कल गुरुवार को सीएम गहलोत अपने आवास पर प्रदेश भर के मेडिकल कॉलेजों के प्राचार्यो के साथ सीधा संवाद कर रहे थे। गहलोत ने जहाँ सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा पर गहरी चिंता जताई वहीँ जमकर निजी अस्पतालों को भी लताड़ा। गहलोत ने साफ़ शब्दों में कहा प्राइवेट हॉस्पिटल्स ने लूट मचा रखी है। उन्होंने कहा की हम राइट टू हेल्थ बिल लेकर आये थे उसका भी प्राइवेट हॉस्पिटल वालो ने विरोध किया।
सीएम गहलोत की चिंता और कथन बिलकुल सत्य है। देर से ही सही गहलोत ने मेडिकल माफिया के आतंक को महसूस तो किया। यहाँ मेडिकल माफिया इसलिए कहा गया है की इन बड़े और निजी अस्पतालों की पहुँच ऊपर से लेकर नीचे तक होती है। अब ज़रा प्राइवेट हॉस्पिटल सोसायटी के अध्यक्ष डॉ संजय आर्य के भास्कर में दिए बयान पर दीजिये जहाँ उन्होंने कहा की "मुख्यमंत्री का बयान काफी पीड़ादायक है। प्राइवेट अस्पताल अपनी क्षमता व उपलब्ध सुविधाओं के आधार पर फीस लेते है, जो अन्य निजी सेक्टर जैसे वकील, होटल्स आदि में भी ली जाती है. सिर्फ अस्पतालों को बदनाम करना उचित नहीं।"
यानि वह अपनी तुलना होटल्स से कर रहे है। लेकिन उन्हें यह याद नहीं की वह धरती के भगवान भी कहे जाते है। होटल्स में अधिकतर लोग सैर सपाटे और घूमने के लिए जाते है आपके निजी अस्पतालों में कोई सैर सपाटे के लिए नहीं आता। जिन्हे आप सुविधा देकर आकर्षित करे। मजबूर और परेशान हाल लोग आपके दर पर कुछ उम्मीद ले कर आते है। उनसे आप बेशक फीस लीजिये लेकिन उन्हें लूटने का हक़ आपको किसने दिया ? मरीज़ो से पूरी फीस लिए बगैर तो यह लाश भी परिजन को नहीं देते है। ऐसी कई खबरे अखबारों की सुर्खियां बनती है लेकिन अब तक किसी निजी अस्पताल पर कोई गाज नहीं गिरी।
निजी अस्पताल किस तरह से लूटते है यह किसी से छिपा नहीं है। एक मामूली बीमारी में भी मरीज़ से सौ प्रकार की जांचे करवाई जाती है। मरीज़ को डराया जाता है की उन्हें किस किस प्रकार की बीमारियों का गंभीर खतरा है। उन्हें अहसास करवाया जाता है की अगर जल्दी इलाज न करवाया गया तो बस खैर नहीं।
प्रत्येक निजी अस्पताल में उसकी अपनी जांच व्यवस्था भी होती है। और कुछ जांचे अन्य सेंटर्स पर करवाने के लिए रेफर किया जाता है। उन जाँच केन्द्रो पर जमकर कमीशन का खेल होता है। मसलन सामान्य परिस्थित में थकन के कारण सिरदर्द हुआ और आप निजी अस्पताल पहुँच गए तो आपकी एमआरआई से लेकर न जाने कितनी प्रकार की जांचे रेफर कर दी जाएगी जिससे एकबारगी तो मरीज़ को यह लगता है उन्हें मस्तिष्क संबंधी कोई गंभीर समस्या है। हज़ारो रुपए खर्च करवाने के बाद आपको बताया जाता है 'चिंता की कोई बात नहीं'।
यहीं नहीं निजी अस्पताल मरीज़ो को दवाई और अन्य उपकरण लिख कर देते है वह दवाई और उपकरण केवल उन अस्पताल के निकटवर्ती मेडिकल स्टोर या खुद अस्पताल के स्टोर में ही अवेलेबल होती है। कारण सभी जानते है। ऑपरेशन के दौरान जो दवाई, इंजेक्शन, मास्क, ग्लोव्स इत्यादि भी भरपूर मात्रा में मंगवाए जाते है उनका सही से कितना इस्तेमाल होता है वह या यो ऑपरेशन थियेटर में मौजूद मेडिकल स्टाफ जानता है या भगवान् ही जानता है। बेचारा मरीज़ तो एनेस्थीसिया लेकर बिस्तर पर लेटा हुआ रहता है।
लगभग आखिरी स्टेज पर पहुँच चुके मरीजों को वेंटिलेटर पर ज़िंदा रखकर धनोपार्जन करने वाले निजी अस्पताल सिर्फ मरीज़ो से ही नहीं कमाते है। इनकी मुख्य कमाई तो तब शुरू होती है जब यह अपने अस्पताल को मेडिकल कॉलेज में परिवर्तित करते है। तब यह मेडिकल माफिया से शिक्षा माफिया बन बैठते है। एडमिशन के नाम लाखो की फीस, केपिटेशन फीस और भी न जाने किस किस मद में पैसे ले लेते है। कॉलेज चलेगा तो स्टेशनरी से लेकर यूनिफार्म तक की छोटी मोटी कमाई या कमीशन तो बनता ही है।
जैसा की कल गहलोत साहब ने सरकारी अस्पताल की दुर्दशा बयान की बस एक यही कारण पर्याप्त है मरीज़ के निजी अस्पतालों के चंगुल में फंसने का हालांकि यह एकमात्र कारण नहीं है। सरकारी लापरवाही और ढिलाई किसी से छिपी नहीं है। मरीज़ और उसके परिजन सरकारी अस्पताल के एक कोने से दुसरे कोने में चक्कर काटते काटते परेशान हो जाते है। फिर सरकारी अस्पताल के सीनियर और एक्सपर्ट कहे जाने वाले डॉक्टर्स के अपने स्वयं की क्लीनिक भी होती है। डॉक्टर साहिब मरीज़ का जितना ख्याल अपने निजी क्लीनिक में देते है उसका 10 फीसदी ध्यान भी सरकारी अस्पताल में बैठकर नहीं देते है। यह वास्तविकता है भले ही इसका प्रमाण न हो।
इसके अतिरिक्त सरकारी अस्पताल के अंदर और बाहर कुछ एजेंट टाइप लोग भी होते है जो मरीज़ और परिजन को परेशानियों से दो चार होते देख कमीशन के लालच में मरीज़ को निजी अस्पताल ले जाने की सलाह देते है। यह एजेंट्स रिक्शा वालो से लेकर मेडिकल स्टोर तक पाए जाते है। परेशान हाल मरीज और परिजन इनके आसान शिकार बन जाते है।
यदि कोई व्यक्ति बीमार होता है या गंभीर अवस्था में होता है तो अमूमन देखा जाता है की उनके परिजन बैचेन हो जाते है और धीरज खो देते है। याद रखे ज़िंदगी और मौत दोनों एक ही शक्ति के पास है जिन्हे आप ईश्वर, अल्लाह, गॉड मानते है। डॉक्टर्स सिर्फ बचाने का प्रयास कर सकता है। कई लोग ऐसे समय में अपना धीरज खो देते है। बस यही से इन निजी अस्पतालों का खेल शुरू होता है। आपको भयभीत कर दिया जाता है। इतना डराया जाता है की इंसान सब कुछ भूलकर अपना सर्वस्व दांव पर लगा देता है। इलाज के चक्कर में कई लोगो को अपना घर बार, खेत खलिहान बेचना पड़ जाता है।
आपको उस वक़्त अहसास करवाया जाता ही की आप खर्चा मत देखो, पहले मरीज़ की जान बचाओ। और फिर आनन् फानन में मरीज़ को आईसीयू में शिफ्ट कर ऑक्सीजन, वेंटिलेटर और न जाने कितनी मशीनों में झोंक दिया जाता है। और यह जमकर अहसास करवाया जाता है की मरीज़ को ज़िंदा रखने के लिए उनके एक्सपर्टस और डॉक्टर्स आकाश पाताल एक कर रहे है। जबकि कई बार खुद एक्सपर्टस और डॉक्टर्स भी जानते है की वह एक मुर्दा जिस्म को वेंटिलेटर के हवाले कर परिजनों की गाढ़ी कमाई पर डाका डाल रहे है।
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