राजस्थान कि स्लम बस्तियों में पानी की गंभीर समस्या
A Charkha Feature by: Sunil Saini, Jaipur, Rajasthan
पूरे राजस्थान में मानसून लगभग सक्रिय हो चुका है। अब तक 190 मिलीमीटर बारिश हो चुकी है। हालांकि यह सामान्य से दो mm कम है। लेकिन गर्मी के कारण सूख चुके राज्य के कई जलाशय अब तक लबालब भर चुके हैं। जो न केवल कृषि के लिए फायदेमंद साबित होता है बल्कि राज्य के कई स्थानों में इससे पीने के पानी की समस्या भी दूर हो जाती है। लेकिन कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं जहां सालों भर लोगों को पीने के साफ़ पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इनमें अधिकतर शहरी क्षेत्रों में आबाद स्लम बस्तियां होती हैं, जहां मूलभूत सुविधाओं के साथ साथ पीने के साफ पानी की सबसे बड़ी समस्या होती है। इन क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों को रोज़ाना पानी के लिए भागदौड़ करनी पड़ती है। चूंकि ज़्यादातर ऐसी बस्तियां सरकारी भूमि अथवा अनधिकृत ज़मीनों पर आबाद होती हैं इसलिए सरकार और प्रशासन द्वारा भी इन्हें यह सुविधाएं उपलब्ध कराना मुश्किल हो जाता है। इन बस्तियों में आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर परिवार के लोग रहते हैं जिनके लिए प्रतिदिन पानी खरीद कर पीना भी मुमकिन नहीं है।
राजस्थान की राजधानी जयपुर स्थित कच्ची (स्लम) बस्ती 'रावण की मंडी' इसका उदाहरण है। सचिवालय से करीब 12 किमी की दूरी पर स्थित इस बस्ती में 40 से 50 झुग्गियां आबाद हैं। जिनमें लगभग 300 लोग रहते हैं। इस बस्ती में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के परिवार निवास करते हैं। जिनमें जोगी, कालबेलिया, बागरिया, नाथ और मिरासी समुदाय प्रमुख रूप से शामिल है। इसी बस्ती के रहने वाले 45 वर्षीय जगदीश नाथ कहते हैं कि "यहां हर घर के लिए प्रतिदिन पीने के पानी का जुगाड़ करना किसी युद्ध से कम नहीं है। इंसान बिजली के बिना तो जीवित रह सकता है, लेकिन पानी के बिना जीवन बसर नहीं सकता है। सिर्फ पीने के लिए ही नहीं, बल्कि खाना पकाने से लेकर अन्य कई कामों के लिए भी पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन रावण की मंडी में इसकी व्यवस्था करना बहुत बड़ा काम होता है।" वह बताते हैं कि यहां पानी की कितनी बड़ी समस्या है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस पानी से लोग कपडे धोते हैं, उसी से बर्तन धोया जाता है। अक्सर इस बस्ती के लोग कपड़े धोने से बचे पानी को शौचालय के प्रयोग में भी लाते हैं। वहीं अनूप जोगी बताते हैं कि वह और उनका पूरा परिवार रद्दी इकठ्ठा करने का काम करता है। इसके लिए सभी सुबह थोड़ा पानी पीकर शहर में रद्दी इकठ्ठा करने निकल जाते हैं और कहीं प्याऊं तो कभी किसी घर या दूकान से पानी मांग कर पी लेते हैं। वह कहते हैं कि शहर में अक्सर लोग परोपकार की नीयत से सार्वजनिक रूप से पीने के पानी की व्यवस्था करते हैं, जो सबसे अधिक हम जैसे गरीबों के ही काम आता है। लेकिन फिर भी घर आकर खाना पकाने और अन्य कामों के लिए पानी की आवश्यकता होती है।
बस्ती में पानी की समस्या का सबसे अधिक सामना महिलाओं को करनी पड़ती है। इस संबंध में 29 वर्षीय दुर्गा कालबेलिया कहती हैं कि "कुछ वर्ष पूर्व वह अपने पति और दो छोटे बच्चों के साथ अच्छी मज़दूरी की तलाश में धौलपुर के दूर दराज़ गांव से इस बस्ती में रहने आई थीं। बच्चों को घर पर छोड़कर प्रतिदिन पति पत्नी दोनों मजदूरी करने निकल जाते हैं। वह कहती हैं कि रावण की मंडी में सर छुपाने के लिए कच्चा घर के अतिरिक्त किसी प्रकार की सुविधाएं नहीं हैं। सबसे अधिक पीने के साफ़ पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। पानी लाने की ज़िम्मेदारी महिलाओं और किशोरियों की होती है। इसके लिए रोज़ सवेरे उठना पड़ता है। वह बताती हैं कि "बस्ती से कुछ दूरी पर एक सरकारी नल लगा हुआ है। जिसमें सुबह और शाम दो घंटे के लिए पानी आता है। अक्सर उस नल से आने वाले पानी की धार बहुत धीरे होती है। जिससे सभी को पानी नहीं मिल पाता है। कई बार छोटे बच्चे पानी के लिए आसपास का गंदा पानी पी लेते हैं। जिससे वह बीमार हो जाते हैं। बहुत कठिनाइयों से हम यहां जीवन बसर कर रहे हैं।" वहीं दुर्गा की पड़ोस में रहने वाली बिंदिया जोगी कहती हैं कि "इस बस्ती में रहने वाला कोई भी परिवार इतना सक्षम नहीं है कि वह अकेले पीने के पानी की व्यवस्था कर ले। इसलिए अक्सर इस बस्ती के लोग आपस में चंदा इकठ्ठा कर नगर निगम से पानी का टैंकर मंगाते हैं। जिसकी कीमत 700 से 800 रूपए प्रति टैंकर होती है। इतने पैसे भी बस्ती के लोगों के लिए बहुत अधिक होते हैं इसलिए सप्ताह में केवल एक दिन सभी मिलकर पानी का टैंकर मंगाते हैं जो दो से तीन दिन चल जाता है और बाकी दिन किसी प्रकार पानी की व्यवस्था करते हैं।"
प्रति वर्ष विजयदशमी के अवसर पर रावण दहन के लिए इस बस्ती में रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले तैयार किए जाते हैं। जिसे जयपुर और उसके आसपास की दुर्गा पूजा समितियों के लोग खरीदने आते हैं। इसी कारण इस बस्ती को रावण की मंडी के रूप में पहचान मिली है। विजयदशमी के अलावा साल के अन्य दिनों में यहां के निवासी आजीविका के लिए रद्दी इकठ्ठा कर उसे बेचने, बांस से बनाये गए सामान अथवा दिहाड़ी मज़दूरी का काम करते हैं। शहरी क्षेत्र में आबाद होने के बावजूद इस बस्ती में मूलभूत सुविधाओं का अभाव देखने को मिलता है। पांच वर्ष पूर्व काम की तलाश में परिवार के साथ करौली से जयपुर आए बंसी नाथ दैनिक मज़दूरी का काम करते हैं। वह कहते हैं कि "इस बस्ती में मूलभूत सुविधाएं तक नहीं है। न तो बिजली का कनेक्शन है और न ही पीने का पानी उपलब्ध है। हम इसी परिस्थिति में जीते हैं। प्रतिदिन पीने के पानी की व्यवस्था करनी पड़ती है। इसके लिए रोज़ सुबह उठकर इधर उधर दौड़ना पड़ता है।" वह कहते हैं कि पहले इस बस्ती के आसपास की सोसायटी से हमें पानी भरने को मिल जाता था। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में सोसायटी में चोरियां होने लगी थी। जिसके बाद अब वह लोग हमें सोसायटी में आने भी नहीं देते हैं। ऐसे में बस्ती के लोग आपस में पैसा जमा करके सप्ताह में एक दिन पानी का टैंकर मंगाते हैं।" वह बताते हैं कि वर्षा के दिनों में हम उसका पानी इकठ्ठा कर उसे पीने अथवा अन्य कामों में उपयोग करते हैं।
भारत में एक वर्ष में उपयोग की जा सकने वाली जल की शुद्ध मात्रा 1,121 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) अनुमानित है। हालांकि जल संसाधन मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आंकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2025 में कुल जल की मांग 1,093 बीसीएम और 2050 में 1,447 बीसीएम होगी। इसका अर्थ यह है कि 10 वर्ष के भीतर भारत में जल की भारी कमी हो सकती है। फाल्कन मार्क वाटर इंडेक्स (विश्व में जल की कमी को मापने के लिये उपयोग किया जाने वाला पैमाना) के अनुसार जहां भी प्रति व्यक्ति उपलब्ध जल की मात्रा एक वर्ष में 1,700 क्यूबिक मीटर से कम है, वहां जल की कमी मानी जाएगी। इस सूचकांक के अनुसार भारत में लगभग 76 प्रतिशत लोग पहले से ही पानी की कमी से जूझ रहे हैं। यह आंकड़े बताते हैं कि हमें ऐसी योजनाओं को धरातल पर क्रियान्वित करने की आवश्यकता है जिससे रावण की मंडी जैसे स्लम बस्तियों को भी पीने का साफ़ पानी उपलब्ध कराया जा सके क्योंकि इस मूलभूत सुविधा को पाने का सभी का अधिकार है। (चरखा फीचर)