बादलों का टूटना, बिखरना हम क्यों नहीं संभाल पाते ?


बादलों का टूटना, बिखरना हम क्यों नहीं संभाल पाते ?

जाने क्यों मुझको उनके बरसने की आदत बहुत बदली -बदली -सी लग रही है ! इस दफ़ा जाने क्या ऐसा हुआ कि बरसने में बड़ी खुदगर्ज़ी करते चले आये है ये बादल ! जहां इनकी मर्जी हुई वहां तो ये जम कर बरस पड़े ! इतना बरसे कि कुछ लोग तो जीवन को ही तरस गये, यकीनन तुमको जहां बरसना था वहां तो बूंद -बूद को लोग तरस गये। अरे कैसे हो गये हो बदरवां ? तुम इतना बदल गये कि अब जानलेवा तक हो गये ! जहां अक्सर जम कर बरसते थे तुम वहां क्यों नहीं आये बरसने ?

 

बादलों का टूटना, बिखरना हम क्यों नहीं संभाल पाते ? अकेले पन के कोकुन से मैं ज़रा बाहर झांकना चाह रहा था। अपनेपन की आस में बस बादलों को झांक रहा था । यह रात छोटे -छोटे फुहारों से लदी थी। फुहारें मेरे न चाहते हुए भी मुझसे बस टकराये जा रही थी। कभी कभी मुझे कांटों सी चुभ रही थी, कभी गुलाब सी नरमाहट बिखरने की कोशिश करने लगती, कुछ बूंदे मुझसे मेरी नाराजगी के सैंकडों सवाल पूछती जाती! मुझे बार -बार भीगोने का जतन करती जाती ये बूंदें आज मुझसे जानबूझकर लड़ रही थी।

नीर की बूंदों को महसूस करना तो चाहता था मैं मगर खुद को रोक लिया था ‘ कि अब नहीं ‘ बस कर यार ! ये तुम्हारे को तोड़ देगी, भीतर से ही तुम्हें झकझोर कर रख देंगी। तुम रूक जाओ ! भीतर से उठी कुछ आवाजों ने मुझको रोक लिया था। क्योंकि इन बरखां की बूंदों में बहुत कुछ समाया होता है !

आज रात बादल बहुत नीचे तक आ गये थे, स्ट्रीट लाइट्स की दूधिया रोशनी में मैं देख पा रहा कि सफेद रूई के ढेरों की तरह बादलों में से असंख्य बूंदों ने अपने आकार को बहुत ही सुक्ष्म बना कर धरती की इस गोद को भीगोने की जिम्मेदारी ले रखी थी। बूंद- बूंद उस गोद में समाना चाह रही थी जिसमें हम सब आज पल रहे है। देखिए न इन ठण्डी-ठण्डी फुहारों के इस सुकून को भी तो ! मुझसे कहीं गुना ज़्यादा हम सब के जीवन रक्षक इन पेड़ पौधे के पन्नों को मिल रहा था ये। ज़िंदगी की कश्मकश में इन दिनों खुद की मुस्कुराहट को तो मैं सरासर भूल ही बैठा था। ऐसे में मेरे लिए पन्नों की हंसी को महसूस कर पाना थोड़ा बहुत आसान सा हो गया था। मुझे ऐसा लगा कि सावन के मौसम में ऊपर वाले के उपहार बरसात ने इस दफ़ा थोड़ी बहुत बेरहमी की है।

जाने क्यों मुझको उनके बरसने की आदत बहुत बदली -बदली -सी लग रही है ! इस दफ़ा जाने क्या ऐसा हुआ कि बरसने में बड़ी खुदगर्ज़ी करते चले आये है ये बादल ! जहां इनकी मर्जी हुई वहां तो ये जम कर बरस पड़े ! इतना बरसे कि कुछ लोग तो जीवन को ही तरस गये, यकीनन तुमको जहां बरसना था वहां तो बूंद -बूद को लोग तरस गये। अरे कैसे हो गये हो बदरवां ? तुम इतना बदल गये कि अब जानलेवा तक हो गये ! जहां अक्सर जम कर बरसते थे तुम वहां क्यों नहीं आये बरसने ?

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जुलाई का पूरा महीना बिन बारिश के ही बीत गया। अब धरती ने भी नाराज़गी जता कर फैसला कर लिया कि अब बादलों की कभी कोई गरज ही नहीं करेंगे। बरसना है तो बरस जाए चाहे हम पानी को ही तरस जाये। आज हम इंसानो को ही देख लीजिए न, हमको बस अपनी ही तो फ़िकर है ! हम भला क्यूं किसी से अरज -गरज करें ! शायद हमारे मन को यहीं संकीर्णता बस कुरेदे जा रही है मगर हम होश संभालना भी तो कहां चाहते है ? इतना बिखर कर, हद से ज़्यादा टूट कर फिर से हम जुड़ जाना चाहते है , मसलन हमें कोई न कोई संभाल लेता है ।

बादलों का टूटना , उनका बिखरना हम में से कोई नहीं संभाल पाता ! केवल धरती की गोद ही है जो उसे अपने सुकोमल आंचल में समेट लेती है, सहेज लेती है, उन्हें बर्बाद होने से बचा लेती है। बरसात की बूंदों के सहेजने -संभलने से ही धरती से स्वतः प्रस्फुटित हो जाते है सुकोमल हरे – भरे पौधे ! नये -नये पन्ने जो हमें अक्सर अहसास कराते है कि हम बच्चों की तरह जीना चाहते है ! क्या आप हमें जीने देंगे ? जवाब हमें देना है ! क्या हम तैयार है ?

Views in the article are solely of the author Mr Rakshit Parmar +919664424832

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