हिंसा से जख्मी होती राष्ट्रीय अस्मिता

हिंसा से जख्मी होती राष्ट्रीय अस्मिता

दिल्ली के द्वारका में तंजानिया और नाइजीरियाई लोगों पर हमला इसलिए किया गया क्योंकि इस तरह की अफवाह फैल गई थी कि उन्होंने 16 वर्षीय लड़के का अपहरण कर उसे मार डा

 

हिंसा से जख्मी होती राष्ट्रीय अस्मिता

दिल्ली के द्वारका में नरभक्षी होने की अफवाह के चलते लोगों ने अफ्रीकी नागरिकों पर हमला कर दिया था। एक अन्य घटना में बेकाबू भीड़ ने पीट-पीटकर आटो ड्राइवर अविनाश कुमार की हत्या कर दी और दो अन्य को भी इतना पीटा कि वे अस्पताल में जिन्दगी के लिए जंग लड़ रहे हैं। इन पर बैट्री चोरी का आरोप था। हिंसा एवं अशांति की ऐसी घटनाएं देशभर में लगातार हो रही हैं। महावीर, बुद्ध, गांधी के अहिंसक देश में हिंसा का बढ़ना न केवल चिन्ता का विषय है बल्कि गंभीर सोचनीय स्थिति को दर्शाता है। सभ्य एवं शालीन समाज में किसी की भी हत्या या हिंसक व्यवहार किया जाना असहनीय है। इस तरह से भीड़तंत्र के द्वारा कानून को हाथ में लेकर किसी को भी पीट-पीटकर मार डालना अमानवीयता एवं क्रूरता की चरम पराकाष्ठा है।

लेकिन प्रश्न यह है कि व्यक्ति हिंसक एवं क्रूर क्यों हो रहा है? सवाल यह भी है कि हमारे समाज में हिंसा की बढ़ रही घटनाओं को लेकर सजगता की इतनी कमी क्यों है? एक सभ्य एवं विकसित समाज में अनावश्यक हिंसा का बढ़ना विडम्बनापूर्ण है। ऐसे क्या कारण है जो हिंसा एवं अशांति की जमीं तैयार कर रहे हैं। देश में भीड़तंत्र हिंसक क्यों हो रहा है? मनुष्य-मनुष्य के बीच संघर्ष, द्वेष एवं नफरत क्यों छिड़ गयी है? कोई किसी को क्यों नहीं सह पा रहा है? प्रतिक्षण मौत क्यों मंडराती दिखाई देती है? ये ऐसे सवाल है जो नये बनते भारत के भाल पर काले धब्बे हैं। ये सवाल जिन्दगी की सारी दिशाओं से उठ रहे हैं और पूछ रहे हैं कि आखिर इंसान गढ़ने में कहां चूक हो रही है?

दिल्ली के द्वारका में तंजानिया और नाइजीरियाई लोगों पर हमला इसलिए किया गया क्योंकि इस तरह की अफवाह फैल गई थी कि उन्होंने 16 वर्षीय लड़के का अपहरण कर उसे मार डाला और उसे पका कर खा लिया, यह बेहद दुखद है। इससे देश की छवि को गहरा धक्का लगा है। पिछले वर्ष ग्रेटर नोएडा में भी स्थानीय लोगों ने अफ्रीकी छात्रों पर हमला कर दिया था। लोगों को संदेह था कि उन्होंने 17 वर्षीय लड़के का अपहरण कर उसे ड्रग्स दी थी, जिससे लड़के की मौत हो गई थी। सवाल तो यह है कि क्या लोगों का कानून-व्यवस्था पर से भरोसा उठ गया है? अगर किसी ने कोई अपराध किया है तो उसे सजा देने का काम पुलिस और न्याय व्यवस्था का है। भीड़ को कोई हक नहीं कि वह किसी की भी पीट-पीटकर हत्या कर दे। अगर सड़कों पर इन्साफ की अनुमति दे दी जाए तो पूरे देश में अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। लोकतंत्र में ऐसी घटनाओं को सहन नहीं किया जाना चाहिए।

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यह प्रकरण मॉब लिंचिंग की भयावह घटनाओं की याद दिलाता है जब अनेक राज्यों में अनेक मामलों में कई लोगों को भीड़ ने मार डाला था। लेकिन विडम्बनापूर्ण तो यह है कि इन घटनाओं के लपेटे में इस बार विदेशियों को लिया गया है? पिछले कुछ वर्षों में अफ्रीकी छात्रों पर हमले के कई मामले सामने आए हैं। इस तरह की घटनाओं से देश की छवि पर आघात तो पहुंचता ही है, भारत के नस्लीय भेदभाव के विरोध और अश्वेतों को समान अधिकार और प्रतिष्ठा दिए जाने की वकालत को भी धुंधलता है। क्या कारण है कि देश के भीतर के सामाजिक विभाजन एवं भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने के बावजूद उसे मिटा नहीं पाई। भले ही ऐसी वारदातें पुलिस की नजर में छोटी हों लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता एवं गौरवपूर्ण संस्कृति के लिये चिन्ताजनक है। तेजी से बढ़ता हिंसक दौर किसी एक प्रान्त का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल एवं भारत की आत्मा को जख्मी बनाया है। अब इन हिंसक होती स्थितियों को रोकने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। यदि समाज में पनप रही इस हिंसा को और अधिक समय मिला तो हम हिंसक वारदातें सुनने और निर्दोष लोगों की लाशें गिनने के इतने आदी हो जायेंगे कि वहां से लौटना मुश्किल बन जायेगा। इस पनपती हिंसक मानसिकता के समाधान के लिये ठंडा खून और ठंडा विचार नहीं, क्रांतिकारी बदलाव के आग की तपन चाहिए।

देश में कई विसंगतिपूर्ण धाराएं बलशाली हो रही है, जिन्होंने जोड़ने की जगह तोड़ने को महिमामंडित किया हैं, प्रेम, आपसी भाईचारे और सौहार्द की जगह नफरत, द्वेष एवं विघटन को हवा दी। शायद यही वजह है कि भारत में अब भी लोग हर तरह के वर्ग और समुदाय के साथ घुल-मिलकर रहना सीख नहीं पाए हैं। उनके अचेतन में बिठा दिए गए पूर्वाग्रह समय-समय पर खतरनाक ढंग से सामने आते रहते हैं। दिल्ली में न सिर्फ विदेशियों बल्कि देश के पूर्वोत्तर से आने वाले लोगों के खिलाफ भी नफरत एवं हिंसा भड़क उठती है। हाल के वर्षों में उनको निशाना बनाए जाने की कई घटनाएं घटी हैं। अन्य राज्यों में भी समय-समय पर प्रवासियों के खिलाफ हिंसा भड़क उठती है। एक आधुनिक और सभ्य समाज का लक्षण यह है कि वह अलग-अलग धाराओं से आने वाले लोगों और विचारों को खुले मन से स्वीकार करता है। विदेशियों का हमारे देश में शिक्षा प्राप्त करने या कारोबार के लिए आना इस बात का सबूत है कि वे हम पर भरोसा करते हैं। इस विश्वास का टूटना एक बड़ी चिन्ता का सबब है।

तर्कहीन एवं अराजक हो रही भीड़ समाज का खतरनाक लक्षण है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में काफी अफ्रीकी छात्र रहते हैं। इन विदेशियों पर नस्लभेदी टिप्पणियां की जाती हैं, उनसे दुर्व्यवहार किया जाता है। अफ्रीकियों पर हमलों की घटनाओं का असर केवल स्थानीय ही नहीं होता बल्कि इसका असर भारत-अफ्रीका सम्बन्धों एवं विदेश नीति पर पड़ता है। इससे कूटनीतिक रिश्ते बिगड़ सकते हैं और इसका असर अफ्रीकी देशों में रह रहे भारतीय समुदाय पर भी पड़ सकता है। क्या सभ्य समाज में सोचने-समझने एवं विवेक की क्षमता खत्म हो रही है? यदि ऐसा है तो इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए कि समाज असहिष्णुता एवं अराजकता की खतरनाक हद तक पहुंच चुका है।

राजनीति की छांव तले होने वाली भीड़तंत्र की वारदातें हिंसक रक्तक्रांति का कलंक देश के माथे पर लगा रहे हैं चाहे वह एंटी रोमियो स्क्वायड के नाम पर हो, विदेशियों पर अफवाहों के नाम पर हो या गौरक्षा के नाम पर। कहते हैं भीड़ पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। वह आजाद है, उसे चाहे जब भड़काकर हिंसक वारदात खड़ी की जा सकती है। उसे राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है जिसके कारण वह कहीं भी कानून को धत्ता बताते हुए मनमानी करती है। भीड़ इकट्ठी होती है, किसी को भी मार डालती है। जिस तरह से भीड़तंत्र का सिलसिला शुरू हुआ उससे तो लगता है कि एक दिन हम सब इसकी जद में होंगे।

अक्सर हिंसा का प्रदर्शन ताकत दिखाने के लिए किया जाता है। अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमलों के पीछे भी यही कारण होता है। हिंसा एवं अराजकता की बढ़ती इन घटनाओं के लिये केकड़ावृत्ति की मानसिकता जिम्मेदार है। जब-जब जनता के निर्णय से राजनीतिक दल सत्ता से दूर हुए हैं, उन्होंने ऐसे ही अराजक एवं हिंसक माहौल निर्मित किये हैं। आज राजनेता अपने स्वार्थों की चादर ताने खड़े हैं अपने आपको तेज धूप से बचाने के लिये या सत्ता के करीब पहुंचने के लिये। सबके सामने एक ही अहम सवाल आ खड़ा है कि ‘जो हम नहीं कर सकते वो तुम कैसे करोगे?’ लगता है इसी स्वार्थी सोच ने, आग्रही पकड़ ने, राजनीतिक स्वार्थ की मनोवृत्ति ने देश को हिंसा की आग में झोंक रखा है।

मॉब लिंचिंग या अफवाह पर हिंसक भीड़ के जुटने की घटनाओं ने राष्ट्र के गौरव को कुचला है। भीड़तंत्र भेड़तंत्र में बदलता जा रहा है। इस लिहाज से सरकार को अधिक चुस्त होना पड़ेगा। कुछ कठोर व्यवस्थाओं को स्थापित करना होगा, अगर कानून की रक्षा करने वाले लोग ही अपराधियों से हारने लगेंगे तो फिर देश के सामान्य नागरिकों का क्या होगा? देश बदल रहा है, हम इसे देख भी रहे हैं। एक ऐसा परिवर्तन जिसमें अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं और भीड़ खुद फैसला करने लगी है। भारतीय समाज के लिए यह भयावह मुकाम है, नागरिकता खामोश है, यही इस समय की सबसे बड़ी गलती है। भावनाओं और नफरत के हथियारों को नुकीला बनाया जा रहा है ताकि लोग आपस में लड़ें। हिंसा ऐसी चिंनगारी है, जो निमित्त मिलते ही भड़क उठती है। इसके लिये सत्ता के करीबी और सत्ता के विरोधी हजारों तर्क देंगे, हजारों बातें करेंगे लेकिन यह दिशा ठीक नहीं है। डर इस बात का भी है कि कहीं देश एक उन्मादी भीड़ में न बदल जाए। जब समाज में हिंसा को गलत प्रोत्साहन मिलेगा तो उसकी चिंनगारियों से कोई नहीं बच पायेगा।

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