वे जो इस चुनाव का हिस्सा नहीं

वे जो इस चुनाव का हिस्सा नहीं

मेरे जेहन में एक सवाल आया कि राजस्थान में इसी साल बाद में चुनाव आने वाले है और वे किसको वोट देंगे ? पेमाराम व चैनाराम हंस पड़े, हमारे वोट व सरकार दोनों ये भेड़े है, वोट तो आते जाते रहते है। वोट देने जायेंगे तो हमारे ये साथी जो भेड़ें व ऊंट है, वो किसके भरोसे रहेंगे? हम भले व हमारी ये भेड़े भली, बस। सचमुच, ये घुमकड़ रेबारी इस चुनावी समर के न पांडव है, न कौरव और न ही संजय।

 

वे जो इस चुनाव का हिस्सा नहीं

अगस्त महीने का तीसरा हफ्ता। मानसून के सरोबार उदयपुर शहर की पहाड़ियां हरी भरी व मनभावन बनी हुई है। शहर के बाहरी छोर पर स्थित एक कॉलेज में आयोजित कला प्रदशनी देखकर अपनी कार से शहर को लौट रहा था। गाड़ी मंथर गति से पहाड़ों की सर्पीली सड़कों से गुजर रही थी, तभी नजर पड़ी तो लगा की दूर दूसरी पहाड़ी की तलहटी समान व् समतल अभी अभी की गयी है व् पहाड़ का ढलान वाला क्षेत्र काट कर चंद दिनों में साफ किया गया प्रतीत हो रहा है।

भरे चौमासे में वहां की हरियाली, पेड़ पौधे व् हरी घास नदारद है। शायद किसी बिल्डर की कोई नयी हाउसिंग स्कीम उभर कर आएगी वहां। पहाड़ों का कटना, उनके ढलानों को समतल या मकान बनाने लायक बनाने के लिए बुलडोज़र चलना आम बात है। कुछ प्रोजेक्ट सरकारी मंजूरी से तो कुछ गैर क़ानूनी, धनबल व बाहुबल से प्रशासन जागता है, कभी-कभी व् फोरी तौर पर कुछ करवाई होती है तो कुछ बच जाते हैं।

कुल मिलाकर,शहर फ़ैल रहा है, दानव सा . उसका कहीं पूर्ण विराम नहीं लगता, एक अविरत प्रक्रिया जो आदमी के बढ़ती भूख व् धन संचय की अंधी दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों के अंतहीन दोहन का सिलसिला। उन्नत मशीनों के ईजाद ने इस दोहन की प्रक्रिया को कई गुना बढ़ा दिया है। प्राकृतिक संसाधन मानव के जीवन यापन का एक बड़ा स्रोत हमेशा से रहे हैं, पर विज्ञान की नई खोजों व मानवीय भूख से दोहन की बढ़ती गति ने मावन जाति को अपने भविष्य को लेकर चिंचित जरूर कर दिया है। परन्तु फिर भी दोहन प्रक्रिया का ग्राफ इजाफा दर्ज कर रहा है। अवैध खनन के चलते राजस्थान से गुजरने वाली विश्व की प्राचीनतम पर्वत श्रंखला अरावली की पिछले पचास सालों में 128 पहाड़ियों में से 31 पहाड़िया गायब हो चुकी है। सिलसिला बदस्तूर जारी है।

मसलन मेरी नजर पहाड़ी काटने या उसे समतल करने पर नहीं पर उस साफ की गयी जगह पर डेरा डाले गड़रियों पर पड़ी जो अपने भेड़ों व् ऊँटो के झुण्ड के साथ वहां स्थित थे। सूरज तेजी से अस्तांचल की और अग्रसर था व् अँधेरे के आगोश आने से पहले ये चरवाहे अपने डेरे पर पहुँच रहे थे। ऊंटों व् भेड़ो के कतार बद्ध झुंड शाम के धुंधलके में मिटटी का हल्का गुब्बार उड़ाते हुए तेजी से डेरे की और बढ़ रहे थे।

वे जो इस चुनाव का हिस्सा नहीं

मेरी जिज्ञासा मुझे उन पशु पालकों के डेरे तक खींचने लगी। उनके डेरे मेरी सड़क से कोई 100 मीटर नीचे पहाड़ी के ढलान पर थी। उस पहाड़ी ढलान से मेरी सड़क के बीच उदयपुर – अहमदाबाद की रेल लाइन का आमान परिवर्तन का काम चल रहा था। अपनी सड़क छोड़ कर उनके डेरे तक पहुँचने तक सूरज पूरी तरह से छिप चूका था व् अँधेरा छाने को था। कुल मिलकर बारह डेरे, बरसाती मौसम में भी चरवाहा महिलाओं ने जलाऊ लकड़ी इकठा कर ली थी व् उनके डेरे की छत पर तारपोलियन शीट बंधी थी व नीचे दो चारपाई। बारिश के मौसम में कभी भी बरसने वाली बरखा से बचाव का पुख्ता इंतजाम के रूप में चारपाई के ऊपर लगी तारपोलियन शीट से कर रखा था। चारपाई के पास कुछ कपडे व राजमर्रा का राशन। आदम जाति की अंतहीन व बढ़ी हुई आवश्यकताओं के बीच साधारण जीवन यापन की एक अविश्सनीय छवि से मैं रूबरू हुआ। एक कोने में कुछ पत्थर ईंटों से बना उठाऊ चूल्हा। निशा के दबे पावं घुसपैठ से पहले डेरे के चूल्हे जल उठे थे व वे निरंतर धुंआ उगल रहे थे। तैयारी थी, बाजरे की रोटी बनने की।

सबसे पहले वाले डेरे पर चारपाई पर बैठा नवयुवक कोई तीस- बत्तीस साल का रहा होगा। मैं अपनी कार से उतर कर उसके डेरे के लिए पैदल चल पड़ा। सुनसान बियाबान जगह, जहाँ आस पास की बस्ती कोई आधा किलोमीटर पर होगी, उस नवयुवक ने मुझे उसकी बढ़ते देखकर वह स्वयं अपनी चारपाई से उठा व आगे बढ़कर मुझ से राम राम किया। अस्थायी डेरे में उसकी पत्नी व् एक बालिका कोई सात आठ बरस की होगी, दोनों चूल्हे पर रोटी बनाने की तैयारी में। मैंने ठेठ मारवाड़ी में उससे उसका नाम व गावं का नाम पूछा। नाम तो है सा चैनाराम, तहसील शिवगंज। मैंने अगला सवाल किया बीजा सगळा शिवगंज तहसील रा है की बीजी जग्या रा ? चैनाराम ने कहा कि तीन परिवार शिवगंज तहसील रा है सा बाकि बीजा जालोर जिला रा है सा.

वे जो इस चुनाव का हिस्सा नहीं

मैंने अगला सवाल किया- कैसे गुजरती है जिंदगी सुबह से शाम तक? चैनाराम से तफ्सील से जवाब दिया। यहाँ से सुबह हिरावण (नाश्ता) के बाद निकल जाते है, घास के तलाश में। बारिश का मौसम होने से दो चार किलोमीटर के दायरे में पहाड़ियों के ढलान में काफी हरी घास मिल जाती है और वहीं उनकी भेड़ों का झुंड लगता है घास चरने। दो चार घंटे गुजरने के बाद फिर तलाश शुरू होती है, एक नई जगह की जहाँ घास प्रयाप्त मात्रा में हो। ऊंट इन्ही ढलानों में स्थित पेड़ों की डालियों से अपने आहार पा जाते है। दोपहर का खाना औरते लेकर आ जाती है व पीछे डेरे पर कुछ महिलाएं रुक कर डेरे की देखभाल करती है। हर शाम फिर यहीं लौट आते है व जिंदगी बस इसी तरह गुजरती के हमारी।

मेरी अगली जिज्ञासा को पूरी करते हुआ बताया की उदयपुर शहर के आस पास वे नवम्बर तक रुकेंगे। उसके बाद यहाँ हरी घास लगभग समाप्त होने को होती है। इसी बीच पास के डेरे से एक अधेड़ उम्र के एक चरवाहा आया आया व अपना नाम बताया पेमाराम, खास मुकाम जालोर जिला। अब दोनों जुड़ गए इस चर्चा में व बताया कि उनके डेरे यहाँ से चल पड़ेगें नवम्बर महीने में व उनका नया मुकाम होगा वागड़ का बांसवाड़ा जिला। मुझे यह आश्चर्य हुआ कि पेमाराम की भाषा ठेठ मारवाड़ी नहीं थी व उसकी भाषा में वागड़ भाषा का गहरा पुट था। बांसवाड़ा के आसपास माही व अन्य सहायक नदियों के आस पास जंगलों में घास फरवरी महीने तक होती है।

उनका मुकाम मार्च महीने में फिर बदलेगा व वे चल पड़ेगें गुजरात के छोटा उदयपुर क्षेत्र में। गुजरात के इस आदिवासी क्षेत्र में लगभग जुलाई के मध्य तक रहेंगे व फिर वापस मेवाड़ के उदयपुर व आसपास। कुछ रूककर फिर बोलै चैनाराम कि अगली बार वे जब यहाँ लौटेंगे, यहाँ कोई कॉलोनी बन रही होगी व उन्हें फिर अपने लिए एक नया आशियाना ढूँढना होगा। जगह तो मिल जाती है पर इतना है कि जगह कोई नई होगी।

वे जो इस चुनाव का हिस्सा नहीं

चैनाराम से पता चला कि उसकी छोटी बेटी गांव में उसके माता पिता के साथ रहती है व वह पढ़ने स्कूल जाती है। तीन महीने के अंतराल में वह खुद या उसकी पत्नी घर जाकर बूढ़े माता पिता को संभाल कर आती है। पर जिनके पास अन्य काम धंधा या खेती नहीं है वे अब भी इस काम लगे है, घर से निरंतर दूर। रोजी रोटी तो चाहिए, बस जिंदगी हमारी कुछ इसी तरह गुजरती है। आज यहाँ कल वहां, साल दर साल।

मेरे जेहन में एक सवाल आया कि राजस्थान में इसी साल बाद में चुनाव आने वाले है और वे किसको वोट देंगे ? पेमाराम व चैनाराम हंस पड़े, हमारे वोट व सरकार दोनों ये भेड़े है, वोट तो आते जाते रहते है। वोट देने जायेंगे तो हमारे ये साथी जो भेड़ें व ऊंट है, वो किसके भरोसे रहेंगे? हम भले व हमारी ये भेड़े भली, बस। सचमुच, ये घुमकड़ रेबारी इस चुनावी समर के न पांडव है, न कौरव और न ही संजय।

Views in the article are solely of the author

To join us on Facebook Click Here and Subscribe to UdaipurTimes Broadcast channels on   GoogleNews |  Telegram |  Signal