आज हमारे देश भारत में राष्ट्रीय प्रेस दिवस है। 1966 में भारतीय प्रेस परिषद (पीसीआई) की स्थापना के उपलक्ष में राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाया जाता है। कहने को तो लोकतंत्र में स्वतंत्र और जिम्मेदार प्रेस के मूल्यों को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाया जाता है। लेकिन वास्तव में क्या ऐसा है ?
180 देशो की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 159वां स्थान है हमारे देश का। प्रेस को जहाँ सरकार और जनता के बीच का सेतु बनना चाहिए। आज वहीँ प्रेस सत्ता की ताल में ताल में मिलाकर जनता को खबरे कम और विज्ञापन ज़्यादा परोस रहा है।
लोकतंत्र में जिस प्रेस का स्थान विपक्ष से अधिक मुखर होना चाहिए वह प्रेस सरकारी विज्ञापनों के आगे नतमस्तक है। ऐसा नहीं की प्रेस सरकार की बुराई नहीं करता है। प्रेस सरकार की बुराई अवश्य करता है लेकिन सरकार में बैठे नेताओ और अफसरशाही की बुराई की बजाय सरकारी संस्थानों की बुराई करता है जैसे की उदाहरण के तौर पर आये दिन आप किसी अखबार को उठा के देखे जहाँ एक पन्ने पर सरकारी अस्पताल की अव्यवस्थाओ की पोल खोलने वाली खबर होगी उसी अखबार के किसी कोने में निजी अस्पताल का बड़ा सा विज्ञापन मिल जाएगा। यहीं से समझ सकते है अखबार की रिपोर्टिंग और कॉर्पोरेट विज्ञापन का गठजोड़।
प्रेस या मीडिया का काम है सच्ची और निष्पक्ष तरीके से घटना को जनता के सामने रखना ना की किसी भी घटना को किसी ख़ास चश्मे से देखकर जनता के सामने परोसना। प्रेस का काम खबर देना है, कुछ विषयो पर राय नज़रिया रखना होता है, ना की स्वयं जज बनकर अपना फैसला सुनाना है। कई मामलों में देखा गया है जहाँ आरोपी का कोर्ट में पेश होने से पहले ही उसका मीडिया ट्रायल शुरू होता है। जबकि अदालत के फैसले में वह निर्दोष साबित होता है। वहीं कई बार भ्रामक और झूठी खबरो के सहारे अफरातफरी भी फैलाई जाती है। मज़े की बात यह है की इस खेल में छोटे मोटे चैनल से लेकर तथाकथित मैन स्ट्रीम मिडिया भी शामिल है।
ब्रेकिंग खबर देने के चक्कर में कई बार मीडिया ऐसी खबरे चला देती है जो मज़ाक का विषय बन जाया करती है नोटबंदी के समय करंसी नोट में नैनो चिप तो याद होगी ही। 24 घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल एक ही खबर पर दो-चार लाइन पर अटक कर बार बार एक ही बात घुमा फिरा के परोस देती है। ऐसा नहीं की मीडिया के पास मुद्दे नहीं है। मद्दे बहुत है लेकिन न्यूज़ चैनलों पर क्या परोसा जाता है वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। अब इसे मजबूरी नहीं कहे तो क्या कहे ? हाल के वर्षो में हुए जन आंदोलनो में तथाकथित मैन स्ट्रीम मिडिया की भूमिका किसी से छिपी नहीं है।
भुखमरी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा यह वह मुद्दे है जिन पर आजकल प्रेस में कोई ज़िक्र नहीं होता। ज़िक्र होता है तो सेलिब्रिटी की शादी का, स्टार किड्स का, क्रिकेट और फिल्म जगत के कलाकारों के अफेयर्स का और उन्ही फिल्म जगत की हस्तियों के विवादित बयानों का ज़िक्र होता है। और हमारी मीडिया गंभीर मुद्दे पर सवाल भी उन्ही फिल्म स्टार से करती है, जिनकी चर्चा उनके अभिनय से अधिक उनके बयानों से वह चर्चित रहता है। हालाँकि सारा दोष मीडिया का नहीं है। दर्शक, श्रोता और पाठक वर्ग भी वहीँ मसाला न्यूज़ चाहता है।
सच कहे तो मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो चूका है। कभी छपकर बिकना वाला अखबार आज बिकने के बाद छप रहा है। टीवी 2 से 5 मिनट के विज्ञापनों के बीच खबर देने वाली प्रेस मिडिया जगत से जुड़े सभी लोगो को राष्ट्रिय प्रेस दिवस की शुभकामनाए, और धन्यवाद ऐसे मीडिया और प्रेस जगत को जो विपरीत परिस्थितियों में भी थोड़ी बहुत अपनी खबरों से प्रेस की इज़्ज़त बचाए हुए है।
यहाँ मुझे खुलकर कहने में कोई संकोच नहीं की सभी मीडिया की इनकम या आय का स्त्रोत विज्ञापनों है और इससे हमारा मीडिया भी अछूता नहीं। किसी प्रोडक्ट या उत्पाद का विज्ञापन एक अलग बात है और किसी एजेंडे के तहत खबर चलाना और भ्रम की स्थिति पैदा करना और बात है।
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