कानून से ज्यादा जरूरी है सोच का बदलना
बाल यौन उत्पीड़न संरक्षण कानून यानी पॉक्सो में संशोधन संबंधी अध्यादेश को केंद्रीय मंत्रिमंडल और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। अब बारह साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वालों को मौत की सजा का प्रावधान किया जा सकेगा। प्रश्न है कि अभी तक पाॅक्सो कानून ही पूरी तरह से सख्ती से जमीन पर नहीं उतरा है तो उसे और कड़ा करना क्यों जरूरी है? हमारे देश में कानून बनाना आसान है लेकिन उन कानूनों की क्रियान्विति समुचित ढंग से न होना, एक बड़ी विसंगति है। क्या कारण है कि पाॅक्सों कानून बनने के बावजूद एवं उसकी कठोर कानूनी स्थितियों के होने पर भी नाबालिग बच्चियों से बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही है। पिछले दिनों उन्नाव, कठुआ और सूरत आदि में नाबालिग बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार की घटनाएं सामने आईं, तो देश भर से मांग उठी कि पॉक्सो कानून में बदलाव कर नाबालिगों के साथ बलात्कार मामले में फांसी का प्रावधान किया जाना चाहिए। क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर देने से इस अपराध को समाप्त किया जा सकेगा? सोच एवं व्यवस्था में बदलाव लाये बिना फांसी की सजा का प्राव
बाल यौन उत्पीड़न संरक्षण कानून यानी पॉक्सो में संशोधन संबंधी अध्यादेश को केंद्रीय मंत्रिमंडल और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। अब बारह साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वालों को मौत की सजा का प्रावधान किया जा सकेगा। प्रश्न है कि अभी तक पाॅक्सो कानून ही पूरी तरह से सख्ती से जमीन पर नहीं उतरा है तो उसे और कड़ा करना क्यों जरूरी है? हमारे देश में कानून बनाना आसान है लेकिन उन कानूनों की क्रियान्विति समुचित ढंग से न होना, एक बड़ी विसंगति है। क्या कारण है कि पाॅक्सों कानून बनने के बावजूद एवं उसकी कठोर कानूनी स्थितियों के होने पर भी नाबालिग बच्चियों से बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही है। पिछले दिनों उन्नाव, कठुआ और सूरत आदि में नाबालिग बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार की घटनाएं सामने आईं, तो देश भर से मांग उठी कि पॉक्सो कानून में बदलाव कर नाबालिगों के साथ बलात्कार मामले में फांसी का प्रावधान किया जाना चाहिए। क्या फांसी की सजा का प्रावधान कर देने से इस अपराध को समाप्त किया जा सकेगा? सोच एवं व्यवस्था में बदलाव लाये बिना फांसी की सजा का प्रावधान कारगर नहीं होगा।
बाल यौन उत्पीड़न एवं शोषण पर प्रभावी नियंत्रण के लिये जरूरत इस बात की भी है कि ऐसे मामलों की जांच और निपटारा शीघ्र होना चाहिए। इसके लिये सरकार ने पॉक्सो कानून में बदलाव संबंधी अध्यादेश तैयार किया, जिसमें पहले से तय न्यूनतम सजाओं को बढ़ा कर मौत की सजा तक कर दिया गया है। ऐसे मामलों के निपटारे के लिए त्वरित अदालतों का गठन होगा और जांच को अनिवार्य रूप से दो महीने और अपील को छह महीने में निपटाना होगा। निश्चित ही ऐसे और इससे भी सख्त प्रावधान नाबालिगों के बलात्कार एवं पीड़िता के हत्या के मामलों में किये जाने चाहिए, इस दिशा में सरकार की सक्रियता स्वागतयोग्य है।
बच्चियों के साथ बलात्कार एवं दुष्कर्म कोरे दंडनीय अपराध ही नहीं होते, वे समाज के लिए पीड़ादायक भी होते हैं। वे राष्ट्र के लिए लज्जा और गहन व्यथा का विषय भी होते हैं। कानून का कठोर होना अच्छी बात है। कानून का भय होना और भी अच्छी बात है, लेकिन समाज का उदासीन एवं मूकदर्शक हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। कोई भी समाज-व्यवस्था या राज्य व्यवस्था कानून के बल पर अपराधमुक्त नहीं हो सकती है। एक आदर्श समाज व्यवस्था के लिये हर व्यक्ति का जागरूक, संस्कारी एवं चेतनाशील होना जरूरी है। संस्कारी मनुष्य के निर्माण में राजव्यवस्था की भूमिका नगण्य होती है, यही कारण है कि कड़े कानूनों की आवश्यकता पड़ती है। जघन्य अपराधों की बढ़ोतरी कोई भी सरकार बर्दाश्त नहीं करती, लेकिन अपराधवृद्धि के तमाम कारणों पर नियंत्रण के लिये सरकार की जिम्मेदारी ज्यादा जरूरी है। इसलिए अपने नागरिकों को उच्चतर जीवन आदर्श देना सरकार की ही जिम्मेदारी है, लेकिन सरकारें अपनी इस जिम्मेदारी से भागती रही है।
पॉक्सो कानून कोे सख्ती से लागू किये जाने की ज्यादा आवश्यकता है और उससे भी ज्यादा जरूरत इस बात की है कि इन कानूनों का दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ और ज्यादा सख्त कार्यवाही की जाए। कुल मिलाकर अब समय आ गया है कि हम अपनी सोच बदलें। ऐसे मामलों की शिकायत दर्ज करने और जांचों आदि में जब तक प्रशासन का रवैया जाति, धर्म, समुदाय आदि के पूर्वाग्रहों और रसूखदार लोगों के प्रभाव से मुक्त नहीं होगा, या इस तरह के कानूनों को आधार बनाकर अपने प्रतिद्वंद्वियों को दबाने, धन एठने एवं बदला लेने की भावना से ऐसे फर्जी मामले बनाने की घटनाएं बढ़ती रहेगी, तब तक बलात्कार जैसी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए मौत की सजा का प्रावधान पर्याप्त नहीं होगा।
निर्भया कांड के बाद बलात्कार मामलों में सजा के कड़े प्रावधान की मांग उठी थी। तब कड़ा पॉक्सो कानून बना। उसमें भी ताउम्र या मौत तक कारावास का प्रावधान है। पर उसका कोई असर नजर नहीं आया है। उसके बाद बलात्कार और पीड़िता की हत्या की दर लगातार बढ़ी है। कुछ लोगों की यह सोच है कि सख्त कानून के बन जाने से बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने वालों के मन में कुछ भय पैदा होगा और ऐसे अपराधों की दर में कमी आएगी, ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि यह विसंगतिपूर्ण सोच है। कई विशेषज्ञ मौत की सजा को बलात्कार जैसी प्रवृत्ति पर काबू पाने के लिए पर्याप्त नहीं मानते। उनका मानना है कि चूंकि ऐसे ज्यादातर मामलों में दोषी आसपास के लोग होते हैं, इसलिए उनकी शिकायतों की दर कम हो सकती है। पहले ही ऐसे अपराधों में सजा की दर बहुत कम है। इसकी बड़ी वजह मामलों की निष्पक्ष जांच न हो पाना, गवाहों को डरा-धमका या बरगला कर बयान बदलने के लिए तैयार कर लिया जाना है। यह अकारण नहीं है कि जिन मामलों में रसूख वाले लोग आरोपी होते हैं, उनमें सजा की दर लगभग न के बराबर है। उन्नाव और कठुआ मामले में भी इस तरह के स्वर सुनने को मिल रहे हैं। जब कभी हमारे अधिकारों का शोषण होता है, निर्धारित नीतियों के उल्लंघन से अन्याय होता है तो हम अदालत तक पहुंच जाते हैं। परन्तु यदि अदालत भी सही समय पर सही न्याय और अधिकार न दे सके तो फिर हम कहां जाएं? अनेक खौफनाक प्रश्न एवं आंकडे़ ऐसे पीड़ित लोगों से जुड़े हैं, इन हालातों में जिन्दगी इतनी सहम जाती है कि कानून पर से ही भरोसा डगमगाने लगता है।
मूलभूत प्रश्न है कि समाज एवं शासन व्यवस्था को नियोजित करने के लिये कानून का सहारा ही क्यों लेना पड़ रहा हैं ? कानूनमुक्त शासन व्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। भारत का मन कभी भी हिंसक नहीं रहा, लेकिन राजनीतिक स्वार्थों के लिये यहां हिंसा को जबरन रोपा जाता रहा है। हमें उन धारणाओं, मान्यताओं एवं स्वार्थी-संकीर्ण सोच को बदलना होगा ताकि इनको आधार बनाकर औरों के सन्दर्भ में गलतफहमियां, संदेह एवं आशंका की दीवारें इतनी ऊंची खड़ी कर दी हैं कि स्पष्टीकरण के साथ उन्हें मिटाकर सच तक पहुंचने के सारे रास्त ही बन्द हो गये हैं। ऐसी स्थितियों में कैसे कानून को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है? कानून से ज्यादा जरूरी है व्यक्ति एवं समाज चेतना को जगाने की। समाज के किसी भी हिस्से में कहीं कुछ जीवनमूल्यों के विरुद्ध होता है तो हमें यह सोचकर चुप नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। इसलिये बुराइयों से पलायन नहीं, उनका परिष्कार करना जरूरी हैं। ऐसा कहकर अपने दायित्व और कर्तव्य को विराम न दें कि सत्ता, समाज और साधना में तो आजकल यूं ही चलता है। चिनगारी को छोटा समझ कर दावानल की संभावना को नकार देने वाला जीवन कभी सुरक्षा नहीं पा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने एक पहल की है कि हम अपनी सोच बदलें। यह जिम्मेदारी केवल अदालतों की नहीं है, पूरी सामाजिक व्यवस्था की है। समाज एवं राष्ट्र की व्यवस्थाओं में कानूनों के माध्यम से सुधार की बजाय व्यक्ति-सुधार एवं समाज-सुधार को बल दिया जाना चाहिए। व्यक्ति की सोच को बदले बिना अपराधों पर नियंत्रण संभव नहीं है। भारतीय समाज का सांस्कृतिक चैतन्य जागृत करें। सामाजिक मर्यादाओं का भय हो, तभी कानून का भय भी होगा।
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