दुखो: का कारण है अत्याधिक प्रतिबद्धता


दुखो: का कारण है अत्याधिक प्रतिबद्धता

वस्तुओं और व्यक्तियों का उपयोग करते हुए ही मानव अपने जीवन क्षेत्र में आगे बढ़ते है। जीवन जीना, जीवन के स्तर पर विकसित होना, आगे बढऩा यह दु:खमय नही हो सकता किन्तु जीवन के साथ साथ दु:ख जो चलता रहता है और वह उसकी अत्यधिक प्रतिबद्धता के कारण दुखी रहता है।

 

वस्तुओं और व्यक्तियों का उपयोग करते हुए ही मानव अपने जीवन क्षेत्र में आगे बढ़ते है। जीवन जीना, जीवन के स्तर पर विकसित होना, आगे बढऩा यह दु:खमय नही हो सकता किन्तु जीवन के साथ साथ दु:ख जो चलता रहता है और वह उसकी अत्यधिक प्रतिबद्धता के कारण दुखी रहता है।

उक्त विचार श्रमण संघीय महामंत्री सौभाग्य मुनि कुमुद ने पंचायती नोहरा में आयोजित धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि जिन वस्तुओं या व्यक्तियों का हम उपयोग कर रहे हैं या जिन्हें हम प्राप्त करने को उत्सुक है उन व्यक्तियों और वस्तुओं के प्रति मानसिक स्तर पर प्रतिबद्ध होना यही सबसे बड़ा दु:ख है। शास्त्रीय भाषा में मोह कहते है।

मुनि ने कहा कि प्रतिबद्धता एक अन्धत्व है, एक राग है। असल में यह एक मानसिक संक्लेश है। जब तक यह क्षीण नही होता है दु:ख मिट नही सकता। गौतमी का पुत्र मर चुका था किन्तु गौतमी का मन अपने पुत्र में इतना अधिक प्रतिबद्ध था कि वह पुत्र की मुृत्यु को स्वीकार करने को ही तैयार नही हुआ। गौतमी कहती, मेेंरा प्यारा बेटा मरा नही है बिमार है, मुझ से नाराज है अत: बोलता नही, खाता नही। वह उसका मृत शरीर कन्धे पर उठाए फिरती। कई व्यक्तियों ने उसे समझाने का प्रयास किया वह समझने को तैयार नही।

उन्हीं दिनो महात्मा बुद्ध वहां आये। गौतमी ने उन्हें भी आग्रह किया मेरे बच्चे को ठीक कर दो किन्तु बच्चा तो मर चुका है। वह ठीेक होता भी कैसे ? गौतमी तो मोह में अन्ध बनी थी वह मानने को तैयार ही नही थी। अन्तत: बुद्ध ने पांच सरसो के दाने लाने को कहा और वह भी ऐसे परिवार से जहां कभी कोई मरा न हो। स्पष्ट है ऐसा परिवार कोई मिला ही नही किन्तु गौतमी को यह बोध अवश्य हो गया कि मृत्यु एक ऐसी महामारी है जो चारों तरफ फैली हुई है कोई अछूत नही है। यह सारा संसार ही मुत्यु के पंजे में फंसा हुआ है। जीवन का सत्य समझ में आया और गौतमी की प्रतिबद्धता समाप्त हो गई। विरक्त हो गई। साध्वी बनकर साधना में बढ़ गई।

कहने का तात्पर्य यह रहा कि प्रतिबद्धता ही वह दु:ख है जो जीवन को अशान्त कर देता है। मुनि ने बताया कि सुख और दु:ख वस्तुओं या साधनो में नहीें है। वह भावनाओ में अतिप्रतिबद्धता ही कष्टों का कारण है। सभा का शुभारम्भ विकसित मुनि जी ने किया। प्रवर्तक मदन मुनि जी ने भी सभा को सम्बोधित किया व संचालन हिम्मत जी बड़ाला ने किया।

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