आज बचपन के दौर में जाकर देखते हैं, जहां पिचकारी की फुहार थी, रंग और पानी का हुड़दंग था, कोई मतभेद ना था, आपसी भाईचारा था, पलाश की तरह सब प्रफुल्लित थे।
फाल्गुन आते ही ये प्रकृति रंगों से भर जाती है, पलाश जिसे हम जंगल की ज्वाला भी कहते हैं वो हर किसी में उमंग भर देते हैं, वही उमंग जो इंद्रधनुष को देख कर होती है, वही उमंग जो फूलों को खिलते हुए देख कर होती है है, वही उमंग जो पहली बारिश पर मिट्टी की सुगंध से होती है।
भारत भूमि के त्यौहारों को हम भारतवासी ही नहीं, देश-विदेश के लोग भी मनाने में रुचि रखते हैं। हमारे त्यौहारों में एक बात कही जाती है कि अभी उत्सव का समय है, किसी को भी अकेला नहीं छोड़ो, सबको बुलाओ, सबसे मिलो, खूब खुश हो और खुशियां बांटो और सबको अपना बना लो।
होली, सिर्फ गुजिया, मठरी या फागुनी देवता तक सीमित नहीं है, ये तो एक ऐसा आरंभ है जहां मेत्री भाव सिखाता है कि किस तरह हम एक दूसरे पर निर्भर हैं।
पलाश की पंखुडियों पर सज संवर कर आती है होली और सभी को अपने रंग में रंग देती है। होली उत्सव अपने आप में बहुत सी मान्यताओ से जुड़ा हुआ है, किसी के लिए ये बसंत ऋतु के महकते हुए फूलों की खुशी है तो किसी के लिए राधा-श्याम के प्रेम का प्रतीक, किसी के लिए ये पार्वती के अटल निश्चय को दर्शाता है जहां वह शिव को पति रूप में चाहिए थी तो किसी के लिए ये हरे भरे खेत में फसल पकने का इंतजार और अपने इष्ट को अन्न अर्पण करने की भावना, कहीं बुराई पर अच्छाई की जीत जिसमें होलिका दहन हुई थी।
होली के रंगो में डूब जाना आज का नहीं, बल्कि पौराणिक समय से चलता आ रहा है, ये रंग प्यार का है, सद्भावना का और जिज्ञासा का है।
आज के कॉर्पोरेट युग में हम सब तकनीक के गुलाम हो गए हैं, ये त्यौहार ही है जो हमें एक दूसरे से संपर्क बनाने की याद दिलाते और मीठा संवाद करवाते हैं। फागुन आते ही होली की शुरुआत हो जाती है, लेकिन आज कल ये स्वरूप थोड़ा बदल गया है, जब भी हम इस माहौल में जाते हैं तो ये हमें याद दिलाता है हमारी संस्कृति कितनी खूबसूरत है जिसमें सदैव एक दूसरे से परस्पर प्रेम की भावना है।
हम कितना भी आधुनिक हो जाएं, दुनिया की दौड़ में भाग लें लेकिन एक मोड़ ऐसा आता ही है जो हमें अपनों से जुड़ने और थोड़ा रुकने की याद दिला ही देता है। आओ इस होली पलाश की पंखुड़ियों की तरह महके और अपनों को महकायें।
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