Written by: मुकेश योगी, उदयपुर, राजस्थान
पिछले कुछ दशकों में 'खेलो इंडिया' के तहत देश में खेलों को बढ़ावा देने के लिए कई स्तर पर कार्यक्रम और योजनाएं चलाई जा रही हैं। इसका परिणाम है कि गांव-गांव से खेल की प्रतिभाएं निखर कर सामने आ रही हैं। राष्ट्रमंडल खेलों से लेकर ओलंपिक तक विभिन्न स्पर्धाओं में युवा खिलाड़ी मैडल जीतकर देश का नाम रौशन कर रहे हैं। इसके लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक खिलाड़ियों को प्रैक्टिस के लिए मैदान और अन्य सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं। लेकिन राजस्थान के शाहपुरा स्थित चांदमा गांव में खेल का मैदान नहीं होने से वहां के नौजवान प्रैक्टिस की सुविधा से वंचित रह जा रहे हैं। इसकी वजह से कई युवा शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं ताकि उन्हें प्रैक्टिस के लिए मैदान उपलब्ध हो सके और वह भी विभिन्न खेल प्रतिस्पर्धाओं में अपनी खेल प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकें।
दरअसल, खेल न केवल शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार का साधन हैं, बल्कि युवाओं में आत्मविश्वास, नेतृत्व \कौशल और टीम वर्क के महत्व को भी उजागर करता है। दुर्भाग्यवश शाहपुरा स्थित इस गांव में खेल के मैदान की कमी को पूरा करने के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि, राजस्थान का यह जिला अपनी सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, लेकिन यहां के युवाओं के लिए अपने सपनों को साकार करने की राह कठिन हो गई है। इसका एक मुख्य कारण क्षेत्र में खेल के मैदानों की कमी है। इसके अभाव के कारण युवा मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर हो रहे हैं। उन्हें अपनी ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग करने के अवसर नहीं मिलते, जो उनकी भविष्य की सफलता के लिए आवश्यक है।
इस संबंध में गांव के 39 वर्षीय प्रेम शंकर योगी कहते हैं कि "बचपन से ही मेरा सपना था कि मैं एक अच्छा क्रिकेटर बनूं और राष्ट्रीय स्तर पर राज्य का प्रतिनिधित्व करूं। लेकिन गांव में खेल का मैदान नहीं होने के कारण मुझे कहीं भी प्रैक्टिस की सुविधा नहीं मिल सकी, जिससे मेरा सपना पूरा नहीं हो सका। मेरी दिली इच्छा है कि जो मेरे साथ हुआ वह मेरे बच्चों के साथ न हो, इसलिए मैं अपने गांव से शहर चला आया ताकि बच्चों को प्रैक्टिस की सुविधा मिल सके और मैं उन्हें एक अच्छा खिलाड़ी बना सकूं।" इसके अलावा भोलू राम गुर्जर, कालू राम नाथ, राजेंद्र नाथ, पप्पू नाथ, केदार खाती, हीरा लाल खाती, रामसिंह मीणा, बबलू और महादेव नाथ जैसे युवा भी हैं, जिनके प्रैक्टिस के लिए मैदान उपलब्ध नहीं होने के कारण सपने अधूरे रह गए और वह खेल छोड़कर रोज़गार के अन्य साधनों से जुड़ गए हैं। इसके बावजूद वो गांव में खेल के मैदान उपलब्ध कराने के लिए सक्रिय हैं और लगातार संबंधित विभाग एवं अधिकारियों से मिल रहे हैं।
गांव के 34 वर्षीय सुरेश बैरवा कहते हैं कि "मेरा शुरू से ही एक अच्छा हॉकी खिलाड़ी बनने और देश के लिए खेलने का सपना था, लेकिन गांव में मैदान की कमी के कारण कभी अभ्यास का अवसर ही नहीं मिल सका। घर की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि शहर जाकर अभ्यास नहीं सकता था। इसलिए हॉकी खेलने के अपने सपने को छोड़ना पड़ा। वहीं 24 वर्षीय राजू लाल गुज्जर कहते हैं कि "मुझे शुरू से ही हॉकी खेलने का बहुत शौक था। मैं अपनी पीढ़ी का एकमात्र लड़का था जिसने परंपरागत कामों से अलग हटकर खेलों में रुचि दिखाई थी। लेकिन गांव में खेल के मैदान की कमी के कारण मुझे हॉकी छोड़ कर कबड्डी चुनने पर मजबूर होना पड़ा। मैंने राज्य स्तर तक कबड्डी खेली है, हालांकि मेरी आज भी पहली पसंद हॉकी है। यदि गांव में मैदान की सुविधा होती तो मैं हॉकी में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिखाता।" राजू कहते हैं कि गांव में युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए यूथ क्लब भी गठित किया गया है। जहां उन्हें एक पहचान मिलती है। लेकिन जब प्रैक्टिस की कहीं भी सुविधा नहीं होगी तो ऐसे में यूथ क्लब का कोई भी औचित्य नहीं रह जाता है।
चांदमा गांव, शाहपुरा जिला से 32 किमी दूर अजमेर जिले की सीमा पर स्थित है। यह गांव फुलिया कलां उपमंडल के अंतर्गत आता है। यहां करीब 425 परिवार रहते हैं। यह सांगरी ग्राम पंचायत का सबसे बड़ा गांव है जो ग्राम पंचायत से 5 किमी की दूरी पर स्थित है। पंचायत में दर्ज आंकड़ों के अनुसार इस गांव में 18 वर्ष से अधिक उम्र के 1200 से अधिक पुरुष और महिलाएं रहते हैं। गांव में सभी जाति के लोगों की समान संख्या है जिनकी आजीविका का मुख्य साधन कृषि है। यहां शिक्षा की स्थिति यह है कि 2007 तक 8वीं कक्षा तक केवल एक सरकारी स्कूल था, जिसमें 300 से अधिक छात्र-छात्राएं अध्ययनरत थे। 2009 में नया शिक्षा कानून आने के बाद इसे दो स्कूलों में विभाजित कर दिया गया। दोनों विद्यालय काफी अच्छी स्थिति में हैं, बच्चे पढ़ने-लिखने में काफी रुचि रखते हैं, लेकिन खेल के मैदान की कमी के कारण उनमें खेल प्रतिभा निखरने से पहले ख़त्म हो जाती है। हालांकि कई बार ग्रामीणों ने उपमंडल से लेकर जिलाधिकारी के कार्यालय तक गांव में खेल का मैदान उपलब्ध कराने की गुहार लगाई है। जहां उन्हें आश्वासन दिया गया है कि उनके गांव में जल्द ही खेल का मैदान बनाने के लिए ज़मीन उपलब्ध कराई जाएगी।
वर्ष 2009 में, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ-साथ, बच्चों को विभिन्न खेलों और मनोरंजन में शामिल करने के लिए खेल के मैदानों को अनिवार्य बनाया गया क्योंकि इससे उन्हें आवश्यक जीवन कौशल, आदतें और दृष्टिकोण विकसित करने में मदद मिलती है। इस अधिनियम के लागू होने के बाद कई बच्चों को खेल के मैदानों से लाभ हुआ, लेकिन अधिनियम के लागू होने के 15 साल बाद भी जमीनी स्थिति पर नजर डालें तो आज भी हजारों बच्चे खेल की सुविधा से वंचित हैं। इसका मुख्य कारण स्कूलों में खेल के मैदान की कमी का होना है। इस संबंध में गांव के युवा पप्पू नाथ बताते हैं कि 'वर्ष 2010 के बाद स्कूली बच्चों और युवाओं ने कई बार स्कूल में खेल मैदान की मांग की, लेकिन बार-बार उन्हें केवल आश्वासन ही मिला है। आज भी स्कूली बच्चे खेल के मैदान का सपना देख रहे हैं। जबकि स्कूल के निर्माण के साथ ही खेल के मैदान उपलब्ध करना भी अनिवार्य होता है।' वह बताते हैं कि पहले स्कूल के पीछे खाली पड़े प्लाट पर बच्चे खेलते थे। लेकिन उसमें भी निर्माण कार्य हो जाने के बाद अब बच्चों के खेलने के लिए कोई मैदान नहीं बचा है। पप्पू नाथ के अनुसार शिक्षा के साथ-साथ खेल भी बच्चों और युवाओं के सर्वांगीण विकास का एक अहम हिस्सा है। लेकिन उन्हें जब यह सुविधा नहीं मिलती तो इससे उनकी विकास प्रक्रिया रुक जाती है। इस समस्या के समाधान के लिए प्रत्येक स्तर पर पर्याप्त कदम उठाने की ज़रूरत हैं। कुछ स्थानीय संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता लगातार इस मुद्दे पर अपनी आवाज उठा रहे हैं।
वास्तव में, खेल का मैदान सिर्फ मैदान नहीं होता है बल्कि यह एक ऐसा मंच होता है जहां प्रतिभाएं हकीकत का रूप लेती हैं। लेकिन इसकी कमी ने चांदमा गांव के युवाओं की क्षमता को सीमित कर दिया है। जिस पर सभी को ध्यान देने की ज़रूरत है ताकि उन्हें भी खेलने का भरपूर अवसर मिले और वह भी एक उज्ज्वल भविष्य की ओर कदम बढ़ा सकें। इससे न केवल उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बेहतर होगा बल्कि वे भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी गांव का नाम रोशन कर सकते हैं। ऐसे में ज़रूरत है इस महत्वपूर्ण समस्या के समाधान के लिए सभी को मिलकर एक साथ आगे आने की। (चरखा फीचर्स)
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