महिला होना कुछ खास होता है।
"लड़कियों की तरह दौड़ने" का मतलब "कुछ अजीब तरीके से" दौड़ना होता है। लेकिन जब एक पाँच साल की बच्ची से पूछा गया कि अगर तुमसे कहा जाए कि लड़कियों की तरह दौड़ कर दिखाओ तो तुम कैसे दौड़ोगी? तो उसका बहुत
अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो जिसका शीर्षक था, ” रन लाइक अ गर्ल” अर्थात एक लड़की की तरह दौड़ो, काफी सराहा गया जिसमें 16- 28 साल तक की लड़कियों या फिर इसी उम्र के लड़कों से जब “लड़कियों की तरह” दौड़ने के लिए कहा गया तो लड़के तो छोड़िए लड़कियाँ भी अपने हाथों और पैरों से अजीब अजीब तरह के ऐक्शन करते हुए दौड़ने लगीं। कुल मिलाकर यह बात सामने आई कि उनके अनुसार “लड़कियों की तरह दौड़ने” का मतलब “कुछ अजीब तरीके से” दौड़ना होता है। लेकिन जब एक पाँच साल की बच्ची से पूछा गया कि अगर तुमसे कहा जाए कि लड़कियों की तरह दौड़ कर दिखाओ तो तुम कैसे दौड़ोगी? तो उसका बहुत ही सुन्दर जवाब था, “अपनी पूरी ताकत और जोश के साथ”।
मतलब साफ़ है कि एक पांच साल की बच्ची के लिए “दौड़ने” और “लड़कियों जैसे दौड़ने” में कोई अंतर नहीं है लेकिन एक व्यस्क लड़के या लड़की के लिए दोनों में बहुत फर्क है। यहाँ गौर करने वाले दो विषय हैं पहला यह कि बात केवल महिलाओं के प्रति समाज के नजरिये की ही नहीं है बल्की खुद महिलाओं की स्वयं अपने प्रति उनके खुद के नजरिये की है दूसरा यह कि यह नजरिया एक बच्ची में नहीं दिखता ।
21 वीं सदी में, आज जब हम केवल भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक परिदृश्य पर वर्तमान की अपनी इस मानव सभ्यता को आंकते हैं तो निश्चित ही स्वयं को इतिहास में अब तक की सबसे विकसित सभ्यता होने का दर्जा देते हैं। लेकिन फिर भी जब इस तथाकथित विकसित सभ्यता में लैंगिक समानता की बात आती है तो परिस्थितियां केवल भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में बेहद निराशाजनक हैं। क्योंकि बात दरअसल यह है कि आज भी महिलाओं को उनकी “योग्यता” के आधार पर नहीं,बल्कि उन्हें एक “महिला होने” के आधार पर ही आंका जाता है।
आज भी देखा जाए तो विश्व में कहीं भी महत्वपूर्ण और उच्च पदों पर महिलाओं की नियुक्ती न के बराबर है। और यह स्थिति दुनिया के लगभग हर देश में ही है क्योंकि खुद को एक ईकवीटेबल सोसायटी कहने वाला विश्व का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका भी आज तक अपने लिए एक महिला राष्ट्रपति नहीं चुन पाया है।
लेकिन बात केवल इतनी भर हो, ऐसा भी नहीं है बल्कि बात यह भी है कि जिन पदों पर महिलाओं की नियुक्ति की जाती है वहाँ भी उन्हें उसी काम के लिए पुरुषों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है। यहाँ शायद यह जानना रोचक होगा कि यह बात हाल ही में विश्व में महिलाओं की वर्तमान सामाजिक स्थिति से सम्बन्धित एक रिपोर्ट में सामने आई कि ब्रिटेन जैसे विकसित देश में भी कई बड़ी बड़ी कम्पनियों में महिलाओं को उसी काम के लिए पुरुषों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है।
तो अब जब इन तथाकथित उदार और मोर्डन सोसाइटीस में महिलाओं की यह स्थिति है तो भारत में हमारे लिए एक समाज के रूप में यह समझ लेना भी आवश्यक है कि इन देशों की “उदार और मार्डन” सोच केवल महिलाओं के कपड़ों और खान पान तक ही सीमित है। बात जब उनके प्रति दृष्टिकोण और आचरण की आती है तो इन तथाकथित उदारवादी संस्कृति वाले देशों में भी जेन्डर इनइक्वेलिटी यानी लैंगिक असमानता व्याप्त है।
लेकिन इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि हमारे लिए यह एक संतोष का विषय न होकर एक गहन चिंतन का विषय होना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों है? और जब हम सोचेंगे तो पाएंगे कि दरअसल एक समाज के रूप में यह हमारी एक मानसिक स्थिति है जिसकी जड़ें काफ़ी गहरी हैं।
अब अगर इस सोच की जड़ों को खोजेंगे तो पाएंगे कि इस सोच के बीज अपने बच्चों में न सिर्फ हम खुद ही बोते हैं बल्कि उन्हें लगातार पोषित भी करते हैं। कैसे? वो ऐसे कि बचपन से ही जब ये बच्चे कुछ समझने लायक हो जाते हैं तो हम उन्हें कहानियाँ सुनाते हैं और जब पढ़ने लायक हो जाते हैं तो इन्हें पुस्तकें पढ़ने के लिए देते हैं, और आपको शायद यह जान कर अजीब लगे लेकिन इन कहानियों के द्वारा ही अनजाने में हम इस मानसिकता के बीज अपने बच्चों के ह्रदय में डाल देते हैं, जैसे कि एक सुंदर और नाजुक सी राजकुमारी को एक राक्षस ले जाता है जिसकी कैद से उसे एक ताकतवर राजकुमार आकर बचाता है, हमारे बच्चों के मन में इस प्रकार की कहानियाँ किस मानसिकता के बीज बोते होंगे?
शायद अब हम समझ पा रहे हैं एक पांच साल की बच्ची और एक व्यस्क लड़के या लड़की की सोच के उस अन्तर को जो कि हमारे ही द्वारा डाला जाता है और कालांतर में समाज में भी दिखाई देता है।
इसलिए एक सभ्य एवं विकसित समाज के रूप में हमारे लिए यह समझना बेहद आवश्यक है कि केवल समाज ही नहीं बल्की महिलाओं को भी स्वयं अपने प्रति नजरिया बदलने की जरूरत है। सबसे पहली और सबसे अहम बात कि महिला होने का अर्थ अबला होना नहीं होता और न ही कुछ स्टीरियोटाइप होना होता है बल्कि महिला होना “कुछ खास” होता है, जो आप हैं जैसी आप हैं वैसे ही होना होता है, अपना सर्वश्रेष्ठ देना होता है और अपने आत्मबल से अपने प्रति समाज की सोच बदल देना होता है। स्वयं के एक स्त्री होने का जश्न मनाना होता है ।
Views in the article are solely of the author
To join us on Facebook Click Here and Subscribe to UdaipurTimes Broadcast channels on GoogleNews | Telegram | Signal