लेखिका: हर्षाली नीलकंठ झलके, जयपुर, राजस्थान
जयपुर के बाबा रामदेव नगर स्लम बस्ती की रहने वाली शारदा की 12 वर्षीय बेटी पूजा (बदला हुआ नाम) अपने तीन साल के छोटे भाई को गोद में खिला रही थी। वहीं पास में शारदा खाना बना रही थी और पूजा से कभी पानी लाने और कभी अन्य सामान लाने को कह रही थी। जिसे वह दौड़ दौड़ कर पूरा भी कर रही थी। हालांकि शारदा उसके बगल में खेल रहे 8 वर्षीय अपने बेटे से खेल छोड़कर सामान लाने को नहीं कहती है। तभी घर के सामने से पूजा की दोस्त स्कूल से लौट रही होती है और पूजा उससे रूककर उत्साह के साथ स्कूल में पढ़ाई के बारे में बात करने लगती है। उसकी बातों से ऐसा लग रहा था कि उसे पढ़ने का बहुत शौक है। उसकी दोस्त स्कूल नहीं आने का जब उससे कारण पूछती है तो इससे पहले ही उसकी मां शारदा जवाब देती है कि 'यह स्कूल चली गई तो हमारे पीछे बच्चों का ध्यान कौन रखेगा?' मां का जवाब और पूजा का मायूस चेहरा बता रहा था कि शिक्षा के प्रति उसे अपने सपने टूटते नज़र आ रहे हैं।
35 वर्षीय शारदा और उसके पति दैनिक मज़दूर हैं और राजस्थान की राजधानी जयपुर शहर से करीब 10 किमी दूर बाबा रामदेव नगर स्लम बस्ती में रहते हैं। न्यू आतिश मार्केट मेट्रो स्टेशन से 500 मीटर की दूरी पर स्थित इस बस्ती की आबादी लगभग 500 से अधिक है। यहां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े समुदायों की बहुलता है। जिसमें लोहार, जोगी, कालबेलिया, मिरासी, रद्दी का काम करने वाले, फ़कीर, ढोल बजाने और दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों की संख्या अधिक है। यहां आबाद सभी परिवार बेहतर रोज़गार की तलाश में राजस्थान के दूर दराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवास करके आया है। कुछ परिवार स्थाई रूप से यहां आबाद हो गया है तो कुछ मौसम के अनुरूप पलायन करता है। पलायन की इस प्रक्रिया में सबसे अधिक नुकसान बच्चों विशेषकर लड़कियों की शिक्षा पर होता है। घर की आर्थिक स्थिति का नकारात्मक प्रभाव लड़कों की तुलना में लड़कियों के भविष्य पर पड़ता है। इससे न केवल उनकी शिक्षा बल्कि शारीरिक और मानसिक विकास भी रुक जाता है। जब माता-पिता दोनों मज़दूरी पर निकल जाते हैं तो घर की ज़िम्मेदारी लड़की के कंधों पर डाल दी जाती है। उसे अपने छोटे भाई बहनों की देखभाल के साथ साथ घर में पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था करने और खाना बनाने का काम सौंप दिया जाता है। इस तरह उसकी शिक्षा बहुत पीछे छूट जाती है।
इस बस्ती में रहने वाली पूजा की तरह एक अन्य किशोरी 14 वर्षीय आशा (नाम परिवर्तित) कहती है कि वह चार भाई बहनों में सबसे बड़ी है। उसके माता-पिता रद्दी खरीदने और बेचने के रोज़ सुबह घर से जल्दी निकल जाते हैं। उनके पीछे वह सभी भाई-बहनों का न केवल ख्याल रखती है बल्कि खाना बनाने से लेकर घर के अन्य सभी कामों को भी निपटाती है। इतना ही नहीं, जब कभी किसी कारण से मां काम पर नहीं जाती है तो उस दिन आशा को जाना होता है। वह प्रतिदिन घर या बाहर कहीं न कहीं कामों में व्यस्त रहती है। ऐसे में उसे स्कूल जाने का अवसर ही नहीं मिलता है। आशा कहती है कि पांचवीं के बाद उसे स्कूल जाने का मौका ही नहीं मिला। हालांकि उसे पढ़ने का बहुत शौक है। वह कहती है कि जब भी उसे अवसर मिलता है वह छोटे बहन भाइयों की स्कूली किताबें पढ़ने बैठ जाती है। वह बताती है कि छठी या सातवीं के बाद इस बस्ती की लगभग किशोरियों की शिक्षा रुक जाती है। वह पढ़ाई छोड़कर माता-पिता की अनुपस्थिति में घर की ज़िम्मेदारी संभालने लगती है। इस संबंध में बस्ती की एक बुज़ुर्ग महिला कांति कहती हैं कि 'यदि लड़की पढ़ने स्कूल चली जाएगी तो घर की देखभाल कौन करेगा? छोटे छोटे बहन-भाई को कौन संभालेगा?' हालांकि उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि अगर घर में लड़का बड़ा है तो उसे भी लड़कियों की तरह घर में रहकर छोटे बहन-भाइयों की देखभाल क्यों नहीं करनी चाहिए?
पिछले आठ वर्षों से बाबा रामदेव नगर बस्ती में स्वास्थ्य और विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम कर रहे समाजसेवी अखिलेश मिश्रा कहते हैं कि "बाबा रामदेव नगर जैसे शहरी क्षेत्रों में आबाद स्लम बस्तियों में लड़कियों को पढ़ाने के प्रति अभी भी जागरूकता का अभाव है। इसके पीछे कई सामाजिक और आर्थिक कारण हैं। एक ओर जहां लोगों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर है तो वहीं दूसरी ओर शिक्षा के महत्व से जुड़े उनमें अभी भी सामाजिक चेतना जागृत नहीं हुई है। उनके लिए शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण आय का साधन विकसित करना होता है। इसके लिए कई बार अभिभावक अपने साथ काम पर अपने बच्चों को भी ले जाते हैं और परोक्ष रूप से उन्हें बाल मज़दूरी में धकेल देते हैं। इन सब में सबसे पहला नकारात्मक प्रभाव लड़कियों की शिक्षा पर देखने को मिलता है। यदि माता पिता उन्हें काम पर नहीं ले जाते हैं तो उन्हें घर के कामकाज और अन्य ज़िम्मेदारियों में लगा दिया जाता है। अखिलेश कहते हैं कि किशोरी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार की ओर से कई कार्यक्रम और योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिसका लाभ उठाकर किशोरियां शिक्षा के मैदान में अपनी पहचान बना सकती हैं। लेकिन बाबा रामदेव नगर स्लम बस्ती की किशोरियों की स्कूल से दूरी उन्हें इन योजनाओं का फायदा उठाने से वंचित कर रही है।
इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की नामांकन दर में पर्याप्त सुधार हुआ है। लेकिन अभी भी बड़ी संख्या में किशोरियां स्कूल से बाहर हैं। साल 2021-22 में जहां देश में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर 1।35% है, वहीं माध्यमिक स्तर पर यह बढ़कर 12।25% हो गई है। दरअसल, केवल योजनाओं के क्रियान्वयन से नहीं बल्कि धरातल पर जागरूकता फैलाने की भी ज़रूरत है। सामाजिक स्तर पर बालिका शिक्षा के प्रति जागरूकता की आवश्यकता है ताकि समाज लड़कों की तरह लड़कियों की शिक्षा के महत्व को भी समझ सके। यह एक हकीकत है कि हमारे देश में किशोरियों को शिक्षा प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा का सामना करना पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा देश के शहरी गरीबी इलाकों में भी किशोरियों को शिक्षा के लिए कई संघर्षों से गुज़रना होता है। हालांकि शिक्षा, हर रुकावट को दूर करने का सबसे सशक्त माध्यम है। लेकिन विभिन्न कारणों के आधार पर उन्हें पढ़ने और सशक्त बनने से रोका जाता है। भले ही शहरी क्षेत्रों में अब किशोरियों के लिए शिक्षा प्राप्त करने में रुकावटें हटने लगी हैं, लेकिन बाबा रामदेव नगर जैसे स्लम एरिया में आबाद कॉलोनियों में रहने वाली बालिकाओं को आज भी शिक्षा प्राप्त करने के लिए संघर्ष करनी पड़ रही है।(चरखा फीचर)
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