कोई बच्चा फ़ैल नहीं होता, फ़ैल होता है स्कूल। हर एक बच्चे का अपना अपना टैलेंट होता है। ज़रूरत है उस बच्चे का टैलेंट पहचानने की जिसमे आज का शिक्षा तंत्र सर्वथा नाकाम है। शिक्षा तंत्र ही नहीं वह अभिभावक भी नाकाम से जो अपने बच्चे का टैलेंट ही नहीं पहचान पाते। बस सिर्फ अपनी उम्मीदों और इच्छाओ का बोझ अपने बच्चो पर लाद देते है। यह कहना है की शिक्षांतर नामक एनजीओ संचालित करने वाले मनीष जैन का, उदयपुर टाइम्स से एक्सक्लूसिव बातचीत में मनीष जैन ने आज के शिक्षा तंत्र पर बेहद गंभीर सवाल उठाए।
मनीष जैन हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से शिक्षा हासिल की है । यूनेस्को में एजुकेशनिस्ट के तौर पर भी अपनी सेवाए दे चुके है। यही नहीं प्रतिष्ठित 'वॉल स्ट्रीट' में जर्नलिज़्म का जलवा बिखेर चुके है मनीष जैन। उदयपुर में 1998 से 'शिक्षांतर' नामक एनजीओ शुरू करने वाले मनीष जैन का मानना है की आज का शिक्षा तंत्र बच्चो को केवल स्ट्रेस और डिप्रेशन दे रहा है। शिक्षण संस्थान केवल बच्चो के टैलेंट पहचानने में नाकाम साबित हो रहे है। सभी बच्चो को एक समान शिक्षा दी जा रही है है जबकि सभी बच्चो का हुनर और टैलेंट अलग अलग होता है।
आज के परिवेश में स्कूली/कॉलेज शिक्षा का अंतिम परिणाम डिग्री हासिल करना और उस डिग्री के माध्यम से नौकरी या आजीविका कमाने का साधन मात्र बन कर रह गया है। अभिभावकों ने भी स्कूल/कॉलेजों को एक मशीन समझ रखा है की एक तरफ से बच्चा डालो और दूसरी तरफ से डिग्रीधारी इंजिनियर/एमबीए/सीए/डॉक्टर निकालो। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है ? नहीं बिलकुल ऐसा नहीं है। यही कारण है की लाखों की संख्या में डिग्रीधारी इंजीनियर / एमबीए या तो बेरोज़गार घूम रहे है या किसी एक सरकारी नौकरी पाने की जुगत में यहाँ से वहां भटकते फिर रहे है। दरअसल हमारा शिक्षा तंत्र इंजिनियर/डॉक्टर/एमबीए या अन्य डिग्रीधारी बेरोज़गारो की एक भीड़ तैयार कर रहा है। मनीष जैन का कहना है की डिग्री मात्र कागज़ का टुकड़ा है। आने वाले वर्षो में इसकी कोई वैल्यू नहीं रह जाएगी। नियोक्ताओं को डिग्री की नहीं कर्मचारी के हुनर की आवश्यकता है।
अगर कोई बच्चा मैथ्स में कमज़ोर है तो उन्हें कोचिंग सेंटर भेज दिया जाता है बगैर यह जाने की अगर उनके बच्चे की मैथ्स कमज़ोर है तो हो सकता है उनका भाषाई ज्ञान या भूगोल का ज्ञान अन्य बच्चो से अधिक हो सकता है। जैसे पेंटिंग्स क्लास या संगीत की क्लास में भेजने से कोई चित्रकार या संगीतकार नहीं बन सकता है जब तक की उनमे स्वयं से संगीत या चित्रकारी में रूचि न हो। ठीक उसी प्रकार इंजीनियरिंग कॉलेज में भारी भरकम फीस जमा करवाकर डिग्री दिलवाकर कोई अपने बच्चे को इंजिनियर नहीं बना सकता। डिग्री हासिल करने के बाद वह डिग्रीधारी इंजिनियर तो बन जायेगा लेकिन जब धरातल पर इंजीनियरिंग करने उतरेगा तो ज़िल्लत से ज़्यादा कुछ हासिल नहीं होगा। हमने कई इंजीनियरों को मार्केटिंग करते देखा है। यहीं कारण है की इंजीनियरिंग करने के बाद उन्हें एमबीए की डिग्री भी हासिल करनी होती है। केमिकल इंजीनियरों या सिविल इंजीनियरों को सॉफ्टवेयर कम्पनी में कोडिंग करते देखा जा सकता है या किसी एमएनसी में प्रोडक्ट सेल करते देखा जा सकता है।
दरअसल आज के प्रतिस्पर्धी युग और कॉर्पोरेट जगत के आभामंडल ने सबको इतना चकाचौंध कर दिया है लोग अपने होने का जीवन का वास्तविक मकसद भूल चुके है। बस भौतिक सुविधाओं को असली सुख मान लिया गया है। यही कारण नैतिक पतन का कारण बन रहा है। इस जहाँ में सब कुछ मिल जाता है लेकिन सुकून नहीं मिलता। कॉर्पोरेट कल्चर के आगे समाज, घर परिवार की कोई वैल्यू नहीं रह गई है। इसी वजह से मनीष जैन की शिक्षांतर ने 'तपोवन' आश्रम में बच्चो और उनके पेरेंट्स के साथ सात दिन की वर्कशॉप रखी ताकि बच्चे अपने पेरेंट्स से कुछ सीख सके। पेरेंट्स भी बच्चो से कुछ सीख सके। सामाजिक मूल्यों को समझ सके।
तपोवन में आयोजित वर्कशॉप में मौजूद अभिभावको का भी यही मानना है की वह भी अपने बच्चो को शिक्षा ही नहीं बल्कि जीवन का असल मकसद और खुशियां देना चाहते है वह अपने बच्चो को फ्रीडम देना चाहते है की वह खुद अपना रास्ता चुने। दरअसल प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चों पर अपनी स्वयं की इच्छाओ का बोझ लादता दिखाई दे रहा है। अपने बच्चो को इंजिनियर/डॉक्टर/एमबीए या हाई प्रोफाइल पद पर देखना चाहता है। लेकिन कोई अपने बच्चे से नहीं पूछता की उनकी मंज़िल क्या है ? अपने आसपास के माहौल को ही देखा जाए तो अहसास हो जायेगा की माँ बाप किस कदर अपने बच्चों के भविष्य को लेकर अपने ही बच्चो पर हावी है। अभिभावकों की इच्छा के अनुसार जबरदस्ती बनाये गए प्रोफेशनल्स अपनी खुशियाँ ड्रग्स और नशे में तलाशते दिखाई दे रहे है।
मनीष जैन ने अनस्कूलिंग और सेल्फ लर्निंग पर बात करते हुए बताया की आज भारत में लगभग दस हज़ार परिवार ने अपने बच्चो को स्कूल से निकाल दिया है इसी प्रकार सेल्फ लर्निंग और अनस्कूलिंग संस्थान से जोड़ दिया है जहाँ उनके बच्चो का विकास हो सके। पश्चिमी दुनिया में यह कांसेप्ट तेज़ी से फ़ैल रहा है वहीँ अमेरिका में तो यह संख्या लगभग चालीस लाख है। मनीष कहते है उन्होंने स्वयं अपनी बेटी को प्रारम्भिक शिक्षा के बाद कभी स्कूल नहीं भेजा।
आज की कहानी में बस यही तक आगे मनीष जैन और शिक्षांतर की इस दिलचस्प कहानी के दुसरे भाग में उदयपुर टाइम्स आपको स्वयं मनीष जैन, शिक्षांतर के छात्र और उनके अभिभावकों से रूबरू करवाएगी।
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