बालक के मन जैसा बनें : नीलांजनाश्री


बालक के मन जैसा बनें : नीलांजनाश्री

साध्वी नीलांजना श्रीजी ने कहा कि बालक का मन दर्पण के समान होता है। वह जैसा अंदर वैसा ही बाहर होता है। बालक के मन जैसा बनने का प्रयास करना चाहिए। वे गुरुवार को वासुपूज्य स्थित दादावाड़ी में नियमित चातुर्मासिक प्रवचन सभा को संबोधित कर रही थी। उन्होंने कहा कि आज के युग में आदमी बाहर शेर बनकर रहता है घर में घुसते ही देवी जी के सामने नौकर की तरह लग जाता है। बालक को कहो, वो कभी काम नही करेगा। जो काम उसको कहा, वो खुद करो, बालक देखा देखी अपने आप करेगा। आज पाश्चात्य युग का इतना प्रभाव है कि संयुक्त परिवार में कोई रहना ही नही चाहता। घर में दादा दादी को देखकर बच्चा अपने आप मंदिर में जाकर पूजा करने लगता है।

 
बालक के मन जैसा बनें : नीलांजनाश्री

साध्वी नीलांजना श्रीजी ने कहा कि बालक का मन दर्पण के समान होता है। वह जैसा अंदर वैसा ही बाहर होता है। बालक के मन जैसा बनने का प्रयास करना चाहिए। वे गुरुवार को वासुपूज्य स्थित दादावाड़ी में नियमित चातुर्मासिक प्रवचन सभा को संबोधित कर रही थी। उन्होंने कहा कि आज के युग में आदमी बाहर शेर बनकर रहता है घर में घुसते ही देवी जी के सामने नौकर की तरह लग जाता है। बालक को कहो, वो कभी काम नही करेगा। जो काम उसको कहा, वो खुद करो, बालक देखा देखी अपने आप करेगा। आज पाश्चात्य युग का इतना प्रभाव है कि संयुक्त परिवार में कोई रहना ही नही चाहता। घर में दादा दादी को देखकर बच्चा अपने आप मंदिर में जाकर पूजा करने लगता है।

उन्होंने कहा कि स्वर्ग में जाना सब चाहते हैं भले ही उसके समान कोई काम नही किया हो। परमात्मा ने श्रावक के लिए सामायिक, चतुर्विंशती, बंधन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान करन आवश्यक बताया है। जिनवाणी को सुनना चाहिए। अपने कषायों का नाश होगा और पुण्य का उदय होगा। जिनवाणी में डूबना होगा। किनारे खड़े रहकर कोई तैरना नही सीख सकता उसको पानी के अंदर उतरना होगा।

उपासरे किसी साधु साध्वी के लिए नही होते, ये श्रावक श्राविकाओं के लिए ही होते हैं। पूर्व में उपासरे का नाम पौषधशाला रखते थे ताकि श्रावक वहां आकर पौषध कर सके। साधु भगवंत विहार करते हुए आते हैं तो पौषधशाला में रुकते हैं।

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