कहने को राजस्थान में आज से 19 अप्रैल तक स्कूल, जिम, सिनेमा, स्विमिंग पूल बंद कर दिए गए है। कई शहरों में रात का कर्फ्यू भी लगा हुआ है। और कर्फ्यू का समय भी बढ़ने पर विचार हो रहा है। और जहाँ कर्फ्यू नहीं है वहां कर्फ्यू लगाए जाने पर विचार चल रहा है। राज्यों से आवाजाही पर प्रतिबंध भी लगाया गया है। लेकिन जहाँ उपचुनाव है वहां की स्थिति से जनता परिचित है। चुनावी रैलियों और रोड शो में किराये की भीड़ और समर्थको का हुजूम अख़बारो की सुर्खियों में जगह बना रही है, लेकिन प्रशासन चुप्पी साधे हुए है। ऐसे में सवाल उठता है की क्या कोरोना भी चुनाव और लोकतंत्र की रक्षा के लिए कटिबद्ध है ? इन दिनों सोशल मीडिया ओर झुमला चल रहा है। "जहाँ चुनाव है वहां कोरोना नहीं आता" कहने को यह एक मज़ाक है लेकिन इसकी वास्तविकता से सभी परिचित है। वास्तविकता यही है की स्कूल, स्वास्थ्य और जीवन जीने का संघर्ष चुनाव राजनीति की बलि चढ़ता दिखाई दे रहा है।
वैश्विक महामारी कोरोना से लगभग डेढ़ साल से दुनिया भर के देश जूझ रहे है, संक्रमण का ज़ोर साल के अंत तक कम होता होता पुनः जोर पकड़ने लगा है। पिछले साल के लॉक डाउन में हम देख चुके है व्यापार धंधो को तबाह होते हुए, कइयों की नौकरी छीनते हुए, मज़दूरों का कार्यस्थल से पलायन होते हुए, भुखमरी से तड़पते हुए लोगो को हम देख चुके है। फिल्म जगत से क्रिकेट की दुनिया तक का डाउनफॉल देखा है।
वैक्सीन आने के बाद ऐसा माहौल बनते भी देखा की बस अब कोरोना का अंत हो जाएगा। लेकिन वास्तविकता किसी से छिपी हुई नहीं है। कोरोना के खौफ को कई लोगो ने झेला है। ना जाने कितने ही परिवार ने अपने सदस्यों को खोया है। पिछले साल की भयावह स्थिति किसी से छिपी नहीं है। मार्च के मध्य से एक बार फिर वही स्थिति बनती दिख रही है।
ऐसा नहीं की ज़िम्मेदार बेखबर है, वह भी स्थिति से वाकिफ है और कदम भी उठ रहे है। लेकिन लगता है चुनावी राजनीती के चलते आँख मूँद कर बैठे हुए है। चाहे वह बंगाल, आसाम, तमिलनाडु के चुनाव हो या राजस्थान समेत अन्य प्रदेशो के उपचुनाव। सरकार चुनाव के आगे नतमस्तक होकर मौन बैठी है। चुनावो के प्रचार रैलियों के आगे तो कोरोना भी बेबस दिख रहा है।
हालाँकि ऐसा नहीं है की जहाँ उपचुनाव है वहीँ नेता लोग भारी भीड़ के बीच गौरवान्वित महसूस कर रहे है। जहाँ चुनाव नहीं है वहां पर 'लोकतंत्र' के तथाकथित प्रहरी वेक्सिनेशन शिविर में जाकर फोटोजीवी बन रहे है। यकीन न हो तो दो तीन के अखबार उठा के देख लीजिये जहाँ जन प्रतिनिधि जहाँ भी वेक्सिनेशन होता है वहां पहुँच जाते है और वेक्सिनेशन में अपना योगदान जताने के लिए फोटो खिंचवाने का मोह नहीं छोड़ पा रहे है।
खैर नेताओ को समझना और समझाना तो भगवान के हाथ में भी नहीं है। समझना जनता को ही है। जहाँ उपचुनाव है वहां वोट अवश्य डाले लेकिन नेताओ के अंधसमर्थक बन कर रैलियों और रोड शो से परहेज़ किया जा सकता है। क्योंकि नेताजी तो चुनाव जीतते ही 'देशसेवा' को निकल पड़ेंगे लेकिन कोरोना आपका पीछा नहीं छोड़ने वाला। इसलिए सजग रहे सतर्क रहे और अपनी सुरक्षा स्वयं करे।
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