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'अंगूठों' ने किया भाव विभोर

एक अकथ व्यथा की प्रगट कथा - " अंगूठो"

 

राजस्थानी स्टेज ओटीटी प्लेटफॉर्म के बैनर तले बनी फ़िल्म अंगूठों की स्क्रीनिंग की गई जिसे देख दर्शक हुए भावुक। 16 अगस्त को फिल्म अंगूठों रिलीज़ हुई जिसकी स्क्रीन उदयपुर में विद्याभवन ऑडिटेरम में रखी गई। राजस्थानी स्टेज ऐप पर यह पहली मेवाड़ी फ़िल्म हैं, जिसे दर्शकों द्वारा काफ़ी सराहा जा रहा हैं।

फ़िल्म का निर्देशन उदयपुर के युवा अभिनेता/निर्देशक कुणाल मेहता द्वारा किया। बता दे कुणाल ने अपना जीवन पूर्ण रूप से रंगकर्म और सिनेमा झोंक दिया हैं, उन्हें गत वर्ष संस्कृति मंत्रालय द्वारा नैशनल यंग आर्टिस्ट अवार्ड से नवाजा गया। लेखक मुरलीधर वैष्णव की हिंदी कहानी अंगूठा को कुणाल ने अडॉप्ट किया और उसपर स्क्रीनप्ले लिख इसे एक फ़िल्म का रूप दिया। फिल्म के मुख्य किरदार मांगू के रूप में शैल शर्मा (रंगकर्मी) एवम क्रूर सेठ के रूप में रमेश नागदा, (रंगकर्मी) तथा अन्य क़िरदार पायल मेनारिया, कृतिक जोशी के अभिनय को काफ़ी सराहा जा रहा हैं। साथ ही देश भर के फ़िल्म समीक्षक द्वारा इस फिल्म को सराहा जा रहा हैं।

इस फिल्म को स्टेज ऐप पर देखा जा सकता हैं।

स्क्रीनिंग देख संस्कृत सम्राट,कलाकार हृदयी श्रीनावासन अय्यर साहब के शब्द एक अकथ व्यथा की प्रगट कथा- " अंगूठो"

मानव समाज में शोषक व शोषित वर्ग की उपस्थिति को सार्वभौमिक, सार्वकालिक रूप में विद्यमान मानवीय समाज की दुर्बलता कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी ।अभिव्यक्तिपरक कलाओं , चाहे वो साहित्य हो या कि कला, रचनाधर्मियों ने, हर युग में अपने समकालीन विषय वस्तु को, अपनी अपनी दृष्टि व संवेदना से समाज के सम्मुख लाने का उपक्रम किया है। प्रेमचंद से लेकर वर्तमान कालीन लोकधर्मी परंपरा पर्यंत , मनुष्य की मिथ्या अहंकारिता व मानव समाज को विभिन्न छोटे, बड़े वर्गों में बांटे जाने, एवं निजी, वैयक्तिक दंभ को परिपुष्ट करती प्रवृत्ति को पहचाने जाने , उसके निर्मूलन का विमर्श करती रचनायें विपुल हैं। अभिव्यक्तिपरक कला के तौर पर, हमारी समकालीन फिल्म कला का माध्यम ,हमारी अपनी पारंपरिक नाट्यकला का ही विज्ञानसम्मत रूपांतरण है! वह नाट्य कला जिसका प्रणयन भरत मुनि द्वारा किया गया, " दृश्य व श्रव्य" होने से जिसे "दृश्य काव्य "भी कहा गया है । 

"अंगूठो" नवप्रस्फुटित रंगकर्मी एवं फिल्मकार, युवा प्रतिभा कुणाल मेहता की एक चाक्षुष कविता है, जो है तो "फिल्म", मगर एक संवेदनार्द्र कोमलता से, आज भी हमारे समाज में गहरी जड़े जमाये रूढियों पर निशाना साधती है। गरीब व अस्पृश्यता का दंश झेलते समाज के कमज़ोर तबके, सामंतवादी सोच से आकंठ भरे हुए सामंती मानसिकता के तथाकथित उच्च वर्ग को बेपर्दा करती ये "पर्दे की कला" कई मायनों में प्रशंसनीय है। जीवन के मूलभूत तत्व पानी के बहाने, फिल्म में मानवमूल्यों व उसमें हो रहे क्षरण को, बखूबी" पोर्ट्रे" किया गया है।  

एक लघुफिल्म होकर भी ये कृति, दर्शक के लिये, बड़ी सघनता से एक मर्मस्पर्शी एहसास कराती है। छुआछूत की बर्बर मानसिकता के चलते, गांव से निर्वासित सरल सहज इंसां मांगूड़ा, साहूकार सूदखोर सरपंच की कुटिलता, किंतु ज़रूरी होने पर रचे जाते भलेपन के स्वांग, दोगलेपन, मक्कारी, इन सभी की बखिया उधेड़ते हुए, नाटकीय उतार-चढाव से गुज़रते हुए, अंतत: फिल्म मांगू को जिस जोशोखरोश से, दमन व अत्याचार के कुत्सित इरादों के खिलाफ ललकार के साथ खडा होते, दिखाती है, वो फिल्म का चरम बिंदु है।  

फिल्म की पृष्ठभूमि, भूरे-रूखे-सूखे नग्न पहाड़ियो एक एकाकी घासफूस के टपरे, चितकबरे पथरीले भूभाग, आदि के माध्यम से अनावृष्टि की शोचनीय दशा को मुखरित करते हैं। कॉस्ट्यूम व अन्य सहायक आयाम, भी सटीक व सार्थक उपादान हैं। फिल्मांकन में प्रयुक्त स्थानीय बोलचाल की भाषा इसे आंचलिकता के पुट के साथ साथ सौंधेपन से सुवासित करती है। कुल मिलाकर ये फिल्म स्वागत योग्य तो है ही, किंतु इसका प्रदर्शन किसी 'फिल्म फेस्ट' में किया गया तो, वहां भी ये अपना प्रभाव छोड़ेगी, इस दिशा में आशान्वित हुआ जा सकता है।

कुणाल की ओर से - मैं अभी तक रंगकर्म का विद्यार्थी रहा, रंगकर्म लिखता रहा, अभिनय समझता रहा। स्टेज ऐप द्वारा मुझे अवसर दिया गया और मेरा यह प्रयास पूरे भारत में, राजस्थानी फ़िल्म होते हुए इसे काफ़ी आत्मीयता से स्वीकारा गया, यह मेरे लिए अविस्मृणीय उपलब्धि हैं। मेरी पूरी टीम इस प्रोजेक्ट को आप तक ले आयी हैं, अब आगे आपको पहुंचाना हैं।

बतादे की इस अवसर पर डॉ़ श्रीराम शर्मा ( सिद्ध चिकित्सक व सुदक्ष बांसुरी वादक), भारतीय लोक कला मंड़ल के निदेशक, रंगकर्म कुशल कर्मयोगी डॉ. लईक हुसैन, रंगकर्मी कविराज लईक, चित्रकार प्रो. हेमंत द्विवेदी, फ़िल्म निर्देशक जिगर नागदा एवम उदयपुर के कलाकार उपस्थित रहें।