राजस्थान में आदिवासियों का महाकुंभः बेणेश्वर मेला
अखिल विश्व में अपनी अनूठी लोक संस्कृति व गीत संगीत के लिए पहचान स्थापित करने वाली वीर प्रसविनी धरा राजस्थान के दक्षिणांचल में मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान की सीमाओं पर स्थित वागड़ क्षेत्र डूंगरपुर, बांसवाड़ा जिला सदैव से अपनी मनमौजी परंपराओं सांस्कृतिक धार्मिक मेलों एंव हाट बाजारों के कारण देश प्रदेश में ख्यात रहा है।
अखिल विश्व में अपनी अनूठी लोक संस्कृति व गीत संगीत के लिए पहचान स्थापित करने वाली वीर प्रसविनी धरा राजस्थान के दक्षिणांचल में मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान की सीमाओं पर स्थित वागड़ क्षेत्र डूंगरपुर, बांसवाड़ा जिला सदैव से अपनी मनमौजी परंपराओं सांस्कृतिक धार्मिक मेलों एंव हाट बाजारों के कारण देश प्रदेश में ख्यात रहा है।
इसी वागड़ में आदिम संस्कृति की अगाध आस्थाओं से जुड़ा देश का सबसे बड़ा आदिवासी जमघट वाला विशाल मेला वागड़ प्रयाग या वागड़ वृन्दावन उपनाम से ख्यातनाम तीर्थ बेणेश्वर पर आयोजित होता है जिसमें करीब 5 लाख लोगों की उपस्थिति में आस्थाओं को आकार प्राप्त होता है।
जिला मुख्यालय डूंगरपुर से 70 किमी दूरी पर अवस्थित जनजाति तीर्थ बेणेश्वर माही, सोम, जाखम, सलिलाओं, शिव शक्ति और वैष्णव देवालयों और त्रिदेवों के संगम होने से देवलोक का प्रतिरूप सा बन गया है। युगों-युगों से सामाजिक समरसता एवं एकात्मता का मंत्र गुंजाने वाले इस बेणेश्वर धाम पर माघ शुक्ला एकादशी से आदिवासियों का महाकुंभ प्रारंभ होता है जो क्रमशः विकसित होता हुआ माघ पूर्णिमा पर पूर्ण यौवन पर होता है।
माघ पूर्णिमा के मेले में वागड़ अंचल के साथ ही आसपास के गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि प्रान्तों के श्रद्धालु भी सम्मिलित होते हैं और विभिन्न अनुष्ठानों में हिस्सा लेकर पुण्य लाभ पाते हैं। इस दौरान तीन राज्यों की जनजाति संस्कृति सम्मिलित होकर थिरकती प्रतीत होती है। तीन राज्यों के वनवासियों की संस्कृति एवं समाज की विभिन्न विकासधाराओं का दिग्दर्शन कराने वाला यह मेला आँचलिक जनजाति संस्कृति का नायाब उदाहरण है।
राजा बली की यज्ञ स्थली और नदियों के संगम स्थल कारण पुण्यधरा माने जाने के कारण इस मेले में लोग आबूदर्रा में अपने मृत परिजनों के मोक्ष की कामना से पवित्र स्नान, मुण्डन, तर्पण, अस्थि विसर्जन आदि धार्मिक रस्में पूरी करते हैं। माघ पूर्णिमा के दिन लाखों श्रद्धालुओं द्वारा एक साथ दिवंगत परिजनों की अस्थियों के विसर्जन की रस्म इस स्थान की महत्ता और जनास्थाओं को उजागर करती है।
इस दौरान श्रद्धालु प्राचीनतम बेणेश्वर शिवालयए मनोहारी राधा-कृष्ण मंदिर, वेदमाता, गायत्री, जगत्पिता ब्रह्मा, वाल्मीकी आदि देवालयों में दर्शन करते हैं और मेले का आनन्द उठाते हैं।
बेणेश्वरधाम को वागड़ के लीलावतारी संत एवं भविष्यवक्ता संत मावजी की लीलास्थली भी माना जाता हैं। जनजातियों के हृदयों में रचे बसे संत मावजी को आज भी लाखों श्रद्धालु भगवान श्रीकृष्ण के अवतार स्वरूप मानकर अनन्य श्रद्वा से पूजा-अर्चना करते हैं। संत मावजी के प्रति श्रद्धा व आस्था रखने वाले लाखों श्रद्धालु मेलावधि में सम्मिलित हो भजन-कीर्तन कर अपने ईष्ट के प्रति श्रद्धा का ईजहार करते हैं।
इस मेले में उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों से अलग-अलग सम्प्रदाओं, मतों, पंथों, अखाड़ों, धूणियों एवं आश्रमों-मठों से भाग लेने वाले महन्त, भगत एवं श्रद्धालुओं द्वारा भावविभोर हो प्रवाहित की जाने वाली भक्ति स्वर लहरियाँ वातावरण को आध्यात्मिक सुरभि से महकाती रहती है। संपूर्ण मेलावधि में भजन कीर्तन के स्वर अहर्निश गुंजायमान रहते हैं।
परंपरागत भजन गायक अपने वाद्यों तानपूरे, तम्बूरे, कौण्डियों, ढ़ोल, मंजीरे, हारमोनियम आदि की संगत पर जब मेले में समूह भक्ति की तान छेड़ते हैं तो इस बेणेश्वर धाम पर अध्यात्म व श्रद्धा अनोखी ही महक भरी उठती हैं। बेणश्वर धाम के संपूर्ण देवालय विशेषकर राधा-कृष्ण मंदिर परिसर और वाल्मीकि मंदिर भक्ति सरिताओं के प्रवाह केन्द्र रहते हैं। वाल्मीकी मन्दिर पर तो जब एटीवाला पाड़ला के महन्त की पालकी आती है तब भजनों के साथ हवन होता है।
राधा-कृष्ण मंदिर परिसर में साद सम्प्रदाय के लोगों का खासा जमावड़ा होता है जो मावजी की भविष्यवाणियों का गान करता है। बेणेश्वर धाम पर आयोजित होने वाले मेले को भक्ति साहित्य के संवहन का भी अनूठा मेला कहा जा सकता है क्योंकि बेणेश्वर की भक्ति धाराओं में न केवल मावजी से संबंधित भजन-कीर्तन अपितु देश, समाज, धर्म, मंदिर, इतिहास पुरूषों, विभिन्न अवतारों कबीर, गोविन्द गुरू, मीरा बाई से लेकर देश के प्रमुख संतों, भक्त कवियों और लोक देवताओं का स्तुतिगान एवं वाणियों का गान होता है। इसके अतिरिक्त मेलावधि में भक्तिभाव से ईतर स्वातंत्रय चेतना का शंखनाद करने वाला यह भजन आज भी मेले पूरी आस्था के साथ आदिमजनों द्वारा गाया जाता है।
ष्ष्झालोदा म्हारी कुण्डी हैए दाहोद म्हारी थालीए नी मानूँ रे भूरेटियाए नी मानूँ रेण्ण्ण् दिल्ली म्हारो डंको हैए बेणेसर म्हारेा सोपड़ो नी मानूँ रे भूरेटियाए नी मानूँण्ण्ष्ष्
मेले के दौरान धाम के महन्त गोस्वामी अच्युतानंद महाराज के अलावा देश-प्रदेश से आने वाले संतों के सानिध्य में धर्मसभाओं का आयोजन भी होता रहता है। इन धर्मसभाओं में धार्मिक चेजना जागृत करने के साथ-साथ समाज सुधार व कुरीतियों को त्यागने का भी आह्वान किया जाता है।
सदियों से आदिवासी संस्कृति की सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति आस्था और विश्वास के मूर्त रूप का दिग्दर्शन कराने वाला यह मेला इस वर्ष भी 21 जनवरी से 25 फरवरी तक आयोजित हो रहा है और एक बार पुनः देखने को मिलेगी लाखों आदिवासियों के उल्लसित चेहरों के छिपी अगाध आस्थाएं।
लेखक: भावना शर्मा
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