अक्रिय होना ही वास्तविक तप हैं- उदयमुनि
प्रज्ञामहर्षी उदयमुनि ने वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संस्थान, सेक्टर 4, धर्मसभा को संबोधित करते हुये कहा कि आत्मशुद्वि का मूल है कि पूर्वोपार्जित कर्म के निमित्त में जो अनुकूल या प्रतिकूल व्यक्ति वस्तु परिस्थिति आए तब कोई क्रिया प्रतिक्रिया नहीं करें।
प्रज्ञामहर्षी उदयमुनि ने वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संस्थान, सेक्टर 4, धर्मसभा को संबोधित करते हुये कहा कि आत्मशुद्वि का मूल है कि पूर्वोपार्जित कर्म के निमित्त में जो अनुकूल या प्रतिकूल व्यक्ति वस्तु परिस्थिति आए तब कोई क्रिया प्रतिक्रिया नहीं करें।
शुभ या अशुभ भाव न हों। राग या द्वेष, रति या अरति न हों। हर्ष या शोक न हो। आसक्तिया वितृष्णान न हो। आकुलता व्याकुलता न हो। संकल्प विकल्पन हो। तब आत्मा स्व स्वभाव में होता है। शुद्व स्वरूप प्रकट होता है। शुभ या अशुभ क्रिया से संसार परिभ्रमण हैं। शुद्व स्वभाव में स्थिति मुक्ति हैं।
अर्जुनमाली ऐसे ही मुक्त हो गए। क्रोधाविष्ट यज्ञाविष्ट होकर उन्होंने छः माह में 1141 पुरूष स्त्रियों को मार डाला। भगवान महावीर से बोध पाते ही अन्तःकरण से साक्षात् तीर्थकर के समक्ष उसका पश्चात् कर वह पाप धो डाला। फिर संयम ले राजगृही के चौराहे चौराहे पर ध्यानस्थ होकर तीव्रतम असातावेदनयी कर्म भी निर्जरित हुआ।
किससे? नगरी के लोग गालियां देते जाते मारत जाते थे। दुष्ट पापी हत्यारा है। वे तो आत्म ध्यान में लीन रहते । कोई क्रिया प्रतिक्रिया क्रोधादि भाव लेशमात्र भी नहीं करते करतेकेवल ज्ञान लेकर। मोक्ष चले गए। मात्र अक्रिय साधना से।
वे जाति और कर्म से माली थे। फूल-फूल मालाएं बेचते थे। हत्यारे बन गए। महावीर के धर्म दर्शन में ऊंच-नीच जाति का भेदभाव नहीं था। धन निर्धन का भी भेद नही था। उनका सिद्वान्त बना घृणा पाप से नही पापी से। भगवान महावीर का आज्ञानुसार साधना करने से ऐसा पापी भी तिर जाता हैं।
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