उदयपुर। डायबीटिज रोग में प्रयुक्त इन्सूलिन हार्मोन की खोज करने वाले चिकित्सक वैज्ञानिक डॉ. बेन्टिग के जन्म दिन 14 नवम्बर को इस रोग के विभिन्न पहलुओं पर जागरूकता लाने के उद्देश्य से इस रोग से जुडे़ चिकित्सक, चिकित्सा समुदाय के लोग, रोगी व उनके परिजन "विश्व मधुमेह दिवस’’ के रूप में मनाते है।
एम.एम.एस. डायबिटीज ट्रस्ट चेयरमैन एवं वरिष्ठ डायबिटीज व हार्मोन्स विशेषज्ञ डॉ. डी.सी.शर्मा ने बताया कि वर्तमान में हमारे देश में साढ़े सात करोड़ लोग इस रोग से ग्रसित है, और अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले 25 वर्षो मे यह संख्या लगभग दोगुनी हो जाएगी। भारतीय लोग में यूरोप और अमेरिका की तुलना में डायबिटिज रोग लगभग 5-10 वर्ष पहले प्रकट होता है, अधिकतर रोगी थोडे़ से मोटे होते हैं एवं पूरा शरीर मोटा नहीं होने के बावजूद पेट का मोटापा अधिकतर रोगियों मे पाया जाता है एवं पेट में चर्बी की अधिकता के रहते न सिर्फ डायबिटीज वरन् उच्च रक्तचाप और हृदय रोग भी ज्यादा होते हैं एवं अंग्रेजों की तुलना में लगभग 10 वर्ष पहले इन रोगों की शुरूआत होती है।
उन्होंने बताया कि डायबिटीज रोगियों में आम लोंगो की तुलना में हृदयाघात होने की संभावना ढाई गुना ज्यादा होती है। हृदयाघात इनमें ज्यादा घातक होते है एवं अधिक लोगों में एन्जिओप्लास्टिक और हृदय के बाइपास ओपरेशन की जरूरत होती है। अंग्रेज़ो की तुलना में भारतीयों में डायबिटीज के कारण न्यूरोपैथी या नसों में हुए असर के कारण न्यूरोपेथिक घाव या छाले एवं गेंग्रीन ज्यादा देखे गए हैं।
उन्होंने बताया कि नए रोगियों में लगभग एक तिहाई रोगियों की उम्र 40 वर्ष से कम पाई गई है। इन युवा डायबिटीज रोगियों में अधिकतर मोटापा और खास तौर पर पेट निकलने के साथ ही डायबिटीज रोगो की शुरूआत होना देखा गया है।
इस वर्ष 'सभी तक डायबिटिज का उपचार पहुंचे' थीम पर कार्य किया जा रहा है। विगत वर्षो में आए आर्थिक, सामाजिक और जीवन शैली में बदलाव से उत्पन्न मोटापा और इसके साथ ही मधुमेह/डायबिटिज, ब्लड प्रेशर, हृदयाधात इत्यादि रोग हमारे देश में एक महामारी के रूप में प्रकट हुये है। डायबिटीज रोग को ’’साइलेन्ट किलर’’ के नाम से जाना जाता है, समय पर समुचित उपचार व प्रभावी नियंत्रण नहीं होने पर इस रोग की कई जटिलताऐं जैसे हृदयाघात, पक्षाघात, पैरो में गेंग्रीन, आंख के पर्दे पर असर रेटिनोपेथी इत्यादि प्रकट होती हैं और जिन्दगी के लिए घातक साबित होती हैं।
डायबिटिज रोग होने के 5-6 वर्षो बाद लगभग आधे रोगियों में गोलियों से नियंत्रण नही होने के कारण इन्सुलिन टीके की जरूरत बताई जाती है, परन्तु जानकारी के अभाव में, अज्ञानतावश ओर कई मिथ्याओं के रहते अधिकतर लोग इन्सुलिन का समय पर उपयोग शुरू नही करते। देश मे हुए कई अध्ययन में पाया गया है कि इन्सुलिन की जरूरत होने के 4-5 वर्षो बाद रोगी इन्सुलिन लेना शुरू करते हैं लेकिन तब तक शरीर में डायबिटिज जनित जटिलताएं शुरू हो चुकी होती हैं और तब इन्सुलिन भी इन जटिलताओं को रोकने में सक्षम नहीं होती।
प्रदेश के इस संभाग मे हुए शोध के अनुसार छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में भी जीवनशैली में आए बदलाव के कारण डायबिटीज रोग तेजी से बढ रहा है। यह रोग उन लोगों में ज्यादा बढ रहा है, जिन्होने मेहनतकश जिन्दगी त्याग कर कम मेहनतवाला पेशा अपनाया है और जिन लोगों का अचानक से वजन बढ़ने लगा है।
डायबिटीज रोग देरी से पहचानने एवं उपचार शुरू करने मे हुई देरी के कारण निदान होने के समय ही लगभग 25 प्रतिशत रोगियों में इसकी जटिलताऐं घर कर चुकी होती हैं। हमारे संभाग में भी देश के अन्य भागों के आंकड़ों के अनुरूप लगभग 85 से 90 प्रतिशत रोगियों में डायबिटीज लक्ष्य के अनुरूप नियंत्रण में नहीं पाया जाता।
विगत दो दशक में हुए अनुसंधान के परिणाम स्वरूप कई नए तरह के इन्सुलिन व नई दवाईयां उपलब्ध हुई है। यह नई दवाईयां शुगर के नियंत्रण के साथ ही रोगियों का वजन, रक्तचाप व कोलेस्ट्रोल को नियंत्रित करते हुए हृदयरोग व किडनी के रोगों की संभावना को भी कम करने में सहायक पाई गई है। नई प्रकार की इन्सुलिन व इन्सुलिन लेने के साधन जैसे इन्सुलिन पेन्स, इन्सुलिन पम्पस् इत्यादि से इन्सुलिन का उपयोग आसान हो गया है।
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