विपक्षी एकता के सूत्रधार की असली चुनौती


विपक्षी एकता के सूत्रधार की असली चुनौती

इस विपक्षी एकता को लेकर कई दल इसलिए भी उत्साहित हैं, क्योंकि 2014 के चुनाव में मात्र 31 फीसदी वोट लेकर भी भाजपा को इतनी सीटें मिली। इसका अर्थ है कि विपक्षी दलों के पास 69 फीसदी मत हैं। अगर इस मत को एक छतरी मिल जाये, तो भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं। वैसे विपक्षी एकता के लिए राहत की बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की लोकप्रियता इन दिनों कम हुई है। सीबीआई, आरबीआई या राफेल जैसे मुद्दे लोगों को झकझोर रहे हैं, महंगाई, व्यापार की संकटग्रस्त स्थितियां, बेरोजगारी, आदि समस्याओं से आम आदमी परेशान हो चुका है, वह नये विकल्प को खोजने की मानसिकता बना चुका है,

 

विपक्षी एकता के सूत्रधार की असली चुनौती

आगामी लोकसभा चुनाव की हलचल उग्र होती जा रही है। भारतीय जनता पार्टी बनाम विपक्षी गठबंधन का दृश्य बन रहा है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, विपक्षी एकता के स्वर सुनाई दे रहे हैं। लेकिन सशक्त विपक्ष के गठबंधन की सबसे बड़ी बाधा एक सूत्रधार को लेकर है, जो विभिन्न दलों सेे बात करें, उनके बीच समझ एवं समन्वय के सूत्र विकसित करें। अब तक ऐसा व्यक्तित्व ही सामने नहीं आ रहा था, लेकिन अब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू विपक्ष को एक करने में जुट गए हैं, वे विपक्षी एकता को सुदृढ़, प्रभावी एवं कारगर करने के सूत्रधार की भूमिका को निभाने के लिये तत्पर हुए है।

निश्चित ही उनके प्रयासों से विपक्षी एकता के प्रयास सफल होंगे, जो एक जीवंत लोकतंत्र की प्राथमिक आवश्यकता है। लोकतंत्र तभी आदर्श स्थिति में होता है जब मजबूत विपक्ष होता है और सत्ता की कमान संभालने वाले दलों की भूमिकाएं भी बदलती रहती है।

साल 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर नायडू को विपक्षी एकता के सूत्रधार की भूमिका के साथ-साथ सशक्त राष्ट्र निर्माण के एजेंडे पर विपक्षी दलों की नीतियों को भी प्रभावी ढंग से प्रस्तुति देनी होगी। दलों के दलदल वाले देश में दर्जनभर से भी ज्यादा विपक्षी दलों के पास कोई ठोस एवं बुनियादी मुद्दा नहीं है, देश को बनाने का संकल्प नहीं है, उनके बीच आपस में ही स्वीकार्य नेतृत्व का अभाव है जो राजनीतिक संस्कृति की विडम्बना एवं विसंगतियों को ही उजागर करता है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि हमारी राजनीतिक संस्कृति नेतृत्व के नैसर्गिक विकास में सहायक नहीं है।

भले ही नायडू की मुलाकात राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, मायावती, फारूक अब्दुल्ला, शरद पवार, एचडी देवगौड़ा जैसे तमाम दिग्गज राजनेताओं से हो चुकी है। माना जा रहा है कि वह उन सभी दलों के संपर्क में भी हैं, जो एनडीए के विरोधी खेमे में हैं। क्या चंद्रबाबू नायडू अपनी इस रणनीति में सफल होंगे? विपक्षी गठबंधन को सफल बनाने के लिये नारा दिया गया है कि ‘पहले मोदी को मात, फिर पीएम पर बात।’ निश्चय ही इस बात पर विपक्ष एक हो जायेगा, लेकिन विचारणाीय बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अब नेतृत्व के बजाय नीतियों प्रमुख मुद्दा बननी चाहिए, ऐसा होने से ही विपक्षी एकता की सार्थकता है और तभी वे वास्तविक रूप में भाजपा को मात देने में सक्षम होंगे। तभी 2019 का चुनाव भाजपा के लिए भारी पड़ सकता है, तभी एकजुट विपक्ष निश्चित तौर पर मतदाताओं को प्रभावित करेगा, असली चुनौती नायडू के सामने यही है।

चंद्रबाबू नायडू प्रभावी नेता है, उनकी राजनीति सोच हैं, वे कुशल प्रबन्धक भी है, विविधता में एकता स्थापित करने की पात्रता रखते हैं, मौलिक सोच एवं आधुनिक भारत को निर्मित करने की क्षमता उनमें हैं, इन्हीं विशेषताओं के चलते वे विपक्षी एकता के सूत्रधार की भूमिका निभाने में काबिल है। लम्बे समय से महसूस किया जा रहा था कि यदि विपक्षी एकता होती है तो उसमें कांग्रेस की सहभागिता होगी या नहीं? कुछ दल कांग्रेस से दूरी रखना चाहते है, लेकिन बिना कांग्रेस नए गठबंधन की ताकत अधूरी ही है। एक समय तो तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के अध्यक्ष के चंद्रशेखर राव ने कहा था कि कांग्रेस के साथ आगे बढ़ने की उनकी मंशा नहीं थी। मगर चंद्रबाबू नायडू के मैदान में उतरने के बाद अब यह लगने लगा है कि तमाम क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस को साथ लेने पर एकमत हो गई हैं। जो विपक्षी एकता की शुरुआत का एक शुभ लक्षण है। चंद्रबाबू ने प्रधानमंत्री पद के प्रश्न को टालते हुए लोकतंत्र बचाओ और देश बचाओ के एजेंडे को ज्यादा प्रमुखता दी है। वे लगातार इस बात का उल्लेख कर रहे हैं कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से लेकर सीबीआई तक सभी संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है, इसलिए भाजपा का विकल्प तैयार करना होगा।

चंद्रबाबू नायडू जिन स्थितियों में एनडीए से अलग हुए, वे स्थितियां उनके लिये अपमान का सबब बनी, यही कारण है कि कांग्रेस से उनकी नजदीकियां बढ़ी। क्योंकि अब वे एनडीए से आर-पार की लड़ाई के मूड में आ गए है। इसलिये उनके विपक्षी एकता के प्रयास भी तीव्र एवं तीक्ष्ण होते दिखाई दे रहे हैं। जिसका प्रभाव उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में पड़ेगा। अगर इन सभी राज्यों में भाजपा के साथ उसकी सीधी चुनावी टक्कर हुई, तो उसे सौ के करीब सीटों का फायदा हो सकता है। बाकी जगहों पर इन राज्यों के सकारात्मक परिदृश्यों का फायदा मिलेगा। और अधिक प्रभावी भूमिका निर्मित करने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरह का चमत्कारी चेहरा एवं प्रभावी नीतियों को सामने लाना होगा। यदि मोदी की इस प्रभावी छवि की काट निकालने में विपक्ष सफल हो गया तो भाजपा के लिये बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।

इस विपक्षी एकता को लेकर कई दल इसलिए भी उत्साहित हैं, क्योंकि 2014 के चुनाव में मात्र 31 फीसदी वोट लेकर भी भाजपा को इतनी सीटें मिली। इसका अर्थ है कि विपक्षी दलों के पास 69 फीसदी मत हैं। अगर इस मत को एक छतरी मिल जाये, तो भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं। वैसे विपक्षी एकता के लिए राहत की बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की लोकप्रियता इन दिनों कम हुई है। सीबीआई, आरबीआई या राफेल जैसे मुद्दे लोगों को झकझोर रहे हैं, महंगाई, व्यापार की संकटग्रस्त स्थितियां, बेरोजगारी, आदि समस्याओं से आम आदमी परेशान हो चुका है, वह नये विकल्प को खोजने की मानसिकता बना चुका है, जो विपक्षी एकता के उद्देश्य को नया आयाम दे सकता है।

चंद्रबाबू नायडू के सामने बड़ी चुनौती है, उनको इस बात पर ध्यान देना होगा कि बात केवल विपक्षी एकता की ही न हो, बात केवल मोदी को परास्त करने की भी न हो, बल्कि देश की भी हो। कुछ नयी संभावनाओं के द्वार भी खुलने चाहिए, देश-समाज की तमाम समस्याओं के समाधान का रास्ता भी दिखाई देना चाहिए, सुरसा की तरह मुंह फैलाती गरीबी, अशिक्षा, अस्वास्थ्य, बेरोजगारी और अपराधों पर अंकुश का रोडमेप भी बनना चाहिए।

यूपीए शासन में शुरू हुईं कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्याएं मोदी शासन में भी बदस्तूर जारी हैं। तब एक निर्भया कांड से देश हिल गया था, लेकिन अब आये दिन निर्भया कांड, मीटू की खबरें आ रही हैं। विजय माल्या, मेहुल चोकसी जैसे ऊंची पहुंच वाले शातिर लोग हजारों करोड़ का घोटाला करके विदेश में बैठे हैं, व्यापार ठप्प है, विषमताओं और विद्रूपताओं की यह फेहरिस्त बहुत लंबी बन सकती है, लेकिन ऐसा सूरज उगाना होगा कि ये सूरत बदले। जाहिर है, यह सूरत तब बदलेगी, जब सोच बदलेगी। इस सोच को बदलने के संकल्प के साथ यदि प्रस्तावित विपक्षी एकता आगे बढ़ती है तो ही मोदी को टक्कर देने की सार्थकता है।

यह भी हमें देखना है कि टक्कर कीमत के लिए है या मूल्यों के लिए? लोकतंत्र का मूल स्तम्भ भी मूल्यों की जगह कीमत की लड़ाई लड़ रहा है, तब मूल्यों का संरक्षण कौन करेगा? एक खामोश किस्म का ”सत्ता युद्ध“ देश में जारी है। एक विशेष किस्म का मोड़ जो हमें गलत दिशा की ओर ले जा रहा है, यह मूल्यहीनता और कीमत की मनोवृत्ति, अपराध प्रवृत्ति को भी जन्म दे रहा है।

हमने सभी विधाओं को बाजार समझ लिया। जहां कीमत कद्दावर होती है और मूल्य बौना। सिर्फ सत्ता को ही जब राजनीतिक दल एकमात्र उद्देश्य मान लेता है तब वह राष्ट्र दूसरे कोनों से नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तरों पर बिखरने लगता है। क्या इन विषम एवं अंधकारमय स्थितियों में विपक्षी एकता कोई रोशनी बन सकती है? विपक्षी एकता की कोशिश हो राष्ट्र को संगठित करने की, सशक्त करने की, जो वर्ष 2019 के चुनावों का आधार भी बने और चुनावी घोषणापत्र भी।

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