मुद्दों की जगह मतों की राजनीति के चुनाव

मुद्दों की जगह मतों की राजनीति के चुनाव

असल में भारतीय लोकतंत्र का बड़ा सत्य यह है कि यहां के अनपढ़ एवं भोलेभाले मतदाता को बेवकूफ एवं नासमझ समझने की भूल सभी राजनीतिक दल करते रहे हैं। पिछले कुछ चुनावों में मतदाता के मुखर होने की घटनाओं के बावजूद राजनीतिक दल उन्हें ठगने एवं लुभाने की भूल करते हैं और फिर मात खाते हैं। क्योंकि मतदाता अपने मन की बात मतदान केंद्रों पर जाकर इस प्रकार व्यक्त करने लगा है कि राजनीतिज्ञों के होश उड़ जाते हैं। ये

 

मुद्दों की जगह मतों की राजनीति के चुनाव

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे, राजस्थान और तेलंगाना में एक ही दिन 7 दिसंबर को मत डाले जाएंगे। जबकि मध्य प्रदेश और मिजोरम में 28 नवंबर को मतदान होगा। छत्तीसगढ़ में चुनाव दो चरणों में होंगे, पांचों राज्यों के चुनाव परिणाम 11 दिसंबर को आएंगे। गौरतलब है कि इन 5 राज्यों के चुनाव काफी अहम हैं, क्योंकि इसके बाद सीधे लोकसभा चुनाव ही होने हैं, इसलिये इन विधानसभा चुनावों को आम चुनाव 2019 के सेमीफाइनल की तरह देखा जा रहा है।

सच्चाई यही है कि इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के आंकड़े एवं परिणाम ही बतायेंगे कि आगामी लोकसभा का क्या परिदृश्य बनेगा। तभी पता चलेगा कि कौन से मुद्दे काम कर रहे हैं और कौन से नहीं। वैसे ये चुनाव मुद्देविहिन है। हालांकि कहा यह जाता है कि विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में मुद्दे अलग-अलग होते हैं। यह काफी हद तक सही है मगर यह भी सही है कि विधानसभा के नतीजे से लोगों के मूड का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है।

राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़-इन तीन राज्यों में भाजपा अपने बूते पर ही अपने पिछले शासन के कार्यकाल के भरोसे मतदाताओं का विश्वास हासिल करने की लड़ाई लड़ रही है। इन तीनों ही राज्यों में उसकी मुख्य प्रतिद्धंद्धी पार्टी कांग्रेस है। कांग्रेस पार्टी के कर्णधारों को भरोसा है कि सत्ता के विरुद्ध उपजे रोष का लाभ उन्हें मिलना निश्चित है।

देखना यह है कि सत्ता के विरुद्ध उपजे रोष का असर कितना होता है। प्रश्न तो यह भी है कि इन पांचों ही राज्यों में वास्तविक मुद्दे नदारद है, कोरी सत्ता हासिल करने की होड़ लगी है। अतः चुनावों में अन्तिम समय तक हार-जीत के बारे में कुछ भी निश्चिन्त होकर नहीं कहा जा सकता। किन्तु यह सोचना मूर्खता होगी कि भारत के मतदाता इस चुनावी गणित को नहीं समझते हैं अथवा राजनीतिक पार्टियां ऐसी चैसर बिछा कर उनको बेवकूफ बना सकती हैं। वे गफलत में तभी आते हैं जब सत्ता और विपक्ष दोनों का ही एजेंडा उनके दिलों में उठने वाले सवालों से दूरी बनाए रखता है। अक्सर इस तरह मतदाता को ठगने एवं लुभाने के ही प्रयास होते हैं, जो एक स्वस्थ लोकतंत्र की बड़ी विसंगति है।

लोकतंत्र को शुद्ध सांसें देने की जरूरत है। लेकिन यह साहस न सत्ताधारी पार्टियों में दिखाई दे रहा है और न विपक्षी पार्टियों में। यहां मेरा बिना विचारों के दर्शन और शब्दों का जाल बुने यही कहना है कि लोकतंत्र के इस सुन्दर नाजुक वृक्ष को नैतिकता के पानी और ईमानदारी की आॅक्सीजन चाहिए, जिसके सींचन के लिये चुनावों का समय ही सबसे उपयुक्त है। अगर ठीक चले तो लोकतंत्र से बेहतर कोई प्रणाली नहीं और ठीक न चले तो इससे बदतर कोई प्रणाली नहीं। मूल्यों की जगह कीमत की और मुद्दों की जगह मतों की राजनीति करने वाले लोगों ने एक बेहतर प्रणाली को बदतर प्रणाली बनाने की जो ठान रखी है, उसे निस्तेज करने के लिये मतदाता को जागरूक होना होगा और उसे वोट की ताकत को मजबूत करना होगा।

असल में भारतीय लोकतंत्र का बड़ा सत्य यह है कि यहां के अनपढ़ एवं भोलेभाले मतदाता को बेवकूफ एवं नासमझ समझने की भूल सभी राजनीतिक दल करते रहे हैं। पिछले कुछ चुनावों में मतदाता के मुखर होने की घटनाओं के बावजूद राजनीतिक दल उन्हें ठगने एवं लुभाने की भूल करते हैं और फिर मात खाते हैं। क्योंकि मतदाता अपने मन की बात मतदान केंद्रों पर जाकर इस प्रकार व्यक्त करने लगा है कि राजनीतिज्ञों के होश उड़ जाते हैं। ये मतदाता किसी हवा या बहाव में आ जाते हों यह सोचना भी भूल होगी क्योंकि वे चुनावों का राजनीतिक एजेंडा स्वयं तय करते हैं और उन मुद्दों को छांट लेते हैं जिन पर उन्हें राजनीतिक दलों को परखना होता है, जो राजनीतिक दल जमीन पर जनता के बीच चल रही इस हलचल के आधार पर अपना एजेंडा उछाल देता है वही जीत हासिल करता है। भारत का पूरा चुनावी इतिहास इसी तथ्य का साक्षी है। अतः चाहे जितनी भी कोशिश कर ली जाए और मतदाताओं को चाहे जितना भी भावुक बनाने की कोशिश की जाए मगर उनका मत उसी पार्टी को पड़ता है जिसका घोषित एजेंडा उनके दिल में उठ रहे सवाल होते हैं और जिस राज्य में इस प्रकार की परिस्थितियां नहीं बन पातीं वहां त्रिशंकु विधानसभा का गठन होना सहज है। इसलिए इन तीनों राज्यों में विजय उसी की होगी जो लोगों के दिलों में पहले से बैठ चुका होगा।

भ्रष्टाचार हर चुनाव का मुख्य मुद्दा होना चाहिए, लेकिन अक्सर देखने में आता है कि राजनीतिक दल मूल रूप में उस पर कोई चोट नहीं करते हैं, जहां से भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियां बलवती होती हैं, बल्कि कई मायने में ये खुद भी उसी ढांचे में समाहित हो जाते हैं। ऐसे में देश का भविष्य वहां होगा जहां जन का क्रोध एकत्रित हो रहा है, जहां लोग एक सूखते हुए पेड़ की जड़ में कुल्हाड़ियां चला रहे हैं। जहां वे सात दशक की आजादी में अपने को लुटा महसूस करते हुए एक नई तलाश में एकजुट हो रहे हैं। क्या आदर्श राजनीति और सुदृढ़ लोकतंत्र के मायने वर्तमान में हो रहे इन चुनावों से उभर कर आयेंगे ?

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पूरे देश में आक्रोश है, हर कोई बेरोजगारी, महंगाई, अस्थिरता, सुविधावाद एवं भ्रष्टाचार के दावानल से पीड़ित एवं परेशान महसूस कर रहा है, चहूं ओर रोष का ज्वार है। मेरी दृष्टि में जिन राजनीति मुद्दों का उभार देखने को मिल रहा है, वे किसी भी तरह के सामाजिक परिवर्तन के लिए नाकाफी हैं। वे एक हद तक संसदीय लोकतंत्र की कुछ खामियों का निमित्त जरूर बन जाती हैं। आज राजनीतिक दल एवं राजनीति मुद्दे भी मखौल बन चुके हैं। क्योंकि इनमें वे तरीके अपनाएं जाते हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूल पड़ते हैं, जबकि राजनीतिक मुद्दे लोकतंत्र को मजबूत करने का आधार हुआ करते थे। इन स्थितियों से गुरजते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चौराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चौराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति के लिये न केवल इन चुनावी मुद्दों की धार को भोथरा किया है बल्कि इन मुद्दों के कर्ता-धर्ताओं के चरित्र एवं छवि को भी धुंधलाने का सफल प्रयास किया है। देश का दुर्भाग्य ही है कि जहां से भी ताजी हवाएं आने की संभावनाएं है उन सब खिड़कियों एवं दरवाजों को बन्द कर दिया गया है, कहां से रोशनी की उम्मीद की जाये? आज राजनीतिक दल तो पहले से ही दलदल में धंसे हैं, अब आशा की किरण बने इन चुनावों एवं उनके मुद्दों को भी चलने से पहले ही अडगी मार कर गिराया जा रहा है।

चुनावी संग्राम ही वह पल है जिसमें आम जनता के हितों को लेकर सार्थक बहस होनी चाहिए एवं सार्थक मुद्दों के बल पर सत्ता पर काबिज होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता। जहां सत्ता ने अपनी आदत के मुताबिक इन मुद्दों को नाकाम किया तो कहीं विपक्ष एवं अन्य दलों ने अपने स्वार्थों के लिये इन मुद्दों को हाईजैक किया। राजनीतिक मुद्दों का नेतृत्व करने वालों की मंशा एवं दिशाएं स्पष्ट न होने से जहां जनसैलाब की ताकत का अपव्यय हुआ, वहीं अव्यवस्था और भ्रष्टाचार को बल मिला है, अन्धेरा अधिक घना हुआ है, एक रिक्तता की स्थिति बनी है और ऐसा विश्वास स्थापित हुआ है कि इन बुनियादी मुद्दों का सूरज तो अस्त हो सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई एवं कालेधन के साम्राज्य का सूरज कभी अस्त नहीं हो सकता।

इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की सच्चाई यह भी है कि इन चुनावों के लिये एवं किसी बड़े एवं महान् लक्ष्य कोे पाने के लिये जिस तरह का साहस चाहिए, वह दिखाई नहीं दे रहा है। जबकि महान लक्ष्य हमेशा साहस देते हैं और तब बाधाएं और जीवन का भय छोटा लगने लगता है। मनोविज्ञान कहता है कि बड़े और जनकल्याण से जुड़े काम हमेशा खास तरह के साहस का पुट मानव में भरते हैं। समाज या देश में सच्चा नायक बनने की प्रवृत्ति भी साहस को कई गुना बढ़ा देती है। जाहिर-सी बात है साहस तभी आता है, जब आपके पास मकसद हो, जुनून हो, पक्की लगन हो। कह सकते हैं कि साहस एक जिजीविषा है, इसका स्थान ज्यादा बड़ा इसलिए भी हो जाता है कि इस प्रवृत्ति से समाज और मानवता को लाभ पहुंचा है। इन चुनावों के परिदृश्य एवं चुनावी संकल्प में ऐसे ही साहस की जरूरत है। क्योंकि साहस वो सीढ़ी है, जिससे सभी दूसरे नैतिक गुण जुड़े रहते हैं। असल में राजनीति की वास्तविकता वह नहीं होती है जो ऊपर से दिखाई पड़ती है। इसीलिए कहा जाता है कि सत्ता में आने की राजनीति कुछ और होती है और सत्ता चलाने की कुछ और- लेकिन इन दोनों की बुनियाद में नैतिकता एवं साहस जरूरी है।

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