विपक्षी एकता के नये परिदृश्य
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को एक नयी ऊर्जा दे दी है। अब कांग्रेस और देशभर की विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों के गठबन्धन को संगठित होने का एक सकारात्मक परिवेश इन चुनावों ने दिया है। सोमवार को राजधानी में आयोजित अपनी बैठक में कांग्रेस एवं विपक्षी दलों ने संदेश दिया है कि वे 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिल
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को एक नयी ऊर्जा दे दी है। अब कांग्रेस और देशभर की विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों के गठबन्धन को संगठित होने का एक सकारात्मक परिवेश इन चुनावों ने दिया है। सोमवार को राजधानी में आयोजित अपनी बैठक में कांग्रेस एवं विपक्षी दलों ने संदेश दिया है कि वे 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ मिलकर लड़ने के लिए तैयार हैं। विपक्षी पार्टियों की इस एकजुटता को अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाए रखने की जद्दोजहद के रूप में भी देखा जा सकता है, पहली बार देश में गैर-भाजपा की अवधारणा जोर पकड़ रही है। आखिर प्रश्न यह है कि भाजपा इतनी जल्दी इस स्थिति में कैसे पहुंची, इस पर उसे आत्ममंथन करना होगा।
1967 के आम चुनावों से पहले समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने ‘कांग्रेस हराओ-देश बचाओ’ की हुंकार भरी थी और इसके लिए उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद के साये के तले सभी शेष राजनीतिक दलों को लाने का सफल प्रयास किया था। नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा को हटाने के लिये गैर भाजपावाद लाने के लिये वर्ष 2019 के चुनावों से पूर्व ऐसा ही वातावरण बनाया जा रहा है। लोगों में यह विश्वास जगाया जा रहा है कि भाजपा के विरोध में जितने भी दल हैं वे भी जनता के वोट की ताकत से सत्ता में आ सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में विपक्षी महागठबंधन को सफल बनाने के लिये प्रयास किये जा रहे है। एक समय जिस तरह देश में गैर-कांग्रेसवाद का जोर दिखता था, उसी तरह अब गैर-बीजेपीवाद का खाका गढ़ा जा रहा है। विरोधी विचारों वाले भी इस विपक्षी महागठबंधन का हिस्सा बनने को तैयार दिखाई दे रहे हैं। लेकिन बिना नीति एवं नियमों के यह महागठबंधन कैसे सफल होगा?
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साल 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर विपक्षी एकता की सफलता के लिये जरूरी है कि सशक्त राष्ट्र निर्माण के एजेंडे के साथ-साथ विपक्षी दलों की नीतियों की प्रभावी प्रस्तुति जरूरी होगी। दलों के दलदल वाले देश में दर्जनभर से भी ज्यादा विपक्षी दलों के पास कोई ठोस एवं बुनियादी मुद्दा नहीं है, देश को बनाने का संकल्प नहीं है, उनके बीच आपस में ही स्वीकार्य नेतृत्व का अभाव है जो विपक्षी महागठबंधन की विडम्बना एवं विसंगतियों को ही उजागर करता है। विपक्षी गठबंधन को सफल बनाने के लिये नारा दिया गया है कि ‘पहले मोदी को मात, फिर पीएम पर बात।’ निश्चय ही इस बात पर विपक्ष एक हो जायेगा, लेकिन विचारणाीय बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अब नेतृत्व के बजाय नीतियों प्रमुख मुद्दा बननी चाहिए, ऐसा होने से ही विपक्षी एकता की सार्थकता है और तभी वे वास्तविक रूप में भाजपा को मात देने में सक्षम होंगे। तभी 2019 का चुनाव भाजपा के लिए भारी पड़ सकता है और इसके संकेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से मिल भी गये हैं। निश्चित तौर पर भाजपा को लेकर मतदाताओं का मानस बदला है, जो भाजपा की असली चुनौती है।
नरेन्द्र मोदी का अहंकार एवं स्वयं को सर्वेसर्वा मानने के कारण भाजपा की उभरती छवि धूमिल हो रही है। कांग्रेस भी राहुल गांधी को आगे करने के कारण चुनौतियां झेलती रही है, भले ही ताजा चुनावों में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन उसका श्रेय केवल राहुल गांधी को देना भी एक विसंगतिपूर्ण आग्रह ही है। ऐसे आग्रह एवं पूर्वाग्रह ही राजनीतिक दलों की हार-जीत का कारण बनते रहे हैं। विपक्षी एकता की धुरी फिलहाल कांग्रेस ही है, लेकिन इसके अध्यक्ष राहुल गांधी को कई विपक्षी दल शायद ही अपना नेता मानने को तैयार हों। मगर पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे कांग्रेस के पक्ष में जाने से राहुल का कद बढ़ा है और उनकी दावेदारी मजबूत हुई है। कुछ पार्टियों को डर है कि कांग्रेस के मजबूत होने पर कहीं उनका जनाधार न बिखरने लग जाए। कुल मिलाकर विपक्षी एकता गणितीय ज्यादा लगती है। इसका ढांचा किसी सिद्धांत से ज्यादा सीटों के तालमेल पर टिका नजर आता है।
कांग्रेस भी भाजपा सरकार की विफलता को तलाशने एवं उसे भुनाने का प्रयास करके ही जीत की ओर अग्रसर हुई है। कांग्रेस ने पिछले कुछ समय से राफेल और कर्ज घोटालों का मुद्दा उठाकर भ्रष्टाचार के सवाल पर सरकार को घेरा है और किसानों की उपेक्षा तथा देश में बढ़ती अराजकता, बेरोजगारी, व्यापारिक निराशाओं के लिए सरकार की तीखी आलोचना की है। सत्ताधारी की ऐसी आलोचना होना स्वाभाविक है। कांग्रेस और कई विपक्षी दलों की सरकारें आज विभिन्न राज्यों में हैं। वहां इन दलों का रवैया सत्तारूढ़ भाजपा से ज्यादा अलग नहीं दिखता। इन्होंने भी सत्ता में आने के लिए स्मार्टफोन और लैपटॉप देने जैसे लोकलुभावन वादे किए हैं। विपक्ष शासित कोई भी राज्य प्रशासनिक सुधार या कानून-व्यवस्था के स्तर पर कोई अलग मानक नहीं स्थापित कर पाया है, जिसे अच्छा मानकर लोग विपक्ष के साथ खड़े हो सकें। भाजपा को मात देने के लिये ठोस धरातल तो तलाशना कांग्रेस एवं विपक्षी दलों की प्राथमिकता होनी ही चाहिए।
लम्बे समय से महसूस किया जा रहा था कि यदि विपक्षी एकता होती है तो उसमें कांग्रेस की सहभागिता होगी या नहीं? कुछ दल कांग्रेस से दूरी रखना चाहते है, लेकिन बिना कांग्रेस नए गठबंधन की ताकत अधूरी ही है। अब तो पांच राज्यों में कांग्रेस की प्रभावी एवं असरकारक स्थिति के कारण विपक्ष बिना कांग्रेस की अग्रणी भूमिका की बात सोच भी नहीं सकता। सोमवार की बैठक में तमाम क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस की भूमिका पर एकमत दिखाई दी हैं। जो विपक्षी एकता का एक शुभ लक्षण है। इस बैठक में भी प्रधानमंत्री पद के प्रश्न को टालते हुए लोकतंत्र बचाओ और देश बचाओ, भाजपा एवं मोदीमुक्ति के एजेंडे को ज्यादा प्रमुखता दी है। इस बात का उल्लेख भी होता रहा है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से लेकर सीबीआई तक सभी संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है, इसलिए भाजपा का विकल्प तैयार करना होगा।
अब कांग्रेस एवं विपक्षी दल आर-पार की लड़ाई के मूड में आ गए है। इसलिये उनके विपक्षी एकता के प्रयास भी तीव्र एवं तीक्ष्ण होते दिखाई दे रहे हैं। जिसका प्रभाव उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में पड़ेगा। अगर इन सभी राज्यों में भाजपा के साथ उसकी सीधी चुनावी टक्कर होगी तो बाकी जगहों पर इन राज्यों के सकारात्मक परिदृश्यों का फायदा मिलेगा। अधिक प्रभावी भूमिका निर्मित करने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरह का चमत्कारी चेहरा एवं प्रभावी नीतियों को सामने लाना होगा। यदि मोदी की इस प्रभावी छवि की काट निकालने में विपक्ष सफल हो गया तो भाजपा के लिये बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।
इस विपक्षी एकता को लेकर कई दल इसलिए भी उत्साहित हैं, क्योंकि 2014 के चुनाव में मात्र 31 फीसदी वोट लेकर भी भाजपा को इतनी सीटें मिली। इसका अर्थ है कि विपक्षी दलों के पास 69 फीसदी मत हैं। अगर इस मत को एक छतरी मिल जाये, तो भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं। वैसे विपक्षी एकता के लिए राहत की बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की लोकप्रियता इन दिनों कम हुई है। सीबीआई, आरबीआई या राफेल जैसे मुद्दे लोगों को झकझोर रहे हैं, महंगाई, व्यापार की संकटग्रस्त स्थितियां, बेरोजगारी, आदि समस्याओं से आम आदमी परेशान हो चुका है, वह नये विकल्प को खोजने की मानसिकता बना चुका है, जो विपक्षी एकता के उद्देश्य को नया आयाम दे सकता है।
इस बात पर ध्यान देना होगा कि बात केवल विपक्षी एकता की ही न हो, बात केवल मोदी को परास्त करने की भी न हो, बल्कि देश की भी हो। कुछ नयी संभावनाओं के द्वार भी खुलने चाहिए, देश-समाज की तमाम समस्याओं के समाधान का रास्ता भी दिखाई देना चाहिए, सुरसा की तरह मुंह फैलाती गरीबी, अशिक्षा, अस्वास्थ्य, बेरोजगारी और अपराधों पर अंकुश का रोडमेप भी बनना चाहिए। संप्रग शासन में शुरू हुईं कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्याएं राजग शासन में भी बदस्तूर जारी हैं। व्यापार ठप्प है, विषमताओं और विद्रूपताओं की यह फेहरिस्त बहुत लंबी बन सकती है, लेकिन ऐसा सूरज उगाना होगा कि ये सूरत बदले। जाहिर है, यह सूरत तब बदलेगी, जब सोच बदलेगी। इस सोच को बदलने के संकल्प के साथ यदि प्रस्तावित विपक्षी एकता आगे बढ़ती है तो ही मोदी को टक्कर देने की सार्थकता है। यह भी हमें देखना है कि टक्कर कीमत के लिए है या मूल्यों के लिए? लोकतंत्र का मूल स्तम्भ भी मूल्यों की जगह कीमत की लड़ाई लड़ रहा है, तब मूल्यों का संरक्षण कौन करेगा? एक खामोश किस्म का ”सत्ता युद्ध“ देश में जारी है। एक विशेष किस्म का मोड़ जो हमें गलत दिशा की ओर ले जा रहा है, यह मूल्यहीनता और कीमत की मनोवृत्ति, अपराध प्रवृत्ति को भी जन्म दे सकता है। हमने सभी विधाओं को बाजार समझ लिया। जहां कीमत कद्दावर होती है और मूल्य बौना। सिर्फ सत्ता को ही जब राजनीतिक दल एकमात्र उद्देश्य मान लेता है तब वह राष्ट्र दूसरे कोनों से नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तरों पर बिखरने लगता है। क्या इन विषम एवं अंधकारमय स्थितियों में विपक्षी एकता कोई रोशनी बन सकती है?
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