MPUAT - विश्व मधुमक्खी दिवस पर वेबिनार

MPUAT - विश्व मधुमक्खी दिवस पर वेबिनार 

भारत में सबसे ज्यादा शहद सरसों का होता है

 
honey bee

केवल फसल ही नहीं जंगली पौधों तथा जैव विविधता बढ़ाने मधुमक्ख्यिों का बहुत महत्व है

अनुसंधान निदेशालय, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के तहत संचालित जैविक खेती पर राष्ट्रीय कृषि विकास परियोजना के तहत 20 मई, 2021 को विश्व मधुमक्खी दिवस का आयोजन किया गया। 

इस अवसर पर डाॅ. नरेन्द्र सिंह राठौड़, कुलपति, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्यागिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर ने बताया कि बिना मधुमक्खी के कृषि पंगु हो जायेगी। आज संसार मधुमक्खी पालन की अच्छी कृषि प्रक्रियाओं की आवश्यकता है। मधुमक्खियों से शहद एवं परागण के अलावा मेडिसिन महत्व के उत्पादों पर वैज्ञानिक अनुसंधान की आवश्यकता है। लगभग 70 प्रतिशत फसलों में मधुमक्खी द्वारा लाये गये परागणों से ही फल एवं बीज बनते हैं। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि मधुमक्खियों की संख्या की कमी के कारण लगभग 8 से 10 हजार रूपये प्रति हैक्टेयर नुकसान हो सकता है। उन्होने मधुमक्खियों को स्थानीय स्तर पर संरक्षण एवं पालन करने पर जोर दिया इसके लिए पेस्टीसाइड को संतुलित एवं कम उपयोग पर ध्यान देना आवश्यक है।

केवल फसल ही नहीं जंगली पौधों तथा जैव विविधता बढ़ाने मधुमक्ख्यिों का बहुत महत्व है। कोविड-19 के कारण शहत की मांग बढ़ी है, इस मांग की पूर्ति करने हेतु कियानों एवं नवयुवकों को अच्छे मधमक्खी पालक बनना आवश्यक है इससे पर्यावरण को फायदे के साथ-साथ आर्थिक फायदे एवं रोजगार के अवसर प्राप्त होंगें। उन्होने मधुमक्खी पालन की योग्यता के अलावा ज्ञान, कौशल एवं अनुभव के महत्वपूर्ण कारकों पर प्रकाश डाला।

डाॅ. एस.के. शर्मा, अनुसंधान निदेशक ने स्वागत उद्बोधन के दौरान बताया कि वर्ष 2021 में विश्व मधुमक्खी दिवस मनाने का मुख्य उद्देश्य है कि मधुमक्ख्यिों को संभाल कर रखना तथा स्वास्थ्य एवं संभाल के लिए कार्य करना तथा प्रोत्साहन देना है। वर्ष 2018 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पहल विश्व मधुमक्खी दिवस मनाया गया। 

डाॅ. शर्मा ने बताया कि जैविक खेती के सिद्धान्त किसानों अपनाना चाहिए इससे जैवविविधता बढ़ती है तथा मधुमक्खियों को वर्ष भर भोजन मिलता है। और इनका निवास स्थान सुरक्षित रहता है। हर एक व्यक्ति घर में, गार्डन में, घर के बाहर ऐसे पौधे लगाये जिससे मधुमक्खी एवं अन्य परागकीट ज्यादा से ज्यादा आकर्षित हों। हमें लाभ के साथ मधुमक्खी पालन के खतरों पर भी ध्यान देना चाहिए तथा किसी भी प्राकर अवैध क्रियाओं को अपनाने से बचें।

डाॅ. वासुकी वी. वलावाड़ी, आई.सी.ए.आर. इमेरिट्स वैज्ञानिक, कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, बैंगलोर (यु.ए.एस.) ने ‘‘मधुमक्खियों का पोषण सुरक्षा में महत्व एवं कार्य’’ पर बोलते हुए बताया कि विश्व में लगभग 2.95 लाख फूल वाले पौधे हैं और इनमें से 87.5 प्रतिशत पौधों का परागकीटों द्वारा परागण होता है तथा पौधे अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं। विश्व में लगभग बीस हजार मक्ख्यिों की प्रजातियाँ हैं लेकिन केवल सात प्रजातियाँ ही मुख्य रूप से शहद बनाती है। वर्ष 2020-21 में भारत का खाद्यान्न उत्पादन 303 मिलियन टन है फिर भी भारत का विश्व भूख सूचकांक में 94 वाँ स्थान है और यही चिंता का विषय है। उन्होनें बताया कि जिन फसलों में पराग कीटों से परागण होता है उन फसलों की उत्पादकता में 1980 के दशक से उपज में कोई सार्थक वृद्धि नहीं हुई है। उन्होने अरहर तथा खरबूजा का उदाहरण देते हुए बताया कि अरहर में प्रोटिन की प्रचुर मात्रा है लेेकिन इसकी उत्पादकता 10 क्वि./है से नहीं बढ़ पा रही है, जबकि इसकी उत्पादन क्षमता 20 क्वि./है है। इस फसल में परागकीटों के उपयोग से 30 प्रतिशत से अधिक उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है।

उन्होंने बताया कि फसलों के फूलों का विज्ञान समझकर मधुमक्खियों का अधिक लाभदायक उपयोग किया जा सकता है। उन्होने बताया कि मधुमक्खी की एपिल सेरेना तथा एपिस फलोरीया प्रजाति फसलों में परागण के लिए महत्वपूर्ण है। जिन फूलों से नर एवं मादा भाग निकाल लिए जाते हैं उन पर मधुमक्खी कम समय के लिए बैठती है।

परागकीटों के संरक्षण के लिए उन्होंने बताया कि परागण निर्भरता सूचकांक जिनका 0.50 से ज्यादा है उन फसलों के लिए मधुमक्खियों का संरक्षण अति आवश्यक है।

उन्होंने बताया कि अगर अरहर में परागकीट नहीं हो तो लगभग 6000 करोड़ का तथा खरबूजा में लगभग 2900 करोड़ रूपये का नुकसान होगा। अतः परागकीटों की परागण सेवा की आर्थिक आंकड़ों की महत्ता को देखते हुए इनका संरक्षण अति आवश्यक है। 

आम नागरिक एवं अलवर जिले के प्रगतिशील मधुमक्खी पालक मनमोन बहल ने स्टेशनशरी मधुमक्खी पालन से परागण, शहद, मोम, प्रोपेलिस तथा मधुमक्खी का जहर का मधुमक्खी बिजनेस करने के बारे में बताया। उन्होंने इटालियन मधुमक्खी को बक्सों में अलग-अलग जगह ले जाकर 30 किलो प्रति बक्सा शहद निकाल सकते हैं। उन्होंने बताया कि किसान 50 बाॅक्स रखकर फसलों के साथ-साथ मधुमक्खी पालन से अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकते है। लेकिन यह कार्य मेन्टर की देख-रेख में करें। इससे 15 से 25 प्रतिशत उपज में भी वृद्धि होती है। एक मधुमक्खी बक्से का बजन 30 से 40 किलो होता है और लगीाग 15 से 20 किलो शहद मिल जाता है। बाजरा, बेर, धनिया, सरसों आदि फसलों के लिए माग्रेटरी मधुमक्खी पालन कर विशेष खुशबु का शहद प्राप्त कर अच्छे मूल्य पर बेच सकते हैं। उन्होने जीवित मधुमक्खी रानी की सही खरद अच्दे उपकरण तथा मार्केटिंग के अच्छे सिद्धान्त अपनाने पर बल दिया। उन्होने मधुमक्खी पालन के लिए जुनुन की आवश्यकता बताई तथा कहा कि उत्तम गुणवत्ता का शहद आपकी पहचान होनी चाहिए। उन्होंने राजस्थान तथा हरियाणा से प्राप्त सरसों के शहद के निर्यात के लिए बढ़ती मांग के बारे में बताया। भारत में सबसे ज्यादा शहद सरसों का होता है। शुद्ध शहद जमता है अतः शहद के जमने को मिलावटी शहद ना माने। उन्हें हरी छोटी चिड़िया का मधुमक्खी में खतरे के बारे में बताया तथा इससे बचाने के अनुसंधान पर आवश्यकता बताई। अकोशिया एवं जामुन का शहद जल्दी नहीं जमता है।

डाॅ. मनोज महला, प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, कीट विज्ञान विभाग, राकृम, उदयपुर ने बताया कि मधुमक्खी पालन, युवाओं व्यवसाय के रूप में लेना चाहिए। उन्होने उदयपुर संभाग के छोटी जोत के किसास इस व्यवसाय को अच्छी तरह कर सकते हैं। उन्होंने सही शहद के लिए सही बाजार की आवश्यकता किसानों के लिए मुक्ष्य चुनौति बताई। उन्होंने प्राकृतिक शहद की जगह मिलावटी शहद बाजार में आने पर चिन्ता जताई। उन्होंने शहद के किसान उत्पादक समूह के निर्माण पर बल दिया।

मिस मेधा चैधरी, प्रगतिशील महिला मधुमक्खी पालक, बीकानेर ने बताया कि वैज्ञानिक प्रशिक्षण सफल मधुमक्खी पालन के लिए आवश्यक है। उन्होने काह कि मधुमक्खी पालन एक कला है जिसमें दर्द भी होता है। उन्होने मधुमक्खियों के माइग्रेशन को संभालना महिलाओं के लिए एक चुनौती है।

शैलेन्द्र पाटीदार, प्रतापगढ़, राजस्थान ने कहा कि जनजाति क्षैत्र में मधुमक्खी पालन करने से शहद, मोम तथा परागण से 30 प्रतिशत अधिक आय प्राप्त हुई। जनजाति किसानों को अधिक से अधिक मधुमक्खी पालन कर प्रकृति एवं स्वयं का कल्याण करने में सहयोग दें।

डाॅ. रोशन चैधरी, सहायक प्राध्यापक, मप्रकृप्रौविवि, उदयपुर ने कार्यक्रम का संचालन किया तथा धन्यवाद ज्ञापित किया। श्री पियूष चैधरी, विद्यावाच्सपति (एग्रोनामी) राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर ने कार्यक्रम का तकनिकी संचालन किया।
 

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