पतझड़ के विषाद के बाद प्रकृति में बासंती उल्लास के साथ ही मानव मन को सुकून देने के लिए होली जैसा रंगों का मनमौजी त्यौहार आता है । सामाजिक रीति रिवाजों के साथ आनन्दाभिव्यक्ति के लोकेात्सव होली पर यो तो सर्वत्रा मूल भावना एक ही होती हैं तथापि राजस्थान के दक्षिणी भाग में अरावली के अन्तिम छोर पर माही नदी के तट पर अवस्थित वागड़ में होली पर्व पर आयोजित होने वाली विविध विमोहिनी मनोरंजक परम्पराओं के कारण इस पर्व को कुछ भिन्नता ही प्राप्त हुई है, जिसके कारण वागड़ वाशिन्दे वर्ष भर इसके आगमन की बेसब्री से प्रतीक्षा करते प्रतीत होते हैं।
होली पर वागड़ के देहातों की इन परम्पराओं का दिग्दर्शन उतना ही रोचक है जितनी यहां की सांस्कृतिक विरासत और विलक्षणताएं । राज्य के अन्य भागों की प्रतिनिधि होली परम्पराओं यथा सांगोद के न्हाण, शेखावटी के गींदड़ व जैसलमेर की रम्मतों की तरह ही गैर नृत्य वागड़ की होली की प्रतिनिधि परम्परा है जिसको राज्यव्यापी ख्याति प्राप्त है। इस नृत्य का खासा महत्व इसलिये भी है क्योंकि इसी नृत्य में वागड़वासी माह भर तक होली पर्व की मौजमस्ती में नाचते रहते हैं।
राज्य के अधिकांश भागों में जहां इस फागुनी पर्व का स्वागत चंग के साथ किया जाता है वहीं वागड़ में इस पर्व का स्वागत गैर नृत्य द्वारा ढोल व कुण्डी (एक वाद्ययंत्रा) की थाप के साथ किया जाता है। माघ पूर्णिमा को होलिका दण्ड रोपण से ही वागड़ के गांवों व पालों में ढोल व कुण्डी की थाप पर गैर नृत्य प्रारम्भ हो जाते है जो सायंकाल से लेकर देर रात्रि तक चलते रहते है। इस दौरान गैर नृत्यरत वागड़वाशिन्दों के आल्हादित चेहरों पर फागुनी मस्ती देखने लायक होती है।
वागड़ में गैर नृत्य की परम्परा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही आकर्षक परम्परा है जो होली पश्चात् चैत्रा कृष्णा दशमी तक सोत्साह आयोजित होती है। यद्यपि इसे हर जाति वर्ग के लोगों द्वारा खेला जाता है तथापि वागड़ के पटेल व भील जाति के लोगों द्वारा खेली जाने वाली गैर राज्य भर में ख्यातनाम है। वागड़ के ठाकरड़ा, देवलपाल, गामड़ा, घाटोल आदि गांवों की गैर के अलावा बाॅंसवाड़ा शहर में जॅंवाई दूज की सामूहिक गैर व सुरवानिया कस्बे की रंगपंचमी का गैर व फागण नृत्य विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
बाॅंसवाड़ा जिला मुख्यालय पर आयोजित होने वाले सामूहिक गैर नृत्य में सारा बाॅंसवाड़ा जिला उमड़ पड़ता है और इस सामूहिक आयोजन में उमड़ने वाली जनमेदिनी को देख कर होली की इस प्रतिनिधि परम्परा की महत्ता का आंकलन स्वतः ही किया जा सकता है। वागड़ की गैर के बारे में तो कहा जाता है कि इस गैर में तो स्वयं देवी-देवता भी छद्म रूप में वागड़वाशिन्दों के साथ नृत्य करते है। वागड़ के पावागढ़ उपनाम से प्रसिद्ध देवी तीर्थ की नन्दनी माता देवी के बारे में कहा जाता हैं कि पहले ये देवी स्वयं नारी देह धारण कर पहाड़ी के आसपास के गांवों में होली पर गैर नृत्य खेलने के लिए आती थी परन्तु कुम्हार जाति के एक युवक द्वारा देवी के भेद को जान लेने के बाद देवी के दर्शन प्राप्त नहीं हो रहे है।
वागड़ के इस पारम्परिक गैर नृत्य में परम्परागत वेशभूषा घारण किये वनवासी युवक बच्चे व वृद्ध तलवार, धारिया, फरसा, धनुष बाण, लाठिया, गोफन व ढाल लेकर हेऽऽ....... ओेेऽऽऽऽ......... .होली है ऽऽऽऽ...। के जोशिले उद्घोष के साथ नाचते है व सधे हाथों से इन पारंपरिक अस्त्र को अपने नृत्य में शरीर के चारों ओर घुमाने का इस प्रकार से प्रदर्शन करते है कि तेज गति के साथ घूमने के बावजूद भी ये धारदार अस्त्रों से उनके शरीरों पर खरोंच तक नहीं आती है । उनके इस प्रदर्शन से दर्शक बेहद रोमांचित होते है और चिल्लाते हुए तालियां, ढोल आदि बजाकर उनका उत्साहवर्धन करते है ।
इस दौरान नृत्यरत दल कुछ इस तरह गाता है:-
‘खाकरी खेत ना कोदरा ने
बाकड़ी भेह नु दूद (दूध)
खाई ने डोहू टणकु थाज्यु टणकु थाज्यु......।’
हेऽऽ......ओऽऽऽ.....हा ऽऽऽऽ...।।।
गैर दल के ठीक मध्य में होता है वादक दल जो अपने वाद्ययंत्रों पर पूर्ण जोश से वादन करता है और इस दौरान नृत्यरत दल अपने डांडियों की खनक व हेऽऽ......ओऽऽऽ.....हा ऽऽऽऽ...की ध्वनि को और अधिक रस मय बनाते है। एक साथ 100 से 200 डांडियों के आमने सामने टकराने से उत्पन्न ध्वनि नर्तकों में यहां और अधिक जोश का संचार करती हैं वहीं दर्शकों को भी इस नृत्य से एक अनोखे आनन्द की प्राप्ति होती है और वे भी हेऽऽ......ओऽऽऽ.....हा ऽऽऽऽ... की ध्वनि के साथ नृत्यरत दल का साथ देते हैं।
गैर नृत्य यो तो विशिष्ट दलों द्वारा गांव के मध्य चौराहे पर खेला जाता है तथापि कुछ जगह गैर दल उन परिवारों के वहां भी गैर खेलने जाते है। जहां पर नवजात शिशु के जन्म पर ढूंढ उत्सव मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त गैर नृत्य के बारे में जन मान्यता है कि जिस दम्पत्ति को लम्बे समय से संतान सुख प्राप्त नहीं होता है उसके आंगन में गैर दल द्वारा नृत्य करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है। इस मायने कुछ गांवों में व्यक्तिगत रूप से भी गैर नृत्य दल को अपने घर पर आमंत्रित कर नृत्य करवाने की भी परंपरा है।
निश्चित ही पल-पल बदलाव के इस युग में भी वागड़ के गाॅंवों में गैर नृत्य की परम्परा के मूल रूप मेें ही प्रचलन को वागड़वाशिन्दों की अपनी संस्कृति के प्रति लगाव के रूप में देखा जा सकता हैं जो अनुकरणीय है।
आलेख: श्रीमती भावना शर्मा-प्राध्यापिका (हिन्दी), राउमावि भूपालपुरा उदयपुर
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