गर्ल गैंग के साथ मिलकर अंजाम देता है। इस गर्ल गैंग की सभी लड़कियों का एक दर्दनाक अतीत है, जिसके कारण वे साथ देने को राजी होती हैं। वह अपनी जांबाज लड़कियों की टोली के साथ स्वास्थ्य मंत्री को अगवा करके न सिर्फ सरकारी अस्पतालों में चल रहे भ्रष्टाचार और दुर्दशा का भंडाफोड़ करता है और महज पांच घंटों में उसे सुधरवाता है। बल्कि ऑक्सीजन की कमी को छिपाने के लिए गर्ल गैंग में से एक साज़िश की शिकार डॉक्टर को निर्दोष भी साबित करता है। गर्ल गैंग महिला सशक्तिकरण का उदाहरण है।   

फिल्म के आखिर के दृश्य भी आँख खोलने वाला है। मुद्दा कोई नया नहीं है, यह वही मुद्दे है जिन्हे सारा देश जानता है लेकिन कोई मीडिया उस विषय पर बोलना नहीं चाहता। सभी मीडिया (कुछ स्वतंत्र पत्रकारिता को छोड़कर) को अपनी टीआरपी, विज्ञापन और सत्ता के सुर में कदमताल करना सुविधाजनक लगता है, इसलिए सब खामोश है। दाद देनी होगी जवान फिल्म के मेकर्स की जिन्होंने ऐसे मुद्दों को सिल्वर स्क्रीन पर उठाया।