फिल्म 'कश्मीर फाइल्स', एक समीक्षा

फिल्म 'कश्मीर फाइल्स', एक समीक्षा

इसमें समग्रता का भाव सा लगता है। तथाकथित टुकड़े-टुकड़े गैंग व आंतकवाद को पोषित करने वाले नैरेटिव को ठीक से प्रस्तुत करने में प्रयास अधूरा लगता हैं.

 
kashmir

महाभारत, रामायण की कहानी कोई फिल्म दो घंटे परदे पर नहीं उतार सकती। यही कहानी इस फिल्म की है जो कश्मीर में हुई हत्याओं, शोषण और कश्मीरी पंडितों की पलायन की कथा दो घंटे में नहीं कह सकती। कहानी एक परिवार और एक छात्र के इर्द गिर्द घूमती है, जिसमे अनुपम खेर स्वयं एक कश्मीरी होने के नाते फिल्म में प्राण फूंके है।

इसके ऐतिहासिक मुद्दे को देखना जरुरी होगा। कश्मीर वह जगह है जहाँ मोहम्मद गजनवी ने दो बार हमले किये और वहां की भोगोलिलक स्तिथि में बर्फ़बारी व् बाढ़ के कारन मुहं की खाई। यह उसी तरह है जैसे अरावली की पहाड़ियों ने राणा प्रताप, राणा अमर व राणा राज सिंह को अपनी लड़ाई जारी रखने में बहुत सहारा बनी। शिवजी की सफलता व् चम्बल के डाकुओं को भी वहां के बीहड़ों ने बहुत मदद की। मोहम्मद बिन कासिम का सन 711 में सिंध विजय के बाद कश्मीर अभियान भौगोलिक परिस्तिथियों से आगे नहीं बढ़ाया जा सका। शेष भारत में भी अभियान बापा रावल व् गुर्जर प्रतिहारों ने रोक दिया।

कश्मीर में एक बड़ा परिवर्तन 14 वी शताब्दी के आरम्भिक वर्षो में आया, जब वहाँ एक बुद्ध लामा और उसकी हिन्दू पत्नी व् मुस्लिम मंत्री का शासन था। रानी चाहती थी राजा हिन्दू बन जाए पर ब्राह्मण लोगों ने स्वीकार नहीं किया और मंत्री के प्रभाव से राजा मुस्लिम बना व रानी भी और वहां इस कारन से मुस्लिम धरम का प्रादुर्भाव बड़े पैमाने पर हुआ।

मैंने 1989 में कश्मीर यात्रा की थी। मेरे एयर फार्स का समय समाप्ति पर था। पठानकोट एयर फार्स बेस के बहार से साउथर्न ट्रेवल्स की एक बस से यात्रा शुरू की। जम्मू पहुंचे तो पता चला की जम्मू बंद है, एक दिन पहले श्रीनगर में जस्टिस गंजु की हत्या हो गयी थी। अगले दिन श्रीनगर पहुंचे तो पता चला श्रीनगर बंद है, मक़बूल बट की याद में। मेरे लिए यह सब नया था। साल था 1989, जिस साल वी.पी. सिंह की सरकार सत्ता में आयी। यह सब पाकिस्तान में मिलिट्री तानाशाही शासको द्वारा शुरू किये गए धार्मिक नेताओं को तरजीह व इसके फल स्वरुप पनपे आंतकवाद व भारत में घुसपैठ का नतीजा था। भारत में ये वे साल है, जब कमजोर सरकारें मसलन वी. पी. सिंह , चंद्र शेखर का शासन रहा । बाद में जब नरसिम्हा राव आए तब खज़ाना खाली था, व भारत एक समाजवादी समाज से पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था में तब्दील होने लगा।

कश्मीर समस्या व पंडितो का पलायन एक छोटी-मोटी समस्या मानकर ध्यान जो देना चाहिए था, वह नहीं दिया गया व समस्या नासूर बन गई। मेरी एक और यात्रा 2005 में एक नारकोटिक्स केस इन्वेस्टीगेशन के फॉलो-अप के लिए कश्मीर जाने का कारन रही। चार दिन दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग ज़िले की बिजबेहरा तहसील में रुके। डिप्टी पोलिस एजाज़, जो जम्मू क्षत्र से आते थे, उनका कहना था मैं कश्मीरी नहीं, इसलिए यहाँ इतना स्वीकार्य नहीं। उनकी जिप्सी पर हमारे जाने से दो महीने पहले हमला हुआ था। उनका कहना था, बुरे दिनों में जब आतंकवाद चरम पर था, तब जान बचने के कुछ बन्दों को सुरक्षा के खातिर जेल में रखा गया; वहां आंतकियों के पुलिस ठाणे में आकर जेल में बंद लोगों तक को मार डाला। यह वक्तव्य था, पोलिस अधिकारी का।

अब थोड़ा विभाजन पर जाएँ । राजा गुलाब सिंह ने कश्मीर को अंग्रेजों से लीज पर लिया था। विभाजन के समय राजा हरी सिंह की इच्छा एक स्वतंत्र कश्मीर की थी। शेख अब्दुल्लाह कभी पाकिस्तान तो कभी स्वतंत्र पाकिस्तान की मांग करते रहे। 1948 के कबाइली हमले ने हरी सिंह को कश्मीर को भारत में शामिल होने पर मजबूर किया। इस समय सरदार पटेल के दूत वी.पी. मेनन ने विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करवाए, एक अलग संविधान, एक अलग ध्वज व धारा 370 के साथ।  हालात 1988 तक सामान्य रहे, एवं इसके बाद पाक समर्थित आतंकवाद ने आग लगाई। मैंने इस कई विस्थापितों को नज़दीक से देखा, जब में पठानकोट की मीरपुर कॉलोनी, जिसमे आज़ादी के समय से पाक अधिकृत कश्मीर से आयी जनता रहती थी, मैं उनके बीच में रहा।

फिल्म के अंत में जो मास हत्याएं दिखाई गई वे कई गावों में हुई है। आर्टिकल 370 हटने, जम्मू कश्मीर के पपुनर्गठन के बावजूद भी समस्या आज भी है। कहीं-कहीं नैरेटिव आज की सरकार की पब्लिसिटी सा है। कश्मीर में शांति अब भी एक बड़ी राष्ट्रिय समस्या है। फिल्म एक बहुत अच्छे प्लाट पर बनी, पर कही जगह लच्चर है व अपनी निरंतरता खोती है। फिर भी एक ज्वलंत विषय पर होने के कारन अपना ध्यान खींचती है। एक परिवार, एक नैरेटिव व एक बिंदु के इर्द गिर्द घूमती है, व इसमें समग्रता का भाव सा लगता है। तथाकथित टुकड़े-टुकड़े गैंग व आंतकवाद को पोषित करने वाले नैरेटिव को ठीक से प्रस्तुत करने में प्रयास अधूरा लगता हैं.


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