बचपन में हम 15th August - Independence Day का इंतज़ार जितनी उत्सुकता से झंडा फैराने के लिए करते थे, उतनी ही उत्सुकता से पतंग उड़ने के लिए भी। कई सारी पतंग - अलग रंग कि और अलग size की, और चीन का बना काँच वाला मांजा मानो जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता था। शर्ते पहले से तय हो जाती थी और तैयारी भी ऐसे कि मानो इज़्ज़त पर बन आयी हो।
फिर एक पक्का वाला दोस्त होता था जो पतंग को कन्नी देने के लिए दूर तक जाता था और में पतंग की डोर पकड़ कर मैं उलटी दिशा में भागता था ताकि वह जल्दी ही ऊपर चली जाए। जब पतंग का तुनका लगता और पतंग ऊपर जाती तो चेहरा खिल उठता था। किस तरह मांझे को खींचना है और कब ढील छोड़नी है, यह एक कला थी और आज भी है । कैसे पतंग से पतंग को पीछे लगा कर और उलझा कर काटना है, यह किसी डिग्री से कम नहीं था । कभी कभी अपनी भी कटती थी पर फिर पतंगें और भी थी।
फिर कटी पतंग को - "बो काटा" - कह कर लूटने का मज़ा ही कुछ और था। अक्सर पतंग फट जाती थी पर फिर भी फटी पतंग भी एक शान होती थी । हाथों में पेड़ की टहनियां लिए, उड़ती पतंगों पर टकटकी लगाए, मानो दुआ कर रहे हो कब कटेगी, पूरी सड़क नाप लगे थे।
शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने बचपन में पतंग नहीं उड़ाई होगी। और हममे से बहुत ऐसे होंगे जो आज भी उड़ाने के लिए इच्छुक होंगे। पर शायद इसका इतिहास बहुत काम लोग जानते होंगे। माना जाता है कि पतंग का आविष्कार ईसा पूर्व तीसरी सदी में चीन में हुआ था। दुनिया की पहली पतंग एक चीनी दार्शनिक "हुआंग थेग" ने बनाई थी। इस प्रकार पतंग का इतिहास लगभग 2000 - 2500 वर्ष पुराना है।
सुना है कि एक चीनी किसान अपनी टोपी को हवा में उड़ने से बचाने के लिए उसे एक रस्सी से बांधकर रखता था जिससे आगे चलकर पतंग का आविष्कार किया गया। कई इतिहासकारों के अनुसार भारत में पतंग चीनी यात्री F Hein और Huin Tsang लेकर आए थे। उस समय में पतंग टिशू पेपर और बांस की बनी होती थी।
रोचक बात यह भी है कि पतंगों को विश्व युद्ध में भी इस्तेमाल किया गया था और सन्देश पहुंचने के लिए भी।
पता नहीं कैसे समय बीत गया । आज समय के पीछे दौड़ रहे है, कल यही समय पीछे जा चूका होगा, बीत चूका होगा ।
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