उर्दू के मशहूर शायर 'मीर तक़ी मीर' ने अशआर लिखा था "पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है", इसी शायरी को वर्तमान में चल रहे चुनावी परिदृश्य में देखा जाए तो शायरी कुछ इस तरह बन जायेगी "पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है जाने न जाने सरकार ही न जाने, कोरोना तो सारा जाने है"
एक तरफ कोरोना हाहाकार मचा रहा है दूसरी तरफ चुनावी खुमार में डूबे नेता बड़ी बड़ी रैलियों और प्रचार में व्यस्त है। चाहे पश्चिम बंगाल हो, आसाम हो, तमिलनाडु हो या हमारे पड़ौसी जिले राजसमंद का परिदृश्य, सब जगह एक ही नज़ारा। बड़ी बड़ी रैलियां, रोड शो जिनमे बिना मास्क लगाए तथाकथित 'जनप्रिय नेता' और रैलियों में उमड़ पड़ने वाली नासमझ भीड़, रैलियों और जनसभाओं में उमड़ती उन्मादियों की भीड़ जहाँ न सोशल डिस्टेंसिंग की परवाह न मास्क की चिंता, बस अपना 'नेता' चुनाव जीत जाए। और इन सबके बीच लाचार, नाकाम और बेबस प्रशासन जिनकी हैसियत मूक दर्शक से ज़्यादा नहीं।
ऐसे में सवाल उठना वाजिब है की जहाँ कई शहरों में नाइट कर्फ्यू लगा हुआ है। कहीं वीकेंड लॉकडाउन लगा हुआ है। पुलिस प्रशासन भी एक्शन मोड़ में है। लेकिन जहाँ चुनाव वहां पुलिस प्रशासन कोविड गाइडलाइन की पालना करवाने में सर्वथा नाकाम क्यों है ? जहाँ जहाँ चुनाव होता है क्या वहां कोरोना नहीं होता है ? ऐसा लगता ही कोरोना भी शायद 'लोकतंत्र प्रेमी' है। चाहे बच्चो के स्कूल बंद हो जाये, होते रहे। लोगो को दुकाने कारोबार बंद हो जाये, होता रहे लेकिन चुनाव सम्पन्न हो जाये।
एक तरफ बढ़ते कोरोना के कारण फिर से पिछले साल की कड़वाहट से भरे लॉकडाउन के लौट आने की आहट साफ़ साफ़ दिखाई दे रही है लेकिन हम कहाँ मानने वाले है ? पुलिस प्रशासन बार मास्क की अपील करती है लेकिन हमारा 'मास्क प्रेम' सिर्फ पुलिस को देखकर ही उमड़ता है। चाहे संक्रमण कितना भी फैले हमें तो बर्थडे पार्टी, शादी समारोह, धार्मिक अनुष्ठान करना ही है। सोशल डिस्टेंसिंग जाए भाड़ में। शाम के समय और वीकेंड में बाहर घूमना भी है। मटरगश्ती भी जारी रखनी है। और जब दोष देने की बारी आये तो सारा दोष चुनावी रैलियों पर डालकर खुद को पाक साफ़ साबित करना है। और पुलिस सख्ती करे तो सोशल मिडिया पर पुलिस प्रशासन के खिलाफ ज़हर उगलना।
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