महिला दिवस - इस दिन की शुरआत अमेरिका में मज़दूर आंदोलन से हुई। जहाँ साल 1908 में जब हज़ारो औरतों ने न्यूयॉर्क शहर में मार्च निकालकर नौकरी में कम घंटो की मांग के साथ बेहतर वेतन और मतदान का अधिकार माँगा था। इसके ठीक एक साल बाद सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ अमेरिका ने उस दिन को पहला राष्ट्रीय महिला दिवस घोषित कर दिया।
महिलाओ की वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आपने सोचा है की महिला दिवस सही मायनो में मनाना चाहिए ? क्योंकि सदियों से महिलाओ के साथ जो घटना घटित हो रही है उनके सम्मान को लेकर, सुरक्षा को लेकर, उनके मूल अधिकारों को लेकर जो घटित हो रहा है। क्या यह सभी महिलाओ को महिला दिवस की शुभकामना देने योग्य है ?
महिला दिवस सिर्फ महिला दिवस पर महिलाओ को शुभकामनाए देने से या मंच से बड़ी बड़ी बाते करने से महिला दिवस को सार्थक नहीं बनाया जा सकता। जब तक आप महिला का सम्मान नहीं करते जब तक आप महिला को सुरक्षा नहीं दे सकते, जब तक एक अकेली औरत अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं करती तब तक आप महिला दिवस की खोखली शुभकामनाए देना बेमानी है, बेमतलब है।
क्या 8 मार्च एक दिन ही होता है जिसमे आप औरत को हैप्पी विमेंस डे कहे ? इसी दिन को 12 महीने 365 दिन तक सेलिब्रेट नहीं कर सकते ? जबकि साल भर कहीं न कहीं बल्कि हर शहर हर गली, दुनिया के हर कौने में कोई न कोई महिला बलात्कार, यौन उत्पीड़न, छेड़छाड़, दहेज़ उत्पीड़न, भेदभाव और घरेलू हिंसा का आसान शिकार बनती रहती है। जब तक यह भेदभाव, महिलाओ के प्रति हिंसक रवैया अपनाने वाले समाज से इस बीमारियों का सफाया नहीं हो हो जाता तब तक हैप्पी विमेंस डे सिर्फ एक औपचारिकता ही कही जाएगी।
निर्भया कांड से सारा देश वाकिफ है। उन्नाव, कठुआ, हाथरस, हैदराबाद सभी घटनाओ से देश भली भांति वाकिफ है। हाल ही में हमारे शहर उदयपुर में सिटी स्टेशन पर एक युवती अश्लीलता की शिकार हुई है। 26 फ़रवरी को घटित इस घटना में आरोपी का वीडियो, फोटो सभी मौजूद है लेकिन अभी तक आरोपी कानून की पकड़ से बाहर है। आये दिन किसी न किसी के हवस की शिकार अबलाओ के समाचार दैनिक समाचार पत्रों और मीडिया में सुर्खियां बनती है। लोग कुछ दिन तक कैंडल जलाते है, मशाल जुलुस निकालते है, और भूल जाते है। फिर दुसरे दिन किसी मशाल जलाने वाली युवती किसी का शिकार बनती है, अनंत काल से चक्र चलता रहा है और चलता रहेगा। कहने को न्यायपालिका और सक्षम कानून मौजूद है लेकिन नारी आज भी न्याय को तरस रही है।
अभी हाल ही में मीडिया जगत की सुर्खी बनी अहमदाबाद की 23 वर्षीया आयशा दहेज़ उत्पीड़न से इतनी परेशान हुई की उसने अपनी जान देना सबसे आसान लगा। हालाँकि मैं जान देना किसी भी हाल में उचित नहीं कहती लेकिन क्या आयशा के पास कोई दूसरा रास्ता बचा था। उसके ससुराल वालो और जिस शौहर को उसने अपना हमसफ़र बनाया था, सिर्फ और सिर्फ दौलत की हवस की खातिर एक मासूम को आत्महत्या के रास्ते धकेलने वाले दहेज़ के दानवो पर हत्या का केस क्यों नहीं चलना चाहिए। क्यों नहीं ऐसे लोग सलाखों के पीछे धकेलने चाहिए। कानून की कमज़ोर धाराओं का लाभ उठाकर यह दहेज़ के दानव ज़मानत पर छूटकर अगली आयशा को निशाना बनाने की तैयारी में रहते है। क्या सिर्फ ऐसे लोगो को कानून ही सजा दे सकता है ? समाज क्यों नहीं आगे आता, ऐसे लालचियों को सबक सिखाने को। आखिर कितनी आयशा की बलि चाहिए समाज को जगाने के लिए ?
यहाँ अकेली आयशा या निर्भया नहीं है रोज़ एक न एक आयशा और निर्भया दुनिया के हर कौने में शिकार बनती है। कभी कभी कानून से तो इंसाफ मिल भी जाता है, हालाकिं घटनाओ के प्रतिशत में देखे तो यह बहुत ही कम है। लेकिन समाज ? समाज से आज तक कितनी महिलाओ को इंसाफ मिला है ? बलात्कार पीड़िता को समाज किस नज़र से देखता है यह बताने की शायद किसी को ज़रूरत नहीं। उल्टा पीड़िता के ही चरित्र पर सवाल उठाया जाता है। यहाँ तक की पीड़िता और अपराधी का धर्म और जाति देखकर राजनीती शुरू हो जाती है और आरोपियों को धर्म जाति के आधार पर महिमामंडित करके अगले चुनाव में टिकट पकड़ा दिया जाता है। क्या हाथरस? क्या उन्नाव? क्या कठुआ? सब जगह यही कहानी।
दहेज़ के लोभियो का आजतक किस समाज में बहिष्कार किया गया है ? कितने समाजो ने दहेज़ के खिलाफ कदम उठाया है कहना मुश्किल है। हां खोखली घोषणाए ज़रूर होती है। कुछ लोग लच्छेदार भाषण देकर तालियां बटोर कर भूल जाते है। कब हम महिलाओ को उसका वास्तविक अधिकार देंगे ? कब ऐसे समाज का निर्माण होगा जहाँ अकेली महिला अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सके। ऐसा होगा (कहना मुश्किल है) तब हैप्पी विमेंस डे की सार्थकता साबित होगी। तक तक समाज की सतायी हुई आयशाओ और हवस की शिकार निर्भयाओं को सिर्फ औपचारिक रूप से HAPPY WOMEN's DAY !
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