चार बार चुनाव लड़े, चारों बार विजयी रहे और चारों बार मुख्यमंत्री बने
आधुनिक राजस्थान के निर्माता कहे जाने वाले व्यक्तित्व के धनी मोहनलाल सुखाडिय़ा एकमात्र ऐसे विधायक थे जिन्होंने चार बार विधानसभा का चुनाव लड़ा। चारों ही बार जीत दर्ज की और चारों बार मुख्यमंत्री बनकर विकास की डोर में सर्वाधिक योगदान दिया। यही कारण है कि आज भी वे लोगों की जबान पर आधुनिक राजस्थान के निर्माता के रूप में प्रसिद्धि लिए है।
आधुनिक राजस्थान के निर्माता कहे जाने वाले व्यक्तित्व के धनी मोहनलाल सुखाडिय़ा एकमात्र ऐसे विधायक थे जिन्होंने चार बार विधानसभा का चुनाव लड़ा। चारों ही बार जीत दर्ज की और चारों बार मुख्यमंत्री बनकर विकास की डोर में सर्वाधिक योगदान दिया। यही कारण है कि आज भी वे लोगों की जबान पर आधुनिक राजस्थान के निर्माता के रूप में प्रसिद्धि लिए है।
सुखाडिय़ा ने आजादी के बाद पहले विधानसभा चुनाव सन्ï 1952 से लेकर 1957, 1962 एवं 1967 के चुनाव में उदयपुर विधानसभा (सामान्य) क्षेत्र से कांग्रेस के टिकिट पर चुनाव लड़ा और चारों बार जीत दर्ज की। सन्ï 1952 में निर्दलीय उम्मीदवार मनोहर सिंह को 5 हजार 453, 1957 में जनसंघ के मदनलाल को 10 हजार 385 एवं 1962 व 1967 में जनसंघ के भानुकुमार शास्त्री को क्रमश: 11 हजार 422 एवं 3 हजार 431 मतों से शिकस्त दी। सुखाडिय़ा राजस्थान से एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री थे जिन्होंने सर्वाधिक लगातार चार बार राज्य का मुख्यमंत्री के रूप में नेतृत्व किया। सर्वप्रथम वे 13 नवम्बर 1954 को राज्य के मुख्यमंत्री बने। तत्पश्चात उन्होंने 11 अप्रेल 1957, 12 मार्च 1962 एवं 26 अप्रेल 1967 को क्रमश: दूसरी, तीसरी और चौथी बार राज्य की बागडोर संभाली।
यहां यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने 6 नवम्बर 1954 को कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के चुनाव में जयनारायण व्यास को पराजित कर मात्र 38 वर्ष की आयु में 13 नवम्बर 1954 को पहली बार राजस्थान की राज गद्दी सुशोभित की। चौथे आम चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होने के कारण 13 मार्च 1967 से 26 अप्रेल 1967 तक राज्य में पहली बार राष्टï्रपति शासन रहा फलस्वरूप इस समय विशेष तक विधानसभा निलम्बित रही।
इस प्रकार सुखाडिय़ा 1967 के 44 दिन राष्ट्रपति शासनकाल को छोडक़र 13 नवम्बर 1954 से लेकर 8 जुलाई 1971 तक सत्रह वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे। वे एक ऐसे मुख्यमंत्री थे जिन्होंने सर्वाधिक चार बार राज्य का नेतृत्व किया। इसके बाद 8 जुलाई 1971 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्देश पर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया।
त्यागपत्र देने के बाद लगभग छह माह तक उनका राजनीतिक दृष्टि से कोई खास हलचल नहीं रही। उनको इंदिराजी ने राजनीतिक संन्यास के रूप में कर्नाटक का राज्यपाल बनाकर भेज दिया। इसके बाद वे राज्यपाल के रूप में अपनी छवि को अच्छे रूप में जगजाहिर करते रहे। सर्वप्रथम 10 जनवरी 1972 को पहली बार वे कर्नाटक के राज्यपाल बनाए गए जो 9 जनवरी 1976 वहां रहे।
उसके बाद 10 जनवरी 1976 से 15 जून 1976 तक वे आन्ध्रप्रदेश के राज्यपाल रहे और अंत में 16 जून 1976 से 9 अप्रेल 1977 तक तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में उन्होंने अपनी सेवाएं दी। इसके पश्चात वे पुन: राजनीति में सक्रिय हुए और जनवरी 1980 में उदयपुर क्षेत्र से उन्होंने सातवीं लोकसभा के चुनाव में कॉग्रेस के प्रत्याशी बने और विजयी रहे। उनके सम्मुख जनता पार्टी के भानुकुमार शास्त्री प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़े हुए किन्तु 51 हजार 897 मतों से शास्त्री को पराजय का मुंह देखना पड़ा।
21 दिसम्बर 1981 को उनको केन्द्र सरकार ने बिक्री कर के बजाय अन्य वैकल्पिक कर लगाने के लिए नियुक्त समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर कैबिनेट मंत्री के समकक्ष पद देकर सम्मानित किया। दो फरवरी 1982 को प्रात: बीकानेर में ह्रदयगति रूक जाने से उनका देहावसान हुआ। भारत सरकार के संचार मंत्रालय ने 2 फरवरी 1988 को उनकी स्मृति में 60 पैसे का डाक टिकिट जारी किया।
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