भाषा मनुष्य के अकेलेपन को तोड़ने का कार्य करती है।


भाषा मनुष्य के अकेलेपन को तोड़ने का कार्य करती है।

’हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएं: अंतःसंबध और वैशिष्ट्य’’ विषयक यह संगोष्ठी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से आयोजित की जा रही है। उद्घाटन सत्र के बीज वक्ता प्रो. नंदकिशोर आचार्य ने भारतीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए आज के समय को बहुत निर्मम और चुनौतीपूर्ण बताया।

 
भाषा मनुष्य के अकेलेपन को तोड़ने का कार्य करती है।

भाषा मनुष्य के अकेलेपन को तोड़ने का कार्य करती है। यह दूसरे से जुड़ने का माध्यम है। विभाजन के लिए भाषा का इस्तेमाल करना, भाषा के मूल धर्म के विपरीत है। ये विचार मोहनलाल सुखाडि़या विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन समारोह में विख्यात हिन्दी साहित्यकार प्रो. नंदकिशोर आचार्य ने व्यक्त किए।

विभागाध्यक्ष प्रो. माधव हाड़ा ने बताया कि ’हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएं: अंतःसंबध और वैशिष्ट्य’’ विषयक यह संगोष्ठी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से आयोजित की जा रही है। उद्घाटन सत्र के बीज वक्ता प्रो. नंदकिशोर आचार्य ने भारतीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए आज के समय को बहुत निर्मम और चुनौतीपूर्ण बताया। उन्होंने कहा कि स्वाधीनता के बाद लगभग 220 भाषाएँ नष्ट हो गई है। यह भाषा और शिक्षा नीति के प्रति हमारे ढुलमुल रवैये का प्रतीक है। जब एक भाषा मरती है तब उसके साथ वह समाज विशेष और उसका ज्ञान भी मर जाता है और सांस्कृतिक परम्परा भी लुप्त हो जाती हैं। यह एक प्रकार से मनुष्य के आत्मसृजन की मौत है। उन्होंने कहा कि परिवर्तन को स्वीकार करना ही भाषा को गतिशील बनाता है। परिवर्तन के प्रति सकारात्मक रुख रखना ही सनातन धर्म का मूलभूत गुण है। हिंदी वर्चस्ववादी भाषा नहीं है। हिंदी का भविष्य उसके खुलेपन में ही है।

सत्र के विशिष्ट अतिथि शीन कॉफ़ निजाम ने अपने उद्बोधन में कहा कि जबानें तहजीबों की होेती है, मजहबों की नहीं। लेकिन आजादी के बाद यह धारणा खंडित हुई है। खासतौर पर उर्दू की ओर ईशारा करते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी में उर्दू की केवल उतनी ही आमद हुई जितनी शायरी के रास्ते हो सकती थी। उर्दू का गद्य लेखन धीरे-धीरे हिंदी से दूर होता गया। उर्दू की लिपि नहीं जानने वालों की संख्या धीरे-धीरे कम होती गई। लोक जीवन में उर्दू की शब्दावली लगातार बनी हुई है। हम अपनी भाषाओं के प्रति संवेदनात्मक रिश्ता नहीं रखते। हिंदी का उर्दू से जुदा होना वैसा ही है जैसे नाखून का गोश्त से जुदा होना।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि भाषा सार्वभौमिक है। भाषा की जीवन में अहम भूमिका है। शिशु के सभी संकेत माँ समझ लेती है। माँ की अनुपस्थिति में संसार से जुड़ने का माध्यम भाषा ही है। इसलिए भाषा माँ के समान सम्माननीय है।

कार्यक्रम के विचार सत्र में वरिष्ठ मीडियाकर्मी और राजस्थानी साहित्यकार नंद भारद्वाज ने कहा कि हमें लोक भाषाओं को उनका वाजिब हक दिलाने के लिए ऐतिहासिक और व्यावहारिक तथ्यों की जानकारी रखनी चाहिए। स्वाधीनता के बाद एक ही अपभ्रंश से विकसित राजस्थानी और गुजराती के प्रति राजनीतिक कारणों से अलग-अलग व्यवहार किया गया।

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि साहित्य अपनी सर्जनात्मकता में सभी भाषाओं के प्रति समरसता का वातावरण तैयार करता है। कालिदास ने भी अपने साहित्य में यथा संभव प्राकृत और अपभ्रंश के शब्दों का इस्तेमाल किया है। हिंदी की प्रादेशिक बोलियों को समाप्त करना एक साम्राज्यवादी षड्यंत्र है। हिंदी भाषा का अन्य भारतीय भाषाओं से जो अंतःसंबंध है उसका आधार हमारी समान सांस्कृतिक विरासत है। सभी भाषाएं एक साथ इस विरासत का संवहन करती हुई भारतभाव को अभिव्यक्त करती है। भोपाल से आए राजेश श्रीवास्तव, दिल्ली के पीयूष दईया और शहर के वरिष्ठ आलोचन डॉ. नवलकिशोर ने भी विचार व्यक्त किए।

इस अवसर पर हिंदी विभाग के डॉ. आशीष सिसोदिया के संपादन में प्रकाशित होने वाली शोध पत्रिका नवसृजन का विमोचन किया गया। इस अवसर पर अनेक शोधार्थियों ने पत्र वाचन किया। संगोष्ठी में देश के विविध प्रांतों व भाषा-भाषियों के प्राध्यापकों व शोधार्थियों ने अपनी बात कही।

प्रो. माधव हाड़ा ने बताया कि संगोष्ठी के दूसरे व अंतिम दिन डॉ. हेतु भारद्वाज, प्रो. कृष्ण कुमार शर्मा, प्रो. कौशलनाथ उपाध्याय, डॉ. हरीश अरोड़ा अपना व्याख्यान देंगे। कार्यक्रम का समापन समारोह विश्वविद्यालय अतिथि गृह में दोपहर 3:30 बजे होगा जिसकी अध्यक्षता पूर्व कुलपति प्रो. इंद्रवर्धन त्रिवेदी करेेंगे

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