मरते दम तक मनुष्य में बनी रहती है अधिकाधिक प्राप्त करने की तृष्णा
अभावजनित कठिनाईयां देशकाल व परिस्थिति के अनुसार अपने पुरूषार्थ के बल पर बदल भी जाती है और जिसे आप सुख कहते है उस सम्पदा व सम्पन्नता में सच्चे सुख का तो अंश मात्र भी नहीं है क्योंकि मनुष्य में अधिकाधिक प्राप्त करने की तृष्णा मरते दम तक बनी रहती है।
अभावजनित कठिनाईयां देशकाल व परिस्थिति के अनुसार अपने पुरूषार्थ के बल पर बदल भी जाती है और जिसे आप सुख कहते है उस सम्पदा व सम्पन्नता में सच्चे सुख का तो अंश मात्र भी नहीं है क्योंकि मनुष्य में अधिकाधिक प्राप्त करने की तृष्णा मरते दम तक बनी रहती है।
श्रमण संघीय महामंत्री सौभाग्य मुनि ने आज पंचायती नोहरे में आयोजित धर्मसभा को संबोधित करते हुए उक्त बात कहीं। उन्होंने कहा कि मानवीय जीवन का मौलिक आधार चेतना की प्रखरता है। वह अपने दृष्टिकोण से सुख व दुख की व्याख्या को पहचान सकता है। यह सुख सम्पन्नता में माना जाता है। मनुष्य अपनी तृष्णा के कारण इतनी उलझनें पैदा करते है कि वे चैन से सो भी नहीं सकते है।
वास्तविक सुख व दुख व्यक्ति के मानसिक धरातल पर आधारित है। यदि हम अपने जीवन में कुछ उपलब्ध है। उसमें आत्म संतोषपूर्वक बरतते हुए श्रम करते जाऐंगे तो अभाव तो समाप्त होंगे ही लेकिन उसके साथ उसकी आत्म शािन्त होगी व सच्चा सुख प्राप्त होगा।
मुनिश्री ने कहा कि जहंा तक दुख का प्रश्न है इसे व्यक्ति केवल अपने विचारों से पैदा करता है। आवश्यक अनिवार्यता रहित अपेक्षाओं के बंधन में पड़ा रहता है और वहीं उसका वास्तविक दुख है। यदि मानवीय चेतना में थोड़ा सा आत्मबोध जागृत हो जाए तो उसे अनुभव होगा कि सुख तो आपके द्वार पर ही खड़ा है केवल उसे भीतर बुलाना है।