बात चंद दिनों की है  | सहर में अरदास यह ख़ास है

बात चंद दिनों की है  | सहर में अरदास यह ख़ास है

नववर्ष की पहली शाम को हम अपने पाठको के लिए महेंद्र कोठारी की रचित दो कविताएँ पेश कर रहे है

 
बात चंद दिनों की है  | सहर में अरदास यह ख़ास है
महेंद्र कोठारी की दोनों कविताएं  'बात चंद दिनों की है' एवं 'सहर में अरदास यह ख़ास है' जहाँ बीते साल का मंज़र पेश करती है वहीँ नए साल में कुछ उम्मीदों की आस जगाती है।

नववर्ष की पहली शाम को हम अपने पाठको के लिए महेंद्र कोठारी की रचित दो कविताएँ पेश कर रहे है।  नववर्ष की हार्दिक बधाई के साथ। 

महेंद्र कोठारी की दोनों कविताएं  'बात चंद दिनों की है' एवं 'सहर में अरदास यह ख़ास है' जहाँ बीते साल का मंज़र पेश करती है वहीँ नए साल में कुछ उम्मीदों की आस जगाती है।   

1.      बात चंद दिनों की है

शहर वही, शहरी बदल गए,         
हर गली चौराहे पर सन्नाटा है         
समय पलटा, अकेले हम अकेले तुम हो।                      
चौपाल सुनी, सुने मंदिर व शिवालय           
जानते है, पहचानते है, 

फिर भी कुछ दिन से अजनबी से है            
बस एक ही आवाज है, फिर मिलेंगे 
एक बार निकल जाने दो मंजर इस कातिलाना को।          
दुआ ख़ैरियत की है, 

कैफ़ियत इतनी की फिलहाल थोड़ा दूर रहो,                      
 दूरी न दिल से कभी थी और न रहेगी 
फिलहाल हालातों से बनी दूरी है।           
वक्त वह भी था, वक्त यह भी है 
गुलाब फिर महकेंगे, 
रुबरु तुम से फिर होना है, 
बात चंद दिनों की है। 


2.        सहर में अरदास यह ख़ास है

रुखसत एक साल हुआ जाता है 
निशान अपने गहरे दुनिया जहाँ में छोड़ जाता है 
ठहरा समय, ठहरा कारवां दास्ताँ -ए -दर्द दिए जाता है  
स्याह रात, उजाले की इन्तजार में वक़्त जाया होता जाता है 
बीस बीस का क्रिकेट तो देखा पर यह बीस खौफ छोड़े जाता है 
दिन बदले गर्मी , बरसात अब शरद रात लिए जिए जाता है 
रुखसत एक साल हुआ जाता है 

रुखसत एक साल हुआ जाता है 
अदालत का नहीं था फरमान 
फिर भी नजरबन्द खुद अपने ही इंसान
बंद खिड़की, बंद सड़के खुला कोरोना हैवान  
इंसान दुबका मांद  में, खुले विचरते खग विहग आसमान  
ईद, होली, राखी , दिवाली गुजरे सब  बिना पहचान 
रुखसत एक साल हुआ जाता है 

रुखसत एक साल हुआ जाता है 
सहर में नई किरण का आगाज है 
तबस्सुम लिए उम्मीदों का एक सैलाब है 
फिर से रेल की सीटियों  का इन्तजार है 
भागते दौड़ते शहरी गुलज़ार फिर आम है 
रुखसत  हुआ वक्फा-ए-सितम मुझे यक़ीन है 
इस सहर में अरदास यह ख़ास है    
रुखसत एक साल हुआ जाता है 

महेंद्र कोठारी, अहमदाबाद।

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