"पधारो म्हारे देश" अगर आप राजस्थान घूमने जाते हैं तो ये शब्द आपको हर जगह सुनाई देता है। जिसको सुनकर आपको खुद फील हो जाएगा की आप राजस्थान में है।
यहां पहुंचकर हमें सबसे पहले दिमाग में बांधनी प्रिंट से बने दुपट्टे, कुर्ते, लहंगे और साड़ी याद आते हैं। यहां के जुती डिजाइन, बैग्स, ज्वेलरी भी काफ़ी फेमस होते हैं। अगर आपको बांधनी प्रिंट पसंद है तो राजस्थान के उदयपुर शहर में स्थित 'हाथीपोल बाज़ार' एक लोकप्रिय और प्राचीन बाज़ार है। कहा जाता है कि जो भी घूमने के लिए उदयपुर में पहुचंता है वो यहां से शॉपिंग करता ही करता है। इस बाज़ार में मिलने वाली सबसे फेमस ट्रेडिशन ज्वेलरी, राजस्थानी बैग्स, राजस्थानी मोजड़ी या जूती आदि जैसी कई चीजों की शॉपिंग कर सकते हैं। इसके अलावा घर को सजाने के लिए हैंडमेड सामान भी खरीद सकते हैं। हाल ही में हाथीपोल मार्केट में डेलनाज ईरानी (Delnaaz Irani) ने भी विजिट किया और उन्हें भी बेहद पसंद आया, उदयपुर शहर का हाथीपोल मार्केट । आप उनके इंस्टाग्राम पेज "officialdelnaazirani" पर भी उनकी रील्स में देख सकते हैं। इस अद्भुत शहर में घूमने के लिए हर दिन हजारों देशी और विदेशी सैलानी पहुंचते रहते हैं। खासकर मानसून के समय इस शहर के मनोरम दृश्य को देखने के लिए कुछ अधिक ही सैलानी पहुंचते हैं।
दुनिया की सबसे पुरानी जीवित टाई एंड डाई (Tie-dye) परंपराओं के रूप में प्रसिद्ध है राजस्थान का बांधनी (Bandhani) और लहरिया (Lehariya)। बांधनी शब्द संस्कृत की क्रिया 'बंध' से निकला है, जिसका अर्थ है "बांधना," और इसमें प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। बांधनी कपड़े पर छोटे-छोटे बिंदुओं को लगातार एक धागे से बांधने और रंगने की खूबसूरत राजस्थानी कला है। समृद्ध उदयपुर शहर कई कुशल बंधनी कारीगरों का घर है, प्राचीन कला गुजरात और राजस्थान राज्यों से आई है। समय के साथ जयपुर और जोधपुर जैसे शहर ऐसे बांधनी की वस्तुओं और विशेष रूप से साड़ियों की बिक्री के लिए प्रमुख व्यावसायिक केंद्र बन गए हैं।
नेशनल हैंडप्रिंट के संचालक मोहम्मद सलीम ने जब उदयपुर टाइम्स टीम को बताया की बांधनी कला का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। लाल-पीले-नीले और सफेद रंग के छोटे-छोटे प्रिट वाली साड़ी-दुपट्टा पर बांधनी आर्ट किया जाता है। इस आर्ट को बंधेज भी कहा जाता है। बांधनी एक ऐसी विधि है, जिसमें कपड़े को बांधकर व गांठ लगाकर रंगाई की जाती है। जार्जेट, शिफान, रेशमी व सूती कपड़े को रंग के कुंड में डालने से पहले धागे से कसकर बांधा जाता है और जब इस धागे को खोला जाता है, तो बंधा हुआ हिस्सा रंगीन हो जाता है। फिर हाथ से कपड़े पर धागे के प्रयोग से डिजाइन किया जाता है। मोहम्मद सलीम कहते हैं कि इसमें कपड़े को कई स्तर पर मोड़ना, बांधना और रंगना शामिल है। खास बात यह है कि कई वर्ष बाद भी बांधनी की साड़ी, सूट नई जैसी रहती है।
मोहम्मद सलीम बताते है की यह उनका फैमली बिजनेस है । जो वे 100 सालों से करते आ रहे हैं। वे खुद एक चुंदरीगढ़ है, चुंदरीगढ़ का मतलब होता है बांधनी बनाने वाले। वे बताते है की राजस्थान में चुंदरीगढ़ के बहुत से परिवार रहते है। जो आज भी इस कला को जीवित रखे हुए है। मोहल्ले में महिलाएं यह काम करती है । मोहम्मद सलीम बताते है की वे इन महिला कारीगरों को प्लेन सफ़ेद रंग का कपड़ा उपलब्ध करवाते है, फिर वे सभी महिला कारीगर इन कपड़ो को बांधती है। उसके बाद रंगने का काम होता है, मोहम्मद सलीम बताते है की वे खुद ही इन कपड़ों को घर में रंग लेते है, फिर इससे सुखाया जाता है, सुखाने के बाद जब खोला जाता है इन कपड़ों को तो इनमें से एक डिज़ाइन नज़र आती है बस इसी प्रकार से बनते है बांधनी कला से विभिन्न सूट।
मोहम्मद सलीम ने बहुत ही खास बात बताई जो की बहुत ही कम लोग जानते है। 1947 में भारत पाकिस्तान के बंटवारे के समय उदयपुर के महाराजा ने पाकिस्तान के मुल्तान शहर से 'बंधेज - लहरिया' बनाने वाले कारीगरों को विशेष रूप से इस कला के लिए उदयपुर बुलाया। तो माना जाता है की उस समय के कारीगरों और उनके परिवार वाले तब से यहाँ उदयपुर में बस गए, और तब से लेकर आज तक उनकी लहरिया- बंधेज की कला को बनाने की पीढ़ी चलती आ रही है।
मोहम्मद सलीम बताते है की उनके परदादा वली मोहम्मद जोधपुर से उदयपुर आकर बसे थे। करीब 70-80 वर्ष पहले उनके परदादा व दादा गाँव-गाँव फेरी का बिसनेस किया करते थे । फिर धीरे-धीरे उन्होंने अपनी खुद की दुकान ‘जोधपुर साड़ी’ के नाम से 60-70 साल पहले मोती चोहट्टा, आयुर्वेदिक हॉस्पिटल के पास खोली फिर किसी कारण वश वह दुकान बंद हो गयी। मोहम्मद सलीम बताते है की फिर उन्होंने वर्ष 1975 में हाथीपोल में ‘अप्सरा साड़ी’ के नाम से दुकान खोली जो अभी है। 'लहरिया बंधेज' नाम से भी उन्होंने दुकान खोली। जो आज अभी है हाथीपोल मार्केट में। इसके बाद सन 1999 में उन्होंने ‘नेशनल हैंडप्रिंट’ नाम से भी दुकान खोली जो अभी भी हाथीपोल मार्केट में है। और हाल ही में उन्होंने अपनी नयी दुकान भी खोली है ‘क्राफ्ट कल्चर’ के नाम से जो अभी हाथीपोल मार्केट में है। जो उनके चाचा मोहम्मद इब्राहीम और उनके बच्चे देखते है।
खलील अहमद जो की 'लहरिया - बंधेज' के कारीगर है और काफ़ी सालों से मोहम्मद सलीम के साथ काम करते है।
उन्होंने उदयपुर टाइम्स टीम को बताया की करीब 150 साल पहले उनके परदादा ‘हाजी फ़तेह मोहम्मद’ को उदयपुर के 'महाराजा भूपाल सिंह' ने जोधपुर से विशेष रूप से चुंदरी के साफे बनाने के लिए उन्हें उदयपुर बुलाया था।
खलील अहमद बताते है की जब से वे और उनका पूरा परिवार उदयपुर आए है यही पर अब बसे चुके है, तब से वे सभी ‘साफे’ बनाते है और लहरिया बंधेज का काम करते है। जबकि बंधेज और लहरिया राजस्थान के सबसे प्रसिद्ध टाई और डाई प्रिंट हैं, यह रंगाई की तकनीक विभिन्न प्रकार के पैटर्न बना सकती है। इसलिए, कपड़ों पर अलग-अलग मोटिफ जैसे 'एकदली और शिकारी' उपलब्ध हैं। मोथरा को लहरिया का विस्तृत रूप माना जाता है और इसमें डायगोनल रेखाएं विपरीत दिशाओं में एक दूसरे को पार करती हैं, जिससे हीरे के तरह पैटर्न नज़र आते हैं।
यहां तक कि मशीनी प्रिंटों की दीवानगी भरी दुनिया में भी, हाथ से मुद्रित वस्तुओं ने अपना सुरक्षित स्थान बनाए रखा है। यहां, हम विशेष रूप से 'हैंड-ब्लॉक प्रिंटिंग' के इतिहास, सुंदरता और जटिलता पर ध्यान केंद्रित करने जा रहे हैं। सरल शब्दों में, ब्लॉक प्रिंटिंग को कागज या कपड़े के टुकड़े पर एक डिज़ाइन छापने के लिए लकड़ी के ब्लॉक के बारीक नक्काशीदार टुकड़े का उपयोग करने के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। हालाँकि, आज ब्लॉक प्रिंटिंग की खूबसूरत प्रक्रिया काफी हद तक डिज़ाइनों को तराशने और उन्हें कपड़े पर प्रिंट करने से जुड़ी है। एक ही कपड़े को प्रिंट करने के लिए कई ब्लॉकों का उपयोग किया जा सकता है। कुछ लोकप्रिय वस्तुओं में ब्लॉक प्रिंट चादरें, ब्लॉक प्रिंट साड़ियाँ और ब्लॉक प्रिंट दुपट्टे शामिल हैं।
'दुकानदार नरेश' से जब उदयपुर टाइम्स टीम को बताया की ब्लॉक प्रिंटिंग कला एक सुंदर प्रक्रिया का पालन करके की जाती है जहां ब्लॉकों पर आवश्यक डिज़ाइन उकेरे जाते हैं और कपड़ों पर छपाई के लिए प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है। एक बार जब ब्लॉक बराबर हो जाते हैं, तो यह डिजाइनिंग के लिए जाता है जो छेनी, कम्पास या चाकू की मदद से किया जा सकता है। जिसमें बगरू प्रिंटिंग, सांगानेरी प्रिंटिंग, कलमकारी ब्लॉक प्रिंटिंग, अजरख प्रिंटिंग और दाबू प्रिंटिंग जैसे विभिन्न प्रिंटिंग फॉर्म शामिल हैं। जिसमें ब्लॉक प्रिंट रजाई, कुर्तियां, शर्ट, बेडशीट, स्कार्फ आदि शामिल हैं।
यह बजार उदयपुर की कुछ बेहतरीन ज्वैलरी कलेक्शन को भी पेश करता है। जब उदयपुर टाइम्स टीम ने 'हैदर अली मगर' से बात की तो उन्होंने यहां की राजस्थानी ट्रेडिनेशन ज्वेलरी के बारे में बहुत कुछ बताया। वे बताते है की 'थेवा कला' की शुरूआत लगभग 300 वर्ष पूर्व राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में हुई थी, 'थेवा कला' से बनाये गये आभूषणों की अपनी अलग ही पहचान है। शीशे पर सोने की बारीक मीनाकारी की बेहतरीन ‘थेवा-कला’ विभिन्न रंगों के शीशों (काँच) को चांदी के महीन तारों से बनी फ्रेम में डालकर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरने की अनूठी कला है।
हैदर अली मगर ने बताया की राजस्थान वैश्विक रत्नों और पत्थरों का एक प्रसिद्ध निर्माता है। यह ढेर सारे अर्ध-कीमती और बहुमूल्य रत्न भी मिलते है। पन्ना, पुखराज, नीलम, माणिक, क्वार्ट्ज, नीलम और कई अन्य राजस्थान के विशिष्ट अर्ध-कीमती पत्थर हैं।
हैदर अली मगर ने बताया की पारंपरिक ‘मीनाकारी आभूषणों’ को तब पहचान मिली जब मेवाड़ के राजा मानसिंह ने इसे अपने दरबार में प्रदर्शित करने का फैसला किया। यही कारण है कि राजस्थान मीनाकारी आभूषणों में अपनी शिल्प कौशल के लिए जाना जाता है। इसे पिघले हुए रंगीन शीशों में पत्थरों को डुबोकर और उनके आपस में चिपकने तक प्रतीक्षा करके बनाया जाता है। बाद में इन्हें सोने या चांदी से मढ़ा जाता है। इन्हें बनाने के लिए जिस रंग का उपयोग किया जाता है वह रंग धातु पर एनामेलिंग के लिए उपयोग किया जाता है, जिसे थोड़ी मात्रा में पाउडर ग्लास के साथ मिलाया जाता है। आमतौर पर, 'मीनाकारी आभूषण' महंगे होते हैं क्योंकि वे हस्तनिर्मित होते हैं और इसे बनाने की प्रक्रिया में समय काफ़ी लगता है।
यहाँ आप वारंटी के साथ इन आभूषणों को ले जा सकते हैं। आजकल के दौर में इन राजस्थानी ज्वेलरी को काफी पसंद किया जा रहा है क्योंकि इनमें कई सारे बदलाव कर इन्हें लाजवाब बना दिया गया है। आमतौर पर पहले भी यह राजस्थानी ज्वेलरी काफी खूबसूरत हुआ करती थी लेकिन इनमें अभी और भी बदलाव किए गए हैं।
वैसे तो आम भाषा में महिलाओं के हर बैग को लोग पर्स ही कहते हैं, लेकिन असल में हर तरह के बैग के अलग नाम होते हैं। चाहे वो कंधे पर डालने वाला बैग हो या हाथ में लेने वाला पर्स, सबका अलग नाम होता है। इस बाज़ार में कई तरह से बैग्स भी मिलते है, परंतु 'भारतीय पोटली बैग', अपनी उत्कृष्ट शिल्प कौशल और अद्वितीय डिजाइन के साथ, सदियों से भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहे हैं। ये आकर्षक बैग, जो आमतौर पर कपड़े से बने होते हैं और कढ़ाई या अलंकरण से सजे होते हैं, भारतीय परंपरा में महत्वपूर्ण हैं। इस लेख में हम आपको महिलाओं के अलग-अलग बैग्स के बारे में आपको बताएंगे।
सिराज अहमद पानवाला बताते है की इन बैग्स को कुछ पुराने भारतीय कपड़ों से बनाया जाता है, जो देश की समृद्ध विरासत को बढ़ावा देता हैं। सब कुछ पुराने प्रकार के कपड़ों से तैयार किया जाता है और उन्हें नए और आधुनिक फैशन के साथ फ्यूजन कर बाजार में स्टाइलिश अंदाज में पेश किया जाता है। हालांकि, मार्केट में इस डिजाइन को तैयार करने वाली कई कंपनी है। आपको इनके यहाँ पर्स, क्लच, टोटे, स्लिंग, बॉक्स जैसी एक से बढ़कर एक वैरायटी मिल जाएगी, जिसे आप अपनी पसंद के हिसाब से चुन सकते है।
लेकसिटी बैग्स के संचालक अनीस बैगवाला बताते है की कढ़ाई की कला सदियों से एक पोषित परंपरा रही है। कढ़ाई के असंख्य रूपों में से एक, जो अपनी सुंदरता और बहुमुखी प्रतिभा के लिए जाना जाता है, वह है हस्तनिर्मित कढ़ाई वाला 'पोटली बैग'। अपने जटिल डिज़ाइन और जीवंत रंगों के साथ ये उत्कृष्ट बैग पीढ़ियों से भारतीय फैशन और परंपरा का अभिन्न अंग रहे हैं। आज, वे भारी सजावट के साथ आते हैं और अपने पुराने जमाने के आकर्षण को बरकरार रखते हुए भव्य फैशन स्टेटमेंट बनाते हैं। वे बताते है की ‘कांथा’ अपनी सादगी के लिए जाना जाता है। कांथा चिथड़ों से पैचवर्क कपड़ा सिलने की सदियों पुरानी प्रथा है।
पैरों की खूबसूरती बढ़ाने में सबसे ज्यादा खास होते हैं फुटवियर। मार्केट में वैसे तो कई तरह के फुटवियर अवेलेबल हैं, लेकिन इन दिनों राजस्थानी जूती का ट्रेंड बढ़ा है। इस बजार में सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध मोजड़ी या राजस्थानी पारंपरिक जूते हैं जो किसी भी जातीय परिधान के शाही रूप को बढ़ाते हैं। हाथीपोल बाज़ार की हस्तकला मोजड़ी के संचालक मोईनुद्दीन ने बताया की 'वैलवेट और लेदर की मोजड़ी' पैरों के कंफर्ट को देखते हुए मोजड़ी में भी कई चेंजेज मिल रहा है। ये वैलवेट और लेदर के आ रहे हैं।
साथ ही अब मोजड़ी में फ्लैट के साथ-साथ हील भी देखा जा रहा है। राजस्थानी मोजड़ी का ट्रेंड इतना बढ़ गया है कि महिलाऐं और युवतियां ऑफिस से लेकर शादी समारोह में भी पहनने लगी हैं। वहीं पुरुष भी शेरवानी के साथ-साथ कुर्ता-पायजामा और जींस के साथ भी मोजड़ी पहनने लगे हैं।
वे बताते है जूतियों में आजकल 'फुलकारी वर्क, कश्मीरी वर्क, तिल्ले वाला वर्क और लहरियां वर्क' बहुत पसंद किया जा रहा है। इनमें खास बात यह है कि यह रेशम के धागे और जरी से वर्क किया जाता है। इनमें पैरों की सुंदरता देखते ही बनती है। महिलाऐं साड़ी और सूट पर मैचिंग जूतियां पहनती हैं।
यहाँ पर आपको हर तरह के ट्रेंडी जूतों के साथ राजस्थानी पारंपरिक मोजड़ी भी मिलेगी। कढ़ाई वाले चमड़े के जूते इस बाजार की विशेषता हैं। यह उदयपुर के चहल-पहल वाले बाजारों में से एक है जहां दुनिया के विभिन्न कोनों से पर्यटक आते हैं।
उदयपुर शानदार कला और पेंटिंग के बारे में है और हाथी पोल बाजार इसका बेहतरीन उदाहरण है..... ये टाई एंड डाई तकनीक राजस्थान की जीवंत संस्कृति की सच्ची प्रतिबिंब है, जो राज्य को भारत के अन्य हिस्सों से अलग करती है। इसलिए यदि आप भी अपनी अलमारी में कुछ कलात्मक रूप से रंगे बांधनी और लहरिया के कपड़ों से सजाने चाहते हैं तो राजस्थान के उदयपुर शहर के खुले बाज़ारों का दौरा करें जहाँ आपको इस तकनीक की विशाल रेंज मिलेगी और आप इन प्राचीन कलाओं के कारीगरों से भी बात कर सकते हैं। यहां पर सबसे खूबसूरत और अच्छी तरह से तैयार की गई राजस्थानी पेंटिंग्स, लघु चित्रों, रंगीन लोक खिलौनों, मुस्कुराते हुए कठपुतली भी देखने को मिलेगी ।
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