प्रधान मंत्री जी एवं शिक्षा विभाग के नाम खुला पत्र
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शिक्षा प्रणाली है या बोझ प्रणाली
-Read on to see where education has reached and where it is taking the children of today.
-The negative effects of the load of education need to be thought about deeply and URGENTLY
-Comment and let us know your views
-ये हमारी मुहीम है बच्चों को राहत देने की, उनका मानसिक स्वास्थ्य सुधारने की
इधर उधर की बातों पर ना जाते हुए मैं सीधे मुद्दे की बात पर आती हूँ । हमारा देश तरक्की की राह पर है और हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे भी तरक्की की राह पर अग्रसर हों । मगर क्या तरक्की की राह के लिए सिर्फ किताबी ज्ञान और स्कूली शिक्षा का बढ़ता बोझ ही आवश्यक है ?
हम सभी उम्र के ऐसे पड़ाव पर हैं जहां हम ज़िंदगी के कड़वे-मीठे अनुभव ले कर पहुंचे हैं । हम सभी पूर्ण रूप से संतुष्ट ना सही मगर शान्ति के कुछ पल हासिल कर लेते हैं । यह अत्यंत दुःख की बात है कि हमारे बच्चे खास तौर पर स्कूली बच्चे शान्ति को एक इंसान के नाम के अलावा नहीं जानते । घर में जब बच्चे कोई घरेलू काम पर ध्यान नहीं देते हैं तो उन्हें डांट-डपट दिया जाता है और घर के कामों में हाथ बंटाने की सलाह दी जाती है । सवाल यह है कि क्या आजकल के बच्चों के पास घर के कामों के लिए समय है ? जवाब है “नहीं” ।
आजकल स्कूली शिक्षा का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया है । अनावश्यक भार हो चुका है बच्चों के दिमाग पर । ऐसे में बच्चे पढ़ाई करें या कोई और कार्य करें, खेलें या परिवार के साथ समय बिताएं ? कैसे मुमकिन है कि बच्चा शांत दिमाग से बैठे और घर के सदस्यों से बातें करे । पढ़ाई का बोझ बच्चों को गुमसुम कर रहा है । ये नई शिक्षा प्रणाली किसने बनाई है ? क्या वे भूल गए कि शिक्षा आजकल बोझ की तरह हो गई है ? आज शिक्षा विभाग के उच्च पदों पर बैठे लोग शायाद भूल गये हैं कि वे बच्चों के हिसाब से कोर्स तय कर रहे हैं ना कि बड़ों के हिसाब से ।
हाल यह है कि 25 नंबर के एग्जाम के लिए बच्चों को लगभग 150 प्रश्न याद करने होते हैं और फाइनल एग्जाम आते आते यह संख्या 1000 पार कर जाती है । क्या यह संभव है कि बच्चे इतने प्रश्नों के उत्तर याद रख पाएंगे ? और जब नंबर कम आते हैं तो माता पिता और स्कूल वाले सभी बच्चों के सामने उम्मीदों के पहाड़ खड़े कर देते हैं । नतीजा यही होता है कि बच्चे अवसाद के शिकार होते हैं, कुछ गलत कदम उठाते हैं और कुछ लापरवाह होकर समाज के बुरे तत्वों में परिवर्तित होते हैं ।
युवाओं और स्कूली बच्चों में बढ़ती नशाखोरी और अवसाद का एक बड़ा कारण भी बन चुकी है शिक्षा प्रणाली। आज के प्रतिस्पर्द्धी युग में यहाँ हर कोई एक दूसरे को काटकर आगे बढ़ना चाहता है। हाल ही में हमारे शहर में हुक्का बार में छापा मारा गया था जहाँ बड़ी संख्या में स्कूली बच्चे नशे में पाए गए थे। वहीँ एक दो घटनाओ में ऑनलाइन फ्रॉड करने वाले गिरोह में भी उच्च शिक्षित युवाओं का पकड़ा जाना एक खतरनाक संकेत है।
राजस्थान का कोटा शहर कोचिंग क्लासेस के लिए हब बन चुका है। प्रतिवर्ष कोटा से लगातार टीनएजर्स की आत्महत्या की खबरें आपको अख़बार के पन्नों में मिल जाएगी। अभिभावकों का दबाव या प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने का डर हमारी आने वाली पीढ़ी को लील रहा है।
क्या शिक्षा विभाग इस विषय में सही कदम नहीं उठा सकता ? क्या सिर्फ किताबी ज्ञान ही ज़रूरी है देश को आगे बढ़ाने के लिए ? क्या आप सिर्फ किताबी ज्ञान के आधार पर आज इस ऊंचे पद पर पहुंचे हैं ? क्या ज़िंदगी के अन्य अनुभव अब कोई मायने नहीं रखते ?
बच्चे ज़रा से बड़े क्या हुए, स्कूलों में टीचर कॉपी चेक नहीं करते, सिर्फ राईट का निशान लगाते हैं चाहे कॉपी में आंसर गलत ही क्यों ना लिखे हों, लिहाज़ा एग्जाम में गलत आंसर के चलते नंबर नहीं मिलते । अब यह तो संभव नहीं है कि माता पिता एक एक आंसर कॉपी एग्जाम की कॉपी से मिलाकर शिक्षक के सामने सवाल खड़े करें । अगर बच्चे सारे आंसर सही लिख सकते हैं तो फिर शिक्षक की क्या ज़रूरत है , स्कूल की भी क्या ज़रूरत है ? क्यों हम इतनी महंगी शिक्षा संस्थानों में पैसा लगाते हैं अगर स्कूल के बाद भी बच्चों को अलग से पढ़ने (ट्यूशन) भेजना पड़े । आजकल शिक्षक गाइड में से बच्चों को ढेर सारे प्रश्न लिखा देते हैं , पाठ नहीं के बराबर समझाया जाता है । यदि गाइड में से ही पढ़ाना है तो बच्चे किताबें भी क्यों खरीदें ? इतनी महंगी किताबें खरीदने का क्या मतलब ?
इंग्लिश और हिंदी में लैंग्वेज और लिटरेचर के पेपर एक साथ रहते हैं , जबकि ये अलग अलग होने चाहिए । सोशल स्टडीज़ में चार विषयों को मिला दिया गया है जो कि अनुचित है । ये विषय अलग अलग होने चाहिए क्योंकि सबकी अलग महत्ता है तथा इस पर भी गहन विचार करना आवश्यक है ।
क्या ये ज़रूरी है कि बच्चा आठवीं कक्षा के बाद भी सभी विषयों को दसवीं कक्षा तक पढ़े ? क्या आठवीं तक आते आते बच्चे की रूचि पता नहीं चलती ? जैसे कि आज से कई साल पहले हम लोग नवमी में ही विषय चुन लेते थे और अपनी रूचि के हिसाब से तसल्ली से पढ़ाई करते थे ?
कहाँ जा रहे हैं हम ? हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे परिवार के महत्व् को समझें, रिश्तों के महत्व् को समझें, मगर अब पढ़ाई से समय ही नहीं बचता । ज़िंदगी के अनुभव कैसे लेंगे यदि बड़े होते होते अवसाद ग्रस्त होने लगेंगे ?
मैंने एक स्कूल के टीचर से इस विषय में बात करी तो उन्होंने मुझे कहा की अच्छे नम्बर लाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि कम्पीटीशन का ज़माना है । जब मैंने उनसे पूछा कि बच्चों के बचपन का क्या, उनकी सेहत का क्या, तब क्या होगा जब आज से दस साल के बाद सभी बीमार मिलेंगे तो उनेक पास कोई जवाब नहीं था ।
क्या एक टीचर सभी सब्जेक्ट पढ़ा सकता है ? क्या एक टीचर सभी आंसर याद रख सकता है ? जब इन सवालों का जवाब तय है “नहीं” में, तो एक बच्चे पर ज़रुरत से ज्यादा पढ़ाई का बोझ क्यों डाला जा रहा है? हम किससे कम्पीटीशन कर रहे हैं ? अपने बच्चों को अधमरा करके हम क्या साबित करना चाह रहे हैं ? आजकल बच्चों के अधिक नंबर माता पिता और शिक्षकों के लिए स्टेटस का विषय और समाज में इज्ज़त का विषय बन गए हैं । जब बच्चे मानसिक रूप से बीमार होने लगेंगे तब सारी इज्ज़त कहाँ जायेगी ?
एक तरफ बच्चों को मोबाइल से दूर रखने की बात हो रही हैं क्योंकि मोबाइल से बच्चों की आँखें ख़राब होती हैं, सरदर्द जैसी समस्याएं बढ़ गयी हैं, बच्चे मोटे होते जा रहे हैं, कमर में दर्द रहता है क्योंकि वे मोबाइल से चिपके रहते हैं....वहीं दूसरी तरफ पढ़ाई के लिए बच्चों और अभिभावकों को मजबूर करते हैं ऑनलाइन स्टडी एप्लीकेशन्स । ऑनलाइन एप्लीकेशन्स वाले विभिन्न एग्जाम कंडक्ट करके अभिभावकों के फोन नम्बर हासिल करके फोन कर कर के परेशान कर देते हैं । यदि माता पिता ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मना करते हैं तो बच्चों को दोस्तों के बीच में हंसी का पात्र भी बनना पड़ता है । हम मोबाइल को लेकर अपने ही तर्कों को झुठला रहे हैं । क्या अब बच्चों की आँखें ख़राब नहीं होंगी ? क्या बच्चे और शिक्षक के बीच की कड़ी जो कि साक्षात् रूप में आवश्यक है, उसे मोबाइल द्वारा हमेशा के लिए धीरे धीरे ख़त्म कर देने का विचार है ? बच्चों को आजकल कई सवालों के जवाब इन्टरनेट से ढूँढने पड़ते हैं, टीचर गाइड्स में से पढ़ाते हैं और बच्चे पाठ समझ नहीं पाते हैं । क्या यही पढ़ाई का उचित तरीका है ?
इसके अलावा मुद्दा यह भी है कि गर्मी की छुट्टियाँ जो किसी वक़्त में 2 महीने की हुआ करती थीं अब मुश्किल से एक महीने की मिलती हैं । कोई ये बताएगा कि बच्चे के सम्पूर्ण विकास के लिए सिर्फ एक महीने की छुट्टियाँ क्या काफी हैं ? बच्चों को लम्बे समय की पढ़ाई के बाद अपने रूचि के कार्यों यानी हॉबी के विकास के लिए भी तो समय की ज़रूरत है । साथ ही साथ छुट्टियाँ वह वक़्त होती हैं जब बच्चे अपने रिश्तेदारों के घर जाकर सबको जानते हैं और सबके साथ एडजस्ट करना भी सीखते हैं । मगर जब से अप्रैल सेशन शुरू हुआ है जो कि मई के मध्य तक चलता है और एक महीने की छुट्टी देकर स्कूल फिर से जून के मध्य तक खोल दिए जाते हैं ... इस अल्प समय में बच्चों को परिवारों की महत्ता किस प्रकार सिखाई जाए? आपसी रिश्ते बनाने और सुधारने के लिए जो पहल आपने चलाई क्या उसके विषय में बच्चों को दिमाग में रखकर सही ढंग से सोचना नहीं चाहिए ? विदेशों की संस्कृति के बारे में हम बात करते हुए कहते हैं कि वहां परिवारों का महत्व नहीं है किन्तु अब हमारे देश में भी बच्चे कुछ नहीं समझ पाते ।
मैं मौजूदा शिक्षा प्रणाली का सख्त विद्रोह करती हूँ । हमने अपने बच्चों को मशीन में परिवर्तित होने के लिए इस दुनिया में मानव रूप में जन्म नहीं दिया, जिस दिन ये मशीनी रूप बन गए तो ये पूर्णतः संभव है कि एक दिन मशीन ख़राब होगी ही और उसे इस रूप में ठीक करना संभव नहीं होगा । शिक्षा में तुरंत प्रभाव से बदलाव करने होंगे अन्यथा हम अपना बहुत कुछ खो देंगे । आज परिवर्तन के लिए यदि एक साल भी लगे या दो साल, तो भी तुरंत प्रभाव से परिवर्तन का कदम उठाना होगा । आपसे निवेदन है कि इंसान को इंसान ही रहने दें, उसे पहले मशीन और फिर उसके बाद बेकार होने से बचाएँ । शिक्षा ज़रूरी है मगर बहुत भारी बोझ बन गई है आज के दौर में । जो बच्चे दिन का अधिकाँश समय सबसे आगे निकलने में लगा रहे हैं, संभव है कि आने वाले कल में वे अनेकों बिमारियों से ग्रसित हों और हो भी रहे हैं एवं ज़िंदगी की दौड़ में पिछड़ जाएँ । आये दिन डॉक्टर के पास जाना पड़ता है, खाना हजम नहीं होता । क्या ऐसा ही देश चाहते हैं हम ? आप समझ गए हैं कि मेरा आशय क्या है, अतः निवेदन है कि बच्चों को बच्चा ही रहने दें, कम से कम आने वाले छोटे बच्चों से उनका बचपन ना छीनें और मौजूदा बच्चों को राहत देने की कृपा करें ।
यदि शिक्षा का यही ढर्रा चलता रहा तो मैंने ठान लिया है कि मैं अपने बच्चे को स्कूली शिक्षा से अलग कर उसे नई ज़िंदगी जीने के लिए अलग कदम उठाऊंगी और अपने साथ बहुत से पीड़ितों को जोड़ कर विद्रोह कर दूंगी । आने वाला कल हमारे बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से बिगाड़ न दे, अतः फिर से करबद्ध निवेदन है कि अब जल्द से जल्द कोई ठोस और उचित कदम उठाया जाए । मैं अपने सामने इन मासूम बच्चों को तड़पते हुए नहीं देख सकती । देश को बचाना है तो पहले अपने बच्चों को बचाएँ ।
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