राजस्थान-उलझन सुलझ रही है या और उलझ रही है
गहलोत, सचिन और आलाकमान तीनो के लिए स्थितियां सहज नहीं
राजस्थान में हाल ही में उठे राजनैतिक बवंडर में गहलोत के हाथ से संभावित राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी तो गयी ही। उनकी प्रतिष्ठा को भी गहरा आघात लगा। गाँधी परिवार की नाराज़गी अलग मोल ली। दूसरी तरफ सचिन पायलट ने पूरे प्रकरण में खामोश रहकर अपनी स्थिति मज़बूत बना ली है। अब तो कयास लग रहे हे की शीर्ष नेतृत्व राजस्थान का विमान 'पायलट' के हवाले कर सकता है।
क्या आसान रहेगा शीर्षकमान के लिए फैसला लेना ?
गहलोत ने दिल्ली में सोनिया में मिल कर माफ़ी मांग ली और आलाकमान की नाराज़गी को भांप कर ऐलान कर लिया की वह अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं लड़ रहे। गहलोत ने दिल्ली नहीं जाने की मंशा जता दी और दिल्ली से लौट आये जबकि आज नामांकन भरने की आखिरी तारीख है। वहीँ महज़ एक सप्ताह पहले गहलोत के दिल्ली जाने की भरपूर संभावना के चलते आलाकमान सचिन पायलट को जयपुर का ख्वाब दिखा चूका था। लेकिन रविवार दिन भर और आखिर में रात को गहलोत समर्थको की प्रेशर पॉलिटिक्स ने तूफान खड़ा कर सारे समीकरण उलट डाले। गहलोत समर्थक विधायकों का यही शक्ति प्रदर्शन खुद गहलोत के गले की हड्डी बन गई। इस फजीहत में जनता के बीच किरकिरी तो हुई ही बल्कि आलाकमान खासा नाराज़ हो गया। इसका परिणाम यह निकला की गहलोत को सोनिया गाँधी से माफ़ी मांगनी पड़ी और पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की कुर्सी भी उनसे दूर हो गई।
मिडिया रिपोर्ट्स के अनुसार गहलोत ने राजस्थान का फैसला भी अब आलाकमान पर छोड़ दिया है। गहलोत ने सचिन को आश्वस्त करने वाले आलाकमान के पाले में गेंद तो डाल दी है लेकिन आलाकमान भी जानता है की इस बल खाती गूगली को खेलना इतना आसान नहीं। गहलोत समर्थक शांति धारीवाल, महेश जोशी और धर्मेंद्र राठोड को नोटिस मिलने के बाद भी गहलोत समर्थको की बयानबाज़ी जारी है। हालाँकि कल ही के सी वेणुगोपाल ने बयानबाज़ी रोकने को लेकर निर्देश जारी किया है। आलाकमान भी भली भांति जनता है की सचिन के पक्ष में एक लाइन का फैसला लेना ऊपरी तौर जितना आसान लग रह है उतना आसान है नहीं। क्यूंकि कांग्रेस की स्थित अब इंदिरा गाँधी के ज़माने वाली नहीं रही जहाँ रातोरात एक हस्ताक्षर से राज्यों के मुख्यमंत्री बदल जाया करते थे।
सचिन की राह भी इतनी आसान नहीं
ख़ामोशी से ताश के तीन पत्ती गेम में अनसीन रहकर बाज़ी खेल रहे सचिन भी अपने पत्ते 2020 में गुड़गांव के मानेसर रिसोर्ट पॉलिटिक्स में अपने पत्ते खोलकर पिट चुके है। अभी अगर आलाकमान सचिन के पक्ष में एकतरफा मुहर लगा भी देता है तो क्या सचिन उसके बाद उपजे हालात पर काबू पा लेंगे ? बहुत बड़ा सवाल सचिन के सामने खड़ा है जिसका जवाब न तो खुद उनके पास है न आलाकमान के पास। क्या वह सभी विधायकों को अपने पक्ष में रख सकेंगे। हालाँकि यह तो तय है की जैसे ही उनके पक्ष में आलाकमान की मुहर लगेगी कई गहलोत समर्थक सचिन के पक्ष में नज़र आएंगे। लेकिन यह इतना आसानी से होने वाला नहीं है। इसके लिए सचिन को शायद भारी कीमत भी चुकानी पड़े। अपनी कई समर्थको को बलि देनी पड़े।
गहलोत के लिए आगे क्या राह है ?
राजनीति के जादूगर के लिए भी अब मंच इतना सहज नहीं। लेकिन जादूगर अपने पिटारे में कौनसा जादू किस वक़्त बिखेर दे कोई नहीं जानता। वर्तमान हालात में एक स्थिति तो यह बनती है प्रदेश को यथास्थिति में रहने दिया जाये लेकिन यथस्थिति रहती है तो सचिन का क्या होगा ? सचिन को खाली हाथ रखना एक प्रकार से आलाकमान की हार ही कही जायेगी। या शायद 2018 का फार्मूला फिर से दोहराया जायेगा जहाँ सचिन को उपमुख्यमंत्री बनाया जाए। या किसी तीसरे की लॉटरी निकल आये।
सवाल बहुतेरे है लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है। आने वाले समय से मिलने वाला जवाब न सिर्फ राजस्थान का फैसला करेगा बल्कि कांग्रेस का भविष्य भी इसी जवाब पर निर्भर है। या यूँ कहे की इस टेढ़े सवाल के जवाब में सिर्फ प्रदेश कांग्रेस ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का भविष्य छुपा है।