पसमांदा मुस्लिम राजनीती निश्छल प्रेम या छलावा ?


पसमांदा मुस्लिम राजनीती निश्छल प्रेम या छलावा ?

एक तरफ भाजपा इस तबके को साधना चाहती है तो दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली पार्टियां मुस्लिम मुद्दों पर लगातार चुप्पी साधे हुए है

 
politics on Pasmanda muslims

इस्लाम में जातिवाद को मान्यता नहीं है लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान जातिवाद से मुक्त नहीं है। भारत की कुल आबादी के 15 फीसदी से अधिक मुसलमान अनेक जाति में बंटे हुए है जिनमे अमूमन रोटी बेटी का व्यवहार नहीं पाया जाता है। हालाँकि ज़माने के साथ बदलते परिवेश में कुछ सीमाएं टूटी ज़रूर है लेकिन अभी भी जातियों के बीच खाई कम नहीं हुई है। इस खाई को और गहरा करने में राजनितिक पार्टियां जुट गई है।   
 
17 जनवरी को भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री ने बीजेपी कार्यकर्ताओं से कहा, "आप लोग पसमांदा मुसलमान, बोहरा समुदाय के लोगों और शिक्षित मुसलमानों से वोट की चिंता किए बिना मिलें" पसमांदा मुसलमान जैसे जुलाहे, धुनिया, घासी, क़साई, तेली और धोबी वग़ैरह, जिन्हें भारतीय परिवेश में निचली जातियों में गिना जाता है, लंबे समय से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ़ोकस में रहे हैं, लेकिन पार्टी की पिछली 2022 में हैदराबाद और जनवरी 2023 में दिल्ली में ख़ास तौर पर उन्होंने उनका ज़िक्र किया।  
 
मुख्य तौर पर भारत के मुसलमान अशरफ (कुलीन वर्ग जैसे सैयद, शेख़, मुग़ल, पठान, मुस्लिम राजपूत, तागा या त्यागी मुस्लिम, चौधरी मुस्लिम या बोहरा मुस्लिम) और पसमांदा (अंसारी, मंसूरी, कासगर, राइन, गुजर, बुनकर, गुर्जर, घोसी, कुरैशी, इदरिसी, नाइक, फ़कीर, सैफ़ी, अलवी, सलमानी, दलित मुस्लिम) में बंटे हुए है।   
 
पसमांदा जातियां अशरफ़ जातियों की तुलना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़ी हैं। बीजेपी की नज़र इन्हीं पसमांदा मुसलमान वोटरों पर है।  पसमांदा एक फारसी शब्द है जिसका मतलब है 'पीछे छूट गए लोग' भारत में पहली बार पसमांदा मुस्लिम शब्द का इस्तेमाल 1998 में अली अनवर अंसारी (जेडीयू से जुड़े) ने किया था, जब उन्होंने 'पसमांदा मुस्लिम महाज' नाम के संगठन की नींव रखी थी।  
 

भाजपा का पसमांदा प्रेम वोटो के लिए या अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में कोई संदेश देने के लिए है?  
 
एक तरफ जहाँ बीजेपी ने पसमांदा मुस्लिमों को अपने पाले में लेने की जो कोशिश शुरू की है उसका असली मकसद क्या पसमांदा वोटों के लिए है या फिर मुस्लिम विरोधी तमगा हटा कर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को कोई संदेश देना चाहती है? या फिर मुस्लिम मतों में बिखराव ? या फिर कट्टर हिन्दुवाद की छवि से आगे जाकर लिबरल हिन्दुओं का समर्थन हासिल करना? हालाँकि कथनी और करनी में बहुत फर्क होता है। गौरक्षा के नाम पर लिंचिंग हो या सांप्रदायिक दंगे इनमे जानमाल का नुक्सान भी इन्ही पसमांदा मुस्लिमो का होता है।   

यह पहली बार नहीं जब भाजपा ने मुस्लिमों के एक तबके की तरफ हाथ बढ़ाया हो। पूर्व में शिया-सुन्नी विवाद में भाजपा के नेता लखनऊ में शिया वर्ग के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते रहे है लेकिन चूँकि मुस्लिम आबादी में शिया वर्ग के वोट इतने अधिक नहीं कि उससे कोई फायदा मिल पाता इसलिए अब भाजपा की नज़र मुस्लिम आबादी मे लगभग 80 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले पसमांदा वर्ग पर है।

दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्ष छवि वाली कांग्रेस मुस्लिम मुद्दों से लगातार पीछे हटती जा रही है। रायपुर अधिवेशन के पोस्टर से कांग्रेस के मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, रफ़ी अहमद किदवई, डॉ ज़ाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद जैसे नेताओं का फोटो नदारद होना हो या गौरक्षा के नाम पर मोब लिंचिंग जैसे मुद्दों पर चुप्पी साधना। मुस्लिम मतों पर अपना एकाधिकार समझने वाली कांग्रेस अब सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर निकली है। वह भी तब, जबकि भाजपा की ब्रांडेड हिंदुत्व मौजूद है।

वहीँ क्षेत्रोय पार्टियां भी अब मुस्लिम मुद्दों पर चुप्पी साध रही है। चाहे वह दिल्ली की आम आदमी पार्टी हो या उत्तर प्रदेश में बल्क में मुस्लिम वोट पाने वाली समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी हो यह पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल हो। मुस्लिमो का मत इन सभी पार्टियों को चाहिए लेकिन मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व कोई नहीं देना चाहता है।    

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