शिक्षक दिवस की वर्तमान प्रासंगिकता
कहाॅ गया वह सम्मान जो एक शिक्षक को मिलता था इसके लिए कौन जिम्मेदार है? समाज, वैश्विक बदलाव, विद्यार्थियों के भौतिकवादी वैश्विक ज्ञान विस्फोट लोलुप्ता या शिक्षक स्वयं? क्या जब राधाकृष्णं में इच्छा जतायी थी की मेरा जन्म दिवस शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाये तो उन्होंने आज के परिदर्शय को सोचा होगा- जब शिक्षक एक मजाक का विषय बन चुका है। जहाँ विद्यार्थियों के मन में उनके लिए सम्मान नहीं रहा, वह स्वयं भी अपनी सामाजिक स्थिति से खुश नहीं है।
आज 5 सितम्बर, 2017 को देश भर में शिक्षक दिवस के रूप में भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री राधाकृष्णं के जन्म दिवस के उपलक्ष में मनाया जा रहा है।
शिक्षक कौन? शिक्षक की अवधारणा वेदिक काल से निरंतर परिवर्तित होते हुये वर्तमान के अध्यापक तक पहुँची है। जहाँ वैदिक काल में गुरू की महिमा मंडन समाज में उच्चतम होती थी, गुरू के मुख से निकला हर अक्षर छात्र के लिए हर स्थिति में स्वीकार्य था। गुरू भी अपनी गरिमा का निर्वाह पूर्ण तन्मयता से करता था। गुरू भौतिकवादिता के मायाजाल से मुक्त अपनी एक अलग पहचान लिए हुआ था। धीरे-धीरे सामाजिक बदलाव होते चले गये और गुरू, आध्यात्म के उच्चतम स्तर से हट कर समाज की मुख्य धारा का भाग बन गया। अब उसे अध्यापक की संज्ञा दी जाने लगी वह भी भौतिक सुख सुविधा से अपने आप को वंछित नहीं रख पाया और उसके अपने तरीकों में बहुत बदलाव आया। इसी बीच अलग-अलग दर्शन ने अपनी व्याख्या में गुरू/शिक्षक की अपनी संकल्पना प्रस्तुत की जहाँ वेदान्त दर्शन गुरू की महिमा ईश्वर तुल्य करता है, वहाँ आदर्शवाद ने कुछ इस महिमा मंडन को अपनाते हुऐ गुरू को समाज में सर्वोच्च स्थान बताया।
प्रकृतिवादी अवधारणा ने इसी गुरू/शिक्षक का स्थान प्रकृति को दे दिया और इस बात को ठोस दलील दी कि प्रकृति ही सर्वोत्तम शिक्षक है। फिर प्रयोजनावाद ने इसी शिक्षक का स्वरूप भौतिकवादी अवसरों और प्रायोगिक उपादयता से जोड़ते हुये शिक्षक के वर्तमान स्वरूप तक पहुँचाया जहाँ एक शिक्षक का स्थान मार्गदर्शक और सहायक के रूप में देखा जाता है।
आज वर्तमान परिदृश्य में शिक्षक अपना सामाजिक सम्मान और उच्च स्थान लगभग खो चुका है। शिक्षक होने के पैमाने बदल चुके है, आज के समाज में शिक्षक को ना तो वह सम्मान हासिल है और ना ही उसमें स्वयं आत्म गौरव का भाव रहा है।
आखिर इस अवनयन का जिम्मेदार कौन है? मुझे आज भी याद है जब हम विद्यालय में अध्ययनरत थे, तो शिक्षक दिवस हमारे लिए एक आनन्द और उत्साह के मिले झुले भाव लेकर आता था। वह दिन जब हमारे बड़े सहपाठी हमें पढ़ाते और विद्यालय के शिक्षकों को उस दिन विद्यालय में शिक्षण कार्य से मुक्त रखा जाता, उस समय भी हम विद्यार्थियों के अंतर्मन में शिक्षक होने की एक गर्व की अनुभूति होती, परन्तु आज जब मैं वर्तमान के विद्यालयों की तरफ दृष्टि डालती हूँ तो वह, अनुभूती, वह उत्साह, वह आनन्द मुझे आज के विद्याथियों के भाव में नहीं दिखता। वह महज एक औपचारिकता के रूप में विद्यालय में शिक्षक दिवस के आयोजन में भाग ले लेता है।
कहाॅ गया वह सम्मान जो एक शिक्षक को मिलता था इसके लिए कौन जिम्मेदार है? समाज, वैश्विक बदलाव, विद्यार्थियों के भौतिकवादी वैश्विक ज्ञान विस्फोट लोलुप्ता या शिक्षक स्वयं? क्या जब राधाकृष्णं में इच्छा जतायी थी की मेरा जन्म दिवस शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाये तो उन्होंने आज के परिदर्शय को सोचा होगा- जब शिक्षक एक मजाक का विषय बन चुका है। जहाँ विद्यार्थियों के मन में उनके लिए सम्मान नहीं रहा, वह स्वयं भी अपनी सामाजिक स्थिति से खुश नहीं है।
आइये आज हम शिक्षक के समाज में पुर्नसम्मान हेतु वचनबद्ध हो। जरूरत है हमें अपने बच्चों के मन में, इन शिक्षकों की सम्मान स्थापना हेतु उचित पोषण की। शिक्षकों को भी स्वयं अपने उस खोये हुए सम्मान स्थापना हेतु प्रयासरत होना होगा, उन्हें अपने कार्य में जवाब देही बढ़ानी होगी, ईमानदारी, समय पाबन्दी और अपने कत्र्तव्य के प्रति प्रतिबद्धता अपने अस्तित्व को भौतिकवादी पाया जाल से मुक्त करते हुये अपने कार्य के प्रति ववनबद्ध होना होगा। तभी आज के इस शिक्षक दिवस की प्रासंगिकता पुनः स्थापित हो सकेगी।
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