नेताजी सुभाष चंद्र बोस - आज़ादी की लड़ाई का ध्रुव तारा

नेताजी सुभाष चंद्र बोस - आज़ादी की लड़ाई का ध्रुव तारा

 
Blood donation camp in memory of Netaji

अनेक स्वतंत्रता सेनानियों के बीच नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक ध्रुव तारे की मानिंद है, जो 48 वर्ष की उम्र में आज़ादी की लड़ाई के पटल से अचानक अदृश्य हो गए. कई जाँच आयोगों की रिपोर्ट के बावजूद उनकी विमान दुर्घटना का तथ्य आज भी विवादास्पद है. उनके नेहरु  - गाँधी के वैचारिक मतभेद जग जाहिर है और इस में कोई शक नहीं की कांग्रेस में गाँधी की सर्व स्वीकारिता  के बावजूद सुभाष की लोकप्रियता कांग्रेस में किसी नायक से कम नहीं थी. 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में नेहरू-गाँधी के उम्मीदवार डॉ पट्टाभि सीतारमैया चुनाव हार गए।  इसे बापू की निजी हार माना जाना था एवं सुभाष ने बापू की छवि को   बचाने के लिए स्वयं अध्यक्ष पद  छोड़ दिया.   आज की राजनीति  के सन्दर्भ में यह वाकया राजनैतिक दलों को एक सन्देश देता है कि आप जिस किसी वैचारिक मंच से जुड़े है, उसकी एकता जरुरी है एवं  पद मोह में आस्था का परिवर्तन सिर्फ सत्ता की राजनीति की भूख है

आज नेताजी के जन्म के एक सौ पच्चीस साल बाद और उनके लापता होने के छिहत्तर साल बाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत के आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में एक शक्तिशाली सैनानी एवं अथाह आस्था का केंद्र बने हुए हैं। अगस्त 1945 में जिस तरह से जब भारत आज़ादी के नजदीक था वह आज़ादी की लड़ाई के समर से अचानक दूर चले गए  जिस तरह से उनकी मौत का हादसा हुआ, वह विवादों में घिरा रहा और आज भी उनके विमान हादसे की कहानी कुछ लोग संदेह से देखते है  उनकी आज़ादी के खातिर नाजी नेता  एडॉल्फ हिटलर और जापान की राजशाही  से बैठकें मुलाकात भी विस्तारवादी ताकतों से घालमेल कांग्रेस गाँधी- नेहरू के मूल भावना के अनुरूप होने का वाद-विवाद सर्व विदित है. इस विषय में बँटी  हुई राय के बावजूद उनका लक्ष्य था, आज़ाद भारत

आज़ादी तो मिली और वह  भी शांतिपूर्ण तरीके से परन्तु बहुत बड़ी कीमत अदा  की गयी और वह थी भारत का विभाजन जिसमें 1947 में भारत का विभाजन हुआ एवं एक नए देश ने एशिया के मानचित्र पर जन्म लिया। परन्तु एक बात स्पष्ट होती है की नेताजी देश के विभाजन के पक्ष में नहीं थे एवं उनका राजनैतिक विचार एक सर्व समावेशी समाज जिसका नाम भारतीय समाज था. इसका प्रमाण उन्होंने अपने निर्वासन की स्थिति में, सिंगापुर में अक्टूबर 1943 में भारत के लिए एक सरकार  का गठन किया और यह सरकार अविभाजित भारत की सरकार थी. नेताजी सुभाष बोस ने ही टैगोर गीत 'जन गण मन' और अल्लामा इकबाल की कविता 'सारे जहाँ से अच्छा' कविता का भारत की एक सम्पूर्ण कवितामय पूजा बताया। हमारे राष्ट्रिय ध्वज तिरंगे की उत्पत्ति भी नेताजी से आती हुई प्रतीत होती है. उनकी भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) इतिहास की रोमांटिक धारणाओं के साहित्य का सामान रही है।

मेरे जैसे लोग जो 1960 के दशक में स्कूल गए थे, उन्हें याद है कि मई 1964 में जब जवाहरलाल नेहरू का पार्थिव शरीर पड़ा हुआ था, उस भीड़ में एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति था, जो चश्मे में और एक पुजारी के वेश में था। वह कुछ देर खड़े रहकर दिवंगत नेहरू के दर्शन कर  रहे थे , फिर यह चल पड़ा की वहां उपस्थित साधु और कोई नहीं नेताजी ही थे. लेकिन यह सिर्फ किसी फ़िल्मी कथा सा ही था , कोई कारण नहीं बनता की सुभाष बोस एक स्वयं के बने हुवे किसी प्लान के तहत ग़ायब रहे. यह मात्र एक कहानी ही हो सकती है, जो सस्पेंस पैदा करती है

सुभाष चंद्र बोस, नेताजी अपने समय में और 1945 के बाद की अवधि में भी लाखों लोगों के लिए एक पहेली बने हुए हैं। अभी भी ऐसे लोग हैं, और उनमें से विद्वान भी हैं, जिन्होंने इस सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं किया कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त, 1945 को ताइपेह  में एक विमान दुर्घटना में हुई थी। नेताजी की मृत्यु की इस कहानी के तथ्यों के प्रमाण के रूप में, ताइवान के एक रिपोर्ट किए गए सरकारी बयान का उल्लेख किया जाता रहा है, जिसके अनुसार उस दिन होने वाले किसी भी विमान दुर्घटना से इंकार करता है। इससे एक नैसर्गिक  प्रश्न जन्म लेता है  कि नेताजी के उस विमान का क्या हुआ जिसमे नेताजी के यात्रा करने के बारे में बताया गया थाकहानियां व् संभानाओं के अनेक गोते लगाए जाते रहे की शायद वे सोवियत संघ चले गए, या ले जाया गया और अपना शेष जीवन वहीं व्यतीत किया हो। कुछ कहानिया यह भी चली की सुभाष बोस उचित समय आएंगे व् देश भारत का नेतृत्व करेंगे।

स्वतंत्र भारत में, सुभाष बोस के लापता होने की जांच के लिए गठित कई जांच आयोगों में से किसी ने भी नेताजी के अंत के बारे में संदेह सामान्य जिज्ञासा की क्या सचमुच हादसा हुआ था को संतुष्ट नहीं किया, जिसने कभी भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। फर्क इतना की वे अंग्रेजों के साथ अपने व्यवहार में गांधी द्वारा अपनाए गए तरीकों के पोषक नहीं थे। लेकिन महात्मा के साथ उनके मतभेद के बावजूद, बोस गाँधी उनकी अहिंसा की आवाज के प्रति सम्मानजनक बने रहे, यानि जो भी मतभेद था वह  वैचारिक ही था

नेताजी, हमारे समय में कई सेनानियों  की तरह धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राजनीति में उनका विश्वास अटूट था। जबकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश भारत के बाद आज़ाद भारत को धरम के आधार पर विभाजित होने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. बोस ने लगातार राष्ट्रवाद और लोकतंत्र के सिद्धांत पर आधारित एक संयुक्त, स्वतंत्र भारत के अपने दृष्टिकोण पर बने रहे।

उनके राष्ट्रिय पटल से गुजरे कई दशक बीत गए. परन्तु लोकप्रियता के पैमाने पर आज भी वे कई समकालीन सेनानियों नेताओं से बहुत आगे है. अमर जवान ज्योति स्थल से पिछले पचास साल से प्रज्जवलित ज्योति का राष्ट्रिय शहीद स्मारक में विलीनीकरण का विवाद थम गया जब सरकार ने कहा की उस स्थल पर नेताजी की मूर्ति स्थापित होगी. शायद यह नेताजी के प्रति भारत ही नहीं अपितु इस महाद्वीप में आज़ादी के लड़ाके के रूप में उनका योगदान सब से हट कर अनूठा है, वे बहुतों के बीच में अलग से ध्रुव तारे से चमकते है

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