लॉकडाउन इंसानी ज़िन्दगी को सुरक्षित करने के लिये लागू किया गया था, लेकिन यह लॉकडाउन बच्चों पर भारी पड़ा। इस दौरान स्कूल भी बंद कर दिए गए ताकि बच्चों में कोरोना का संक्रमण न फैलने पाए। बोर्ड परीक्षा तक नहीं हुई। लेकिन कोरोना के संक्रमण के चलते बच्चे घरों में यौन हमलो से सुरक्षित नहीं रह पाए थे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार राजस्थान में पिछले दो साल यानी 2020 और 2021 में पोक्सो (POCSO) एक्ट के मामले चौंकाने वाले नज़र आए है। इन आंकड़ो की तह में जाएं तो और भी भयावह हकीकत से सामना होता है। (NCRB) के मुताबिक यौन हिंसा और शोषण की घटनाएं सबसे ज्यादा 16 से 18 आयु वर्ष की लड़कियों के साथ हुई।
2020 के लॉकडाउन के दौरान आंकड़ो पर नज़र डाले तो सबसे ज्यादा मामले फरवरी, जून, जुलाई, अगस्त और सितंबर में दर्ज किए गए है। वहीं 2021 में सबसे ज्यादा मामले जनवरी, फरवरी, मार्च एवं जून और जुलाई में दर्ज किए गए है। 2020 और 2021 के कुल मामले देखें तो 4,010 मुकदमे दर्ज किए गए है, जिसमें चालान 2,906, FR 788 और पेडिंग केस 314 है।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती। कोरोना की वैश्विक महामारी के खिलाफ लड़ाई में देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया ने लॉकडाउन को हथियार बनाया। संक्रमण से सुरक्षा का यही एकमात्र उपाय था। इससे जिंदगी तो सुरक्षित रह गई, लेकिन बचपन हिंसा का शिकार हो गया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार यदि हम राजस्थान में पिछले 5 सालों में पॉक्सो एक्ट के आकंड़ो में नज़र डाले तो 2017 में 1200 केस दर्ज हुए है। 2018 और 2019 के दौरान कुल दो वर्षों में 1 हजार से ज्यादा केस दर्ज हुए। वहीं, पिछले साल यानी 2020 के दौरान ही यह आंकड़ा 1,300 के पार पहुंच गया और 2021 में तो 1600 के ऊपर चल गया।
राजस्थान के ज़िलो की बात करें तो 2020 और 2021 में 2020 के दौरान उदयपुर जैसे छोटे शहर में 309 यौन शोषण के केस दर्ज किए गए, जबकि बड़े शहरों की बात कि जाए तो अजमेर में 335, जयपुर में 363 और जोधपुर में 351 केस दर्ज हुए। 2021 में जहां उदयपुर में 384 (2020 से 25% ज़्यादा) केस दर्ज हुए, वहीं जयपुर में 544 (2020 से 50% ज़्यादा), जोधपुर में 400 (2020 से 14% ज़्यादा) और अजमेर में 368 (2020 से 10% ज़्यादा) केस दर्ज हुए हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक 16 से 18 वर्ष की लड़कियां यौन हिंसा की सबसे ज़्यादा शिकार हुई हैं। इससे साफ तौर पर समाज स्तर पर ही नहीं, बल्कि घरों में भी लड़कियों की सुरक्षा का सवाल खड़ा होता है। सवाल तो यह भी है कि बालिका सुरक्षा के लिए समाज-संस्थाओं को जिम्मेदार ठहराने वाले हम लोग परिवार में भी लड़की को महफूज माहौल देने में कितना असफल रहे हैं।
हर साल प्रकाशित होने वाली एनसीआरबी की रिपोर्ट हकीकत तो बयाँ कर देती है, लेकिन यौन हिंसा या शोषण को रोक पाने में परिवार से लेकर सभी संस्थाएं असफल रही है। तथ्य यह भी है कि आंकड़ो और रिपोर्ट में वहीं केस सामने आ पाते है जो न्याय की गुहार लगाने के लिए दर्ज किए जाते है। लेकिन इनमें कई ऐसी बच्चियों की कहानियां भी है, जिनकी आवाज घर की चार-दीवारी या समाज की पंचायत में ही दब कर रह जाती है। थानों तक नहीं पहुंच पाने के चलते एनसीआरबी की रिपोर्ट में भी इन कहानियों को जगह नहीं मिलती।
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