डिजिटल लेखन में खटक रहा छंटनी का संस्कार : प्रो. अरूण भगत

डिजिटल लेखन में खटक रहा छंटनी का संस्कार : प्रो. अरूण भगत

लेखन जो कभी व्यास शैली में हुआ करता था, वह आज डिजिटल युग में समास शैली में होने लगा है। तकनीकी बारीकियों के बीच उलझनों का दौर चल रहा है। डिजिटल मीडिया में पर्याप्त सामग्री का अभाव है। लेखक व पाठक के बीच आत्मीयता का संबंध खत्म सा हो गया है। संपादन कौशल का स्तर […]

 

डिजिटल लेखन में खटक रहा छंटनी का संस्कार : प्रो. अरूण भगत

लेखन जो कभी व्यास शैली में हुआ करता था, वह आज डिजिटल युग में समास शैली में होने लगा है। तकनीकी बारीकियों के बीच उलझनों का दौर चल रहा है। डिजिटल मीडिया में पर्याप्त सामग्री का अभाव है। लेखक व पाठक के बीच आत्मीयता का संबंध खत्म सा हो गया है। संपादन कौशल का स्तर गिरता जा रहा है। लेखन में छंटनी का संस्कार और चेक एंड बैलेंस का अभाव खटक रहा है। हर व्यक्ति निरंकुश प्रकाशक हो गया है। यह विचार मुख्य वक्ता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय नोयडा के निदेशक प्रो. अरूण भगत ने मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग और राजस्थान साहित्य अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में डिजिटल मीडिया और साहित्य विषयक एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में सोमवार को उद्घाटन सत्र में व्यक्त किए।

विश्वविद्यालय के स्वर्ण जयंती अतिथि गृह सभागार में आयोजित संगोष्ठी में उन्होंने कहा कि परिष्कार की परम्परा समाप्त होती जा रही है। डिजिटल दौर की पत्रकारिता के सामने आ रही 16 चुनौतियों का जिक्र करते हुए कहा कि यह सच है डिजिटल मीडिया ने साहित्य का लोकतांत्रिकरण कर दिया है। डिजिटल प्लेटफार्म पर एडिटोरियल और यूजर की ओर से जनरेट किया जो कंटेंट उपलब्ध है उसकी सही और सटीक समीक्षा नहीं हो रही है। यह अभिव्यक्ति सत्यम, शिवम और सुंदरम नहीं बन पा रही है। सामाजिक चेतना का विलोप हो रहा है। पत्रकार ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया‘ का पर्याय बन गए है।

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विशिष्ठ अतिथि मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के अध्यक्ष देवेंद्र दीपक ने कहा कि डिजिटल साहित्य में संशोधन की साहित्य नहीं है। अपनी लिखी रचना का त्रुटिदोष दूर करना संभव नहीं है। मुक्तिबोध जब कविता लिखा करते थे तब पास में एक बक्सा रखते थे जिस पर लिखा होता था ‘अंडर रिपेयर बाॅक्स’ इसमें रखी गई कविताओं को बार-बार परिमार्जन के बाद ही वे प्रकाशन के लिए भेजा करते थे। आज ऐसे संस्कार गुम हो गए हैं। इस डिजिटल प्रणाली ने हमारे सामने घोर असामाजिकता पेश की है। इससे शरीर रचना पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। ये कोई राणा प्रताप का घोड़ा नहीं, बेलगाम डिजिटल घोड़ा है जो अपने सवार को भी कहां पटकेगा पता नहीं। उन्होेंने कहा कि डिजिटल मीडिया में आस्था की रक्षा व अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया है। शील की कोई गुंजाइश नहीं बची है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में जिन विषयों को चर्चा के लिए वर्जित बताया है, सोशल मीडिया ने उसी वर्जित को अर्जित का माध्यम बना दिया है। पहले अखबार छपा करता था तब बिकता था, अब अखबार बिकता है, तब छप पाता है। उन्होंने सुझाव देते हुए कहा कि मीडिया के साथ स्व को जोड़कर आत्ममंथन करते हुए उसकी सीमा निर्धारित की जानी चाहिए।

राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डाॅ. इन्दुशेखर तत्पुरूष ने सवाल उठाया कि क्या यह संभव है कि सूचनाओं के अंधड़ में हमें समृद्ध करने वाला यह नया डिजिटल माध्यम हमारी साहित्यिक रचनात्मकता को भी समृद्ध करेगा। यह जरूरी नहीं है कि डिजिटल विस्तार अनिवार्यतः साहित्यिक विकास को भी सुनिश्चित करे। सोशल मीडिया के असीमित प्रयोग से रचनात्मकता और सृजनशीलता पर विपरीत असर हुआ है। साहित्य सृजन के लिए संवेदनशीलता का जो तत्व चाहिए, वह इस सूचना क्रांति में दिखाई नहीं देता। हम भयानक स्मृतिलोप के शिकार हो रहे हैं। सब कुछ हमसे हट कर हमारे दूरभाष यंत्र के हस्तगत हो गया है। निर्धनता व अशिक्षा ही लोकतंत्र की कमजोर कड़ियां हैं इनके हितों का डिजिटल प्लेटफार्म पर कितना संरक्षण हो रहा है, इस पर चिंतन करना होगा।

सुविवि कला महाविद्यालय की डीन प्रो़ साधना कोठारी ने कहा कि तमाम खामियों के बावजूद डिजिटल प्लेटफार्म समय की मांग और जरूरत है। हम इस तकनीकी प्रणाली की अच्छाइयों को ग्रहण करें तथा बुराइयों का उचित प्लेटफार्म पर विरोध दर्ज कराएं।

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इससे पहले विषय प्रवर्तन करते हुए मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभागाध्यक्ष डाॅ कुंजन आचार्य ने कहा कि साहित्य की ताकत हमें पढ़ना सिखाती है, डिजिटल मीडिया की ताकत हमें साहित्य से परिचित कराती है। डिजिटल सशक्तीकरण के माध्यम से हम नए युग के सूत्रपात के साक्षी हो रहे है। नवसृजन के इस दौर के कुछ खतरे भी हैं जिनका हम सबको मिलकर सामना करते हुए आगे बढ़ना होगा।

तकनीकी सत्र में राजस्थान विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के डाॅ मनोज लोढ़ा ने कहा कि अच्छा और मौलिक साहित्य सदा अमर रहेगा। डिजिटल प्लेटफार्म पर उसकी काॅपी या चोरी की आशंका निर्मूल है क्योंकि यहां हर दस्तावेज के लेखन और प्रकाशन के समय का अंकन होता है। साहित्यिक चोरी पकड़ने वाले साॅफटवेयर से काॅपी-पेस्ट को आसानी से पकड़ा जा सकता है। वस्तुतः नया मीडिया साहित्य को लोकतांत्रिकरण की ओर ही ले जा रहा है। हजारों दुर्लभ लेखों का डिजिटल दस्तावेजीकरण का ऐतिहासिक कार्य हो रहा है। सोशल मीडिया पर जो कुछ अच्छा-बुरा लिखा जा रहा है उसका तत्काल मूल्यांकन भी हो रहा है। बावजी चतुरसिंहजी का साहित्य का भी डिजिटलाइजेशन हो रहा है।

दैनिक भास्कर उदयपुर के न्यूज एडिटर सर्वेश शर्मा ने कहा कि साधन कभी साध्य नहीं हो सकता। हम इसे सिरे से खारिज नहीं कर सकते। कुछ समय पहले तक गूगल मेप को लेकर विश्व मीडिया में उसकी बुराइयों पर मंथन हो रहा था। सूरत में बारह वर्ष पहले आई बाढ के दौरान एक व्यक्ति की सलाह को मानते हुए सेना ने सभी काॅल उसे फारवर्ड की व उसने तकनीक का इस्तेमाल करते हुए 85 लोगों की लोकेशन को ट्रेस किया व उनकी जान बचाई जा सकी। हमें समय के साथ हो रहे बदलावों को स्वीकार करना होगा। मुनव्वर राणा के एक कथन का याद करते हुए कहा कि सरहद की सीमाएं अब ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं है। डिजिटल दायरा उसे तोड देगा।

डेली न्यूज जयपुर के संपादक डाॅ. संदीप पुरोहित ने कहा कि संविधान की आठवीं सूची में शामिल 22 भाषाओं में अंग्रेजी को जगह नहीं दी गई है लेकिन आज हमारे कार्य-व्यवहार और यहां तक कि संस्कार में हर तरफ अंग्रेजी नजर आ रही है। हिन्दी भाषा पर प्रहार हो रहा है। अगर लिपी कमजोर हुई तो भाषा भी कमजोर होगी। यह चिंतन का विषय है कि हम अपने ही देश की क्षेत्रीय भाषाओं से जुड़ नहीं पा रहे है। जर्मन और फ्रेंच सीख रहे है लेकिन तमिल और तेलगू नहीं। अतः भाषा से प्रेम कीजिए, वह आपको खुद ब खुद साहित्य और डिजिटल संसार से जोड़ देगी।

सूचना एवं जनसंपर्क उप निदेशक गौरीकांत शर्मा ने कहा कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। डिजिटल मीडिया में भी ऐसा ही है। तमाम बुराइयों के बावजूद जो सुविधा और गति हमारे जीवन को दी, उसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

पत्रवाचन करते हुए डाॅ. आशीष सिसौदिया ने कहा कि आजकल आलम यह है कि संगोष्ठियां ही वाट्सएप पर होने लगी है। जीवन के हर क्षेत्र पर डिजिटल पहरा है। डाॅ. रेणू श्रीवास्तव, भारत भूषण ओझा और चेतन औदिच्य ने भी पत्रवाचन करते हुए डिजिटल मीडिया और साहित्य के रिश्तों को नए संदर्भों में परिभाषित किया।

डिजिटल लेखन में खटक रहा छंटनी का संस्कार : प्रो. अरूण भगत

समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो संजय लोढा ने कहा कि हालांकि आज डिजिटल मीडिया आम आदमी की पहुंच और पकड में है लेकिन दो तरफा संवाद भी कई समस्याओे को बढा रहा है। उन्होंने कहा कि पारम्परिक मीडिया और डिजिटल मीडिया में तुलनात्मक अध्ययन पर भी शोध होना चाहिए। मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डा ज्योतिपुंज ने कहा कि समाज में आपसी रिश्तों में दरार लाने का काम भी डिजिटल मीडिया कर रहा है इस खतरे से भी सावधान रहना होगा।

उदयपुर टाइम्स के संपादक अख्तर हुसैन ने कहा कि आज डिजिटल मीडिया रोजगाार का बडा माध्यम है साथ ही इसको लेखक अपनी रचनाओं को विश्वव्यापी प्रसार कर सकता है। उन्होने कहा कि युवा वर्ग इस माध्य के रचनात्मक इस्तेमाल के जरिए अपनी पहचान बना सकते है।

विभाग के प्रभारी डा कुंजन आचार्य ने अन्त में धन्यवाद ज्ञापित किया।

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