गुरुनानक देवः ईश्वर के सच्चे प्रतिनिधि थेे
दीपावली के पन्द्रह दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा को जन्में गुरु नानक देव सर्वधर्म सद्भाव की प्रेरक मिसाल है। वे अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्म-सुधारक, समाज सुधारक, कवि, देशभक्त एवं विश्वबंधु - सभी गुणों को समेटे हैं। उनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण बचपन से ही दिखाई देने लगे थे। वे किशोरावस्था में ही सांसारिक विषयों के प्रति उदासीन हो गये थे।
भारत भूमि विभिन्न धर्म-संप्रदायों की भूमि रही है। इस उदार भूमि ने सभी धर्म के लोगों को अपनी उपासना-पद्धति और स्वतंत्र रूप से अनुष्ठान करने का अधिकार दिया है। शायद ही विश्व का कोई देश हो, जहां भारत जैसी धार्मिक विभिन्नताएं और उनका पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता हो। इसी भारत भूमि ने मानव जीवन का जो अंतिम लक्ष्य स्वीकार किया है, वह है परम सत्ता या संपूर्ण चेतन सत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित करना। यही वह सार्वभौम तत्व है, जो मानव समुदाय को ही नहीं, समस्त प्राणी जगत् को एकता के सूत्र में बांधे हुए हैं। इसी सूत्र को अपने अनुयायियों में प्रभावी ढंग से सम्प्रेषित करते हुए ‘सिख’ समुदाय के प्रथम धर्मगुरु नानक देव ने मानवता का पाठ पढ़ाया।
नानक देवजी का धर्म और अध्यात्म लौकिक तथा पारलौकिक सुख-समृद्धि के लिए श्रम, शक्ति एवं मनोयोग के सम्यक नियोजन की प्रेरणा देता है। आपका न केवल बाहरी व्यक्तित्व बल्कि आंतरिक व्यक्तित्व भी विलक्षण एवं अलौकिक है। वे इस देश के ऐसे क्रांतद्रष्टा धर्मगुरु हैं, जिन्होंने देश की नैतिक आत्मा को जागृत करने का भगीरथ प्रयत्न किया। सामाजिक कुरीतियों को बदलने के लिए किए गए उनके सत्प्रयत्न सदैव स्मरण किए जायेंगे। समाज के साथ उन्होंने राष्ट्र की भावात्मक एकता को सुदृढ़ करने के लिए अनेक उल्लेखनीय प्रयत्न किये। उन्होंने जड़ उपासना एवं अंध क्रियाकाण्ड तक सीमित मृतप्रायः धर्म को जीवित और जागृत करके धर्म के शुद्ध, मौलिक और वास्तविक स्वरूप को प्रकट करने में अपनी पूरी शक्ति लगाई। धर्म के बंद दरवाजों और खिड़कियों को खोलकर उसमें ताजगी और प्रकाश भरने का दुःसाध्य कार्य किया। आधुनिक धर्म के नए एवं क्रांतिकारी स्वरूप को प्रकट करने का श्रेय नानकदेवजी को जाता है।
दीपावली के पन्द्रह दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा को जन्में गुरु नानक देव सर्वधर्म सद्भाव की प्रेरक मिसाल है। वे अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्म-सुधारक, समाज सुधारक, कवि, देशभक्त एवं विश्वबंधु – सभी गुणों को समेटे हैं। उनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण बचपन से ही दिखाई देने लगे थे। वे किशोरावस्था में ही सांसारिक विषयों के प्रति उदासीन हो गये थे।
प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन नानक देव का जन्मोत्सव मनाया जाता हैं। इस वर्ष गुरु नानक जयंती 23 नवंबर को मनाई जा रही। गुरु नानक जयंती को सिख समुदाय बेहद हर्षोल्लास और श्रद्धा के साथ मनाता है। यह उनके लिए दीपावली जैसा ही पर्व होता है। इस दिन गुरुद्वारों में शबद-कीर्तन किए जाते हैं। जगह-जगह लंगरों का आयोजन होता है और गुरुवाणी का पाठ किया जाता है। उनके लिये यह दस सिक्ख गुरुओं के गुरु पर्वों या जयन्तियों में सर्वप्रथम है। नानक का जन्म 1469 में लाहौर के निकट तलवंडी में हुआ था। नानक जयन्ती पर अनेक उत्सव आयोजित होते है। त्यौहार के रूप में भव्य रूप में इसे मनाया जाता है, तीन दिन का अखण्ड पाठ, जिसमें सिक्खों की धर्म पुस्तक ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ का पूरा पाठ बिना रुके किया जाता है। मुख्य कार्यक्रम के दिन गुरु ग्रंथ साहिब को फूलों से सजाया जाता है और एक बेड़े (फ्लोट) पर रखकर जुलूस के रूप में पूरे गांव या नगर में घुमाया जाता है। शोभायात्रा में पांच सशस्त्र गार्डों, जो ‘पंज प्यारों’ का प्रतिनिधित्व करते हैं, अगुवाई करते हैं। निशान साहब, अथवा उनके तत्व को प्रस्तुत करने वाला सिक्ख ध्वज भी साथ में चलता है। पूरी शोभायात्रा के दौरान गुरुवाणी का पाठ किया जाता है, अवसर की विशेषता को दर्शाते हुए, धार्मिक भजन गाए जाते हैं।
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गुरुनानक देव एक महापुरुष व महान धर्म प्रवर्तक थे जिन्होंने विश्व से सांसारिक अज्ञानता को दूर कर आध्यात्मिक शक्ति को आत्मसात् करने हेतु प्रेरित किया। उनका कथन है- रैन गवाई सोई कै, दिवसु गवाया खाय। हीरे जैसा जन्मु है, कौड़ी बदले जाय। उनकी दृष्टि में ईश्वर सर्वव्यापी है और यह मनुष्य जीवन उसकी अनमोल देन है, इसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। उन्हें हम धर्मक्रांति के साथ-साथ समाजक्रांति का प्रेरक कह सकते हैं। उन्होंने एक तरह से सनातन धर्म को ही अपने भीतरी अनुभवों से एक नयेे रूप में व्याख्यायित किया। उनका जोर इस बात पर रहा कि एक छोटी-सी चीज भी व्यक्ति के रूपांतरण का माध्यम बन सकती है। वे किसी ज्ञी शास्त्र को नहीं जानते थे, उनके अनुसार जीवन ही सबसे बड़ा शास्त्र है। जीवन के अनुभव ही सच्चे शास्त्र है। शास्त्र पुराने पड़ जाते हैं, लेकिन जीवन के अनुभव कभी पुराने नहीं पड़ते।
नानक के बचपन में ही अनेक अद्भुत घटनाएँ घटित हुईं जिनसे लोगों ने समझ लिया कि नानक एक असाधरण बालक है। पुत्र को गृहस्थ जीवन में लगाने के उद्देश्य से पिता ने जब उन्हें व्यापार हेतु कुछ रुपए दिए तब उन्होंने समस्त रुपए साधु-संतों व महात्माओं की सेवा-सत्कार में खर्च कर दिए। उनकी दृष्टि में साधु-संतों की सेवा से बढ़कर लाभकारी सौदा और कुछ नहीं हो सकता था।
गुरुनानकजी का धर्म जड़ नहीं, सतत जागृति और चैतन्य की अभिक्रिया है। जागृत चेतना का निर्मल प्रवाह है। उनकी शिक्षाएं एवं धार्मिक उपदेश अनंत ऊर्जा के स्रोत हैं। शोषण, अन्याय, अलगाव और संवेदनशून्यता पर टिकी आज की समाज व्यवस्था को बदलने वाला शक्तिस्रोत वही है। धर्म के धनात्मक एवं गतिशील तत्व ही सभी धर्म क्रांतियों के नाभि केन्द्र रहे हैं। वे ही व्यक्ति और समाज के समन्वित विकास की रीढ़ है। ये व्यक्ति के शरीर, मन, प्राण और चेतना को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति-व्यक्ति का स्वस्थ तन, स्वस्थ मन और स्वस्थ जीवन ही स्वस्थ समाज की आधारिशला है और ऐसी ही स्वस्थ जीवन पद्धति एवं धर्म का निरुपण गुरुनानक देव न किया है।
गुरु नानकदेव एक महान पवित्र आत्मा थे, वे ईश्वर के सच्चे प्रतिनिधि थेे। आपने ‘गुरुग्रंथ साहब’ नामक ग्रंथ की रचना की । यह ग्रंथ पंजाबी भाषा और गुरुमुखी लिपि में है । इसमें कबीर, रैदास व मलूकदास जैसे भक्त कवियों की वाणियाँ सम्मिलित हैं। 70 वर्षीय गुरुनानक सन् 1539 ई॰ में अमरत्व को प्राप्त कर गए। परन्तु उनकी मृत्यु के पश्चात् भी उनके उपदेश और उनकी शिक्षा अमरवाणी बनकर हमारे बीच उपलब्ध हैं जो आज भी हमें जीवन में उच्च आदर्शों हेतु प्रेरित करती रहती हैं। सतगुरु नानक प्रगटिया, मिटी धुन्ध जग चानण होया” सिख धर्म के महाकवि भाई गुरदासजी ने गुरु नानक के आगमन को अंधकार में ज्ञान के प्रकाश समान बताया।
गुरुनानक देवजी ने स्वयं किसी धर्म की स्थापना नहीं की। उनके बाद आये गुरुओं से अपने समय की स्थितियों को देखकर सिख पंथ की स्थापना की। उनका उद्देश्य भी भारतीय धर्म और संस्कृति की रक्षा करना ही था। श्री गुरुनानक देव जी का जीवन सदैव समाज के उत्थान में बीता। उस समय का समाज अंधविश्वासों और कर्मकांडों के मकड़जाल में फंसा हुआ था। कहने को लोग भले ही समाज की रीतियां निभा रहे थे पर अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये उनके पास कोई ठोस योजना नहीं थी। इधर सामान्य लोग भी अपने कर्मकांडो में ऐसे लिप्त रहे कि उनके लिये ‘कोई नृप हो हमें का हानि’ की नीति ही सदाबहार थी। ऐसे जटिल दौर में गुरुनानक देवजी ने प्रकट होकर समाज में अध्यात्मिक चेतना जगाने का जो काम किया, वह अनुकरणीय है। वैसे महान संत कबीर भी इसी श्रेणी में आते हैं। हम इन दोनों महापुरुषों का जीवन देखें तो न वह केवल रोचक, प्रेरणादायक और समाज के लिये कल्याणकारी है बल्कि संन्यास के नाम पर समाज से बाहर रहने का ढोंग करते हुए उसकी भावनाओं का दोहन करने वाले ढोंगियों के लिये एक आईना भी है।
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