ना जाने कब इतने बड़े हो की अब उस आँचल की याद आने लगी..
जीवनदान वरदान ले के हम तो चैन से सो गए,
पर वो अंधकार मिटाने वाली, सुबह की चेष्टा में खुली आँखों से सपने देखना सीख गई।
वो निरूपद्रव कहलाती है, पर आंच जो आए उसकी संतान पर,
सारी जग नीति छोड़, वो पार्वती दुर्गा बन जाती है।
मुखौटों का डर नहीं उसे, वो तो हमारा चेहरा केवल ममता के आँचल से ढक जाती है।
मात्रप्रेम का किरदार ही नहीं,
वह गांधारी बन अपना पति धर्म भी निभाती है।
हाथ जलाकर वो अपना, थक हारकर,
मुझे प्यार का निवाला खिलाती है।
रहन सहन का ढंग बताया कर वो मुझे,
बस सवारे सो जाती है।
बिन पूछे वो सब कुछ दे जाती, पूछने पर वो न अपना गम बतलाती है,
महसूस कर लेती हूँ में, फिर भी, जब वो आँखों में पानी छुपाकर पूजा घर में बैठ जाती है।
वो केवल माँ है, जो गुस्से में भी रो जाती है।
खुद मेहनत कर कुछ बन जाऊँ, पर हर शाम आकार मैँ फिर तेरी गोध में सो जाऊँ,
बढ़े होने की ख्वाहिश में भी,मैं तुझसे दूर न हो जाऊँ।
कामना बस यही है, कि इस ममता के वृक्ष से ऐसे लिपटकर सो जाऊँ,
मैँ बच्चा बन जाऊँ, मैँ बच्चा बन जाऊँ।
By: Himanshi Bhatnagar
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