रमजान माह में तीस रोज़ो के बाद देश दुनिया में मुस्लिम समुदाय ईद उल फ़ित्र मनाता है। ईद उल फ़ित्र जिसे आम ज़बान में मीठी ईद भी कहा जाता है। ईद उल फ़ित्र का नाम आते ही मुंह में सेवईंयों की मिठास घुल जाती है। सिर्फ सेवईंयां ही नहीं मुस्लिम मोहल्लो में सभी तरह की मिठाइयाँ और पकवान हलवाई की दुकान पर सजे हुए मिल जाते है। किसी ज़माने में सेवईंयों समेत गिनी चुनी मिठाई नज़र आती थी वहीँ आज तरह तरह की रंग बिरंगी आकर्षक मिठाइयां तो बहुत दिखाई देती लेकिन उन मिठाइयों से मिठास ख़त्म होती जा रही है। ठीक उसी प्रकार जैसे ज़िंदगी में से रिश्तो की मिठास कम होती जा रही है।
80-90 के दशक की ईद उल फ़ित्र की मिठास आज भी ज़हन में ताज़ा है जब दूर के रिश्तेदार भी करीब थे आज तो करीब के रिश्तेदार भी बहुत दूर हो गए है। न सिर्फ शहर के बढ़ते दायरे में दूर दूर बसे हुए है बल्कि दिल के दायरे से बाहर निकल चुके है।
बात उन दिनों की है जब सिर्फ 30 रोज़ो की ख़ुशी को सेलिब्रेट करना ही ईद उल फ़ित्र नहीं था, उन दिनों रिश्तेदारों का एक दूसरे के घर जाकर मिलना, बहन बेटियों और बच्चो को ईदी देना, भले ही लोगो के घर छोटे थे लेकिन घर का दायरा बहुत बड़ा था। आज घर के नाम बहुत बहुत बड़े बड़े भवन है लेकिन दायरा बहुत छोटा है। इतना छोटा की एक परिवार के लिए भी छोटा पड़ता है। कभी तीन से चार भाई बहनो के लिए एक अलग कमरा भी बड़ी उपलब्धि थी। एक ही कमरे में सभी भाई बहने साथ रहते थे तो एक दूसरे से बंधे हुए थे अब सभी अलग अलग कमरों में रहते है तो सभी आज़ाद है कोई किसी से बंधा हुआ नहीं है।
खैर बात करते है ईद उल फ़ित्र की उन दिनों कुछ सिक्को के रूप में मिली हुई ईदी जब जेब में होती थी तो अपने आप को किसी धन्नासेठ से कम नहीं समझते थे। आज भी बहन बेटियों और बच्चो को ईदी मिलती है और पहले से कहीं ज़्यादा मिलती है लेकिन वह ईदी अपने अब्बा, चाचा या मामा के मोहब्बत भरे हाथो की बजाय गूगल पे और ऑनलाइन मिलती है। रिश्तेदार तो दूर आजकल तो भाई बहन भी ईद के दिन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर वर्च्युअली गले मिल लिया करते है।
ज़्यादा पुरानी बात नहीं है यहीं कोई 30 बरस पहले ईद उल फ़ित्र की तैयारी बीच रमजान में ही शुरू हो जाया करती थी। नए कपडे, नए जूते से लेकर बेल्ट और मौज़े की खरीदारी भी ईद के बहाने होती थी। ईद के दिन नए कपडे पहन किसी सल्तनत के शहंशाह वाली फीलिंग आती थी। आज तो साल में जब चाहे नए कपडे खरीद कर शौक पूरे कर लेते है लेकिन वह फीलिंग कहीं खो गई है।
अपने शहर उदयपुर के मुस्लिम और बोहरा बहुल मोहल्लो में ईद की चहल पहल ईद के दो दिन पहले शुरू होकर ईद के पूरे सप्ताह तक रहती थी। सप्ताह भर तक यार दोस्तों और चचेरे ममेरे भाई बहनो के साथ मनोरंजन का एक मेला सा लगता था। लेकिन अब, खासकर कोरोना काल के बाद तो ईद के दिन मोहल्लो में इंसान कम और सन्नाटा अधिक नज़र आता है। किसी के पास फुर्सत नहीं ईद के दिन दूर के रिश्तेदारों खासकर बुज़ुर्गो की मिजाज़पुर्सी करने की। भांजे, भतीजे, रिशेत्दारो और यार दोस्तों के बच्चे सामने दिख जाए तो ईदी थमा दी जाती है नहीं तो ऑनलाइन सुविधा है ही।
अब लोगो के पास फुरसत नहीं की एक दूसरे के घर जाकर ईद की बधाई दे और उनसे गले मिलकर गिले शिकवे दूर करे। पहले तो एक ही घर में खुद के चाचा और पड़ौस में अब्बा के भी चाचा मिल जाया करते थे अब तो खुद का भाई भी एक ही शहर के दुसरे किनारे पर होता है क्यूंकि शहर का दायरा बढ़ चूका है। इसलिए एक दुसरे के घर आने जाने में तकलीफ तो होती ही है। हालाँकि यह बात और है कि किसी को किसी रिश्तेदार की न तो आहट पसंद है न किसी का इंतज़ार। रिश्तेदार के आने से प्रिवेसी भी लीक होने का खतरा रहता है। चूँकि टेक्नोलॉजी अब विकसित हो चुकी है ईद की मुबारकबाद भी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर दे दी जाती है।
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