आत्मा असंग है शरीर, परिवार, धन-वैभव संयोगी है
प्रज्ञामहर्षी उदयमुनि ने वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संस्थान, हिरणमगरी, सेक्टर-4, उदयपुर में धर्मसभा को संबोधित करते हुये कहा कि आत्मा ज्ञान दर्शन गुणधारक है। शाश्वत है। स्वयं को जानने, देखने का इसका स्वभाव है इसके अतिरिक्त समस्त शुभ-अशुभ भाव, राग-द्वेष, मोहादि भाव पर भाव विभाव भाव है।
प्रज्ञामहर्षी उदयमुनि ने वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संस्थान, हिरणमगरी, सेक्टर-4, उदयपुर में धर्मसभा को संबोधित करते हुये कहा कि आत्मा ज्ञान दर्शन गुणधारक है। शाश्वत है। स्वयं को जानने, देखने का इसका स्वभाव है इसके अतिरिक्त समस्त शुभ-अशुभ भाव, राग-द्वेष, मोहादि भाव पर भाव विभाव भाव है।
कर्म के निमित में आए अनुकुल प्रतिकुल व्यक्ति वस्तु स्थिति परिस्थिति के कारण होते है। उन्हीं विकार भावों से कर्मो का भयंकर बंध और चतुर्गति भ्रमण का दुख होता हे। अन्तरभावों में पक्की अवधारणा करों कि शरीर, शरीर के साथ जुडे परिजन उनके लिए जोडा धन, वैभव, भोग साधन आदि में नहीं, मेरे नही हैं। सभी संयोगी है न जाने किस क्षण आयुष्यकाल पूरा हो जाता है और सभी का वियोग हो जाता है फिर इन क्षणभंगु को अपना जान मान का, ममत्व करके क्यों कर्मो का पहाड़ लगा रहे है? चेतो
शरीर के साथ जुडी है- पांच इन्द्रियां शरीर या इन्द्रियों की दास्ता में इनका आसक्ति में, इनकी पूर्ति में निरन्तर जो-जो राग, द्वेष, मोह, कषाय, हिंसादि, रति,अरति, रतिक्रीड़ा हो रही है उसी से कर्मो का भयंकर बंध होता है। प्रथमतः तत्व ज्ञान यह पक्का करों कि मै आत्मा शुद्व, स्वभावी, वीतराग, स्वभावी हूं। मात्र ज्ञायक या ज्ञाता घण्टा हूं और रागादि, मोहादि, कोघादि, रति आदि मेरा स्वभाव नहीं है विपरीत भाव है। विकारी भाव है। पर-परिणति है। पर भाव है। मेरा स्वभाव नहीं है। मैं कर ही नहीं सकता परन्तु करता हूं यह भी सत्य है। ऐसा रागादि भाव करके ही कर्म बांधकर अनन्त जन्म-मरण का दुख पा रहा हूं। इससे मुक्त होने के लिए पहले यह पक्का करो कि रागादि मेरा स्वभाव नही हैं।