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हेंडमैड डायरी : 70 साल तक सहेजी पन्नों की यह कला खूब लुभाया था विदेशी पर्यटकों को 

देशी-विदेशी हाथों में नजर आने वाली डायरी के सामने कोरोना ने पैदा किया संकट 

 

आधुनिकता के दौर में पिछड़ गई हस्त कला

झीलों की नगरी के नाम से मशहूर उदयपुर में इस कला को कोई नहीं जानता था। ये कला सिर्फ मोटे पत्तों और मजबूत जिल्दसाजी वाली बहियां और स्कूल की कॉपी-किताबों में बाइंडिंग के काम के लिए उपयोग में ली जाती थी। इस कला का इतिहास करीब 70 साल पुरानी हैं। साल 1976 में हैंडमेड डायरी की शुरुआत हुई। शुरुआती दौर में यह नई कला थी। ये पन्ने सरकारी फाइलों में दबकर रह गए। ऑफिस की फाइलों के बाद धीरे-धीरे यह पेन्टिंग के काम में तब्दील हो गया। साल 1981 के दौर में यह डायरी देशी-विदेशी हाथों में नजर आने लगी

आज हम आपको इस कहानी में उस समय की बात बताएंगे जब उदयपुर के अब्बास अली कागज़ी 1952 से अपने हाथों से स्कूल की किताबों पर जिल्दसाजी का काम किया करते थे। उन्होंने 1976 में हाथ द्वारा निर्मित कागज़ डायरी (हेन्ड मेड पेपर डायरी) की शुरुआत की।

शहर के बड़ा बाजार स्थित अब्बास अली की दुकान 'रज़ब अली अब्दुल अली' के नाम से चर्चित थी। उदयपुर के अब्बास अली कागजी 1952 से अपने हाथों से स्कूल की किताबों पर जिल्दसाजी का काम किया करते थे। एक समय में विदेशी सैलानियों की जु़बान पर अब्बास अली और उनके काम की चर्चा होती थी। उदयपुर आया हुआ कोई भी विदेशी मेहमान उनकी दुकान से होकर ज़रुर गुज़रता था, तो अब्बास अली के पास स्थित एक किताब में उनके काम और दुकान की तारीफ किए बिना नहीं जाता था।। 

                                                                                     

अब्बास अली कागज़ी के बेटे फिरोज़ हुसैन बताते है कि उनके पिता ने जिल्दसाजी का काम 1952 में शुरु कर दिया था। फिर धीरे-धीरे 1976 में हाथ द्वारा निर्मित कागज़ डायरी (हेन्ड मेड पेपर डायरी) की शुरुआत की। 1981 में यह बेहद प्रचलित हुआ और देशी-विदेशियों की पसंद बन गया। उस समय लेदर बुक्स, कोटन बुक्स का काम किया जाता था। 

वह बताते है कि यह पेपर चित्तौड़गढ़ जिए के घोसुण्डा में बनाया जाता था। वहां से निर्मित होकर उदयपुर लाया जाता था। फिर उसके बाद उनके पिता के साथ मिलकर वह हेन्ड मेड पेपर डायरी तैयार करते थे। जो देशी-विदेशी मेहमानों की पसंद बन गई। वह बताते है कि एक दौर में दुकान पर विदेशी मेहमानों की लाइन लगी होती थी। जो विदेशी यहां से गुज़रता था वह हमारे काम की तारीफ बिना नहीं रहता था वह बताते है कि जर्मनी, अमेरिका, फ्रांस,कनाडा,यूरोप से उनको विदेशी मेहमान पत्र लिखकर उनके काम की तारीफ करते थे जिसकों उन्होंने एक किताब में दर्शाया हुआ हैं।

                                                                                                            

लंदन निवासी एक विदेशी महिला अनिता उनकी परमानेंट कस्टमर थी वह अक्सर उनकी दुकान पर आया करती थी। जब उनके पिता अब्बास अली की मौत हुई तो वह उसमें भी शामिल हुई थी।  जयपुर की एक कम्पनी ए.एल ने उनको इस काम के लिए अपने साथ ज़ुड़ने के लिए कहा था लेकिन उन्होंने अपनी कला को किसी कम्पनी को नहीं बेचा।     

                                                                                      

                                                                                                         

फिरोज़ हुसैन मायूस होकर बताते है कि कम्पयूटर प्रद्धति ने हेन्ड मेड की कला को खत्म ही कर दिया हैं। इस व्यवसाय से जुड़े कई परिवार बेरोज़गार हो गए। वह कहते है पिता को याद करते हुए उन्हें कभी-कभी उनको बहुत रोना आता है उनके पिता की कला को वह आगे नहीं बढ़ा सकें और इस काम को खत्म कर दिया। उनका थोड़ा बहुत व्यापार था वो भी कोरोना काल में खत्म हो गया। 

फिरोज़ हुसैन बताते है कि अब हेन्ड मेड पेपर की भूमिका ही खत्म हो गई है अब कोई भी इसको नहीं जानता। हेन्ड मेड पेपर डायरी की कीमत कम और 100 बरस की आयु होती हैं लेकिन कम्पनी द्वारा बनाए हुए पेपर डायरी की कीमत ज्यादा और डायरी की उम्र 2 साल होती है। ऐसी डायरी में दीमक भी जल्दी लगती हैं। फिरोज़ हुसैन कागज़ी का बेटा भी इस काम को नहीं करना चाहता क्योंकि इस काम में मेहनत बहुत ज्यादा है लेकिन उस मेहनत की कीमत नहीं मिलती। इसलिए अब उन्होंने पुरी तरह से इस काम को खत्म कर दिया हैं और दूसरा काम शुरु कर दिया हैं।