सुबह की कहानी
कभी किसी बुज़ुर्ग से सुना था कि चाय के साथ किया गया विचारों का आदान-प्रदान या चाय पीते समय की गई बातें बहुत कुछ सिखा देती हैं और इसी चाय की वजह से जब आप लम्बे समय किसी के साथ बैठते हो तो अगली मुलाक़ात होगी या नहीं, इसका एक अंदाजा लगा लेते हो | अगली चाय का दिन और समय और स्थान तय हो जाता है ....कम से कम आपके मन में तो होता ही है | मतलब यह कि चाय की चुस्कियों के दौरान आप अपने हिसाब से यह तय करते हो कि सामने वाला आपकी ज़िन्दगी में किस प्रकार शामिल होगा, होगा भी या नहीं |
ये सुबह भी बाकी सुबहों जैसी ही थी | वही हवा, वही सूरज, वही चहचहाहट, वही शहर के शोर से भरी | लेकिन आज, ना जाने क्यों, उठते ही एक अजीब से अकेलेपन के एहसास से आंसू बह निकले | हिचकियाँ बन्ध गई थीं | क्या सपना देखा था रात को ? याद नहीं ! शायद सपना देखा ही नहीं | तनहाई ने दिल की किलेबंदी ही शायद कुछ इस हद तक कर दी थी कि आँख की खिड़की से पानी बाहर आने लगा था | दिल और भी ज्यादा भारी हो चला था | आज सुबह ही क्यों..मतलब सुबह सुबह क्यों…क्यों?
“ये हमारा ज़र्फ़ था कि खामोश रहे हम, दास्तां अपनी सुनाते तो महफ़िल को रुला देते” – मन में इन पंक्तियों सा गुबार ना जाने कब से है! खुद को चुप करा कर, हाथ मुंह धोकर चाय बनाई | एक कप चाय,बस ! इस चाय ने कुछ यादों को ताज़ा कर दिया | कभी जो चाय के बहाने मिलते थे, जाने कहाँ व्यस्तता की भीड़ में खो गए |
कभी किसी बुज़ुर्ग से सुना था कि चाय के साथ किया गया विचारों का आदान-प्रदान या चाय पीते समय की गई बातें बहुत कुछ सिखा देती हैं और इसी चाय की वजह से जब आप लम्बे समय किसी के साथ बैठते हो तो अगली मुलाक़ात होगी या नहीं, इसका एक अंदाजा लगा लेते हो | अगली चाय का दिन और समय और स्थान तय हो जाता है ….कम से कम आपके मन में तो होता ही है | मतलब यह कि चाय की चुस्कियों के दौरान आप अपने हिसाब से यह तय करते हो कि सामने वाला आपकी ज़िन्दगी में किस प्रकार शामिल होगा, होगा भी या नहीं |
सही कहा था उन्होंने, क्योंकि मैंने भी इसी तरह दोस्त बनाये ,कुछ को मैंने चुना तो कुछ ने मुझको | कुछ गहरे दोस्त, कुछ चंद मुलाकातों वाले | अब आप कहेंगे कि दोस्त तो दोस्त होते हैं, इसलिए इस बात को कुछ यूं कहें कि मैंने कुछ तो दोस्त बनाये और कुछ से बस दोस्ताना रखा |
चुस्कियों के वक़्त जब राज़ खुलते हैं, तो एक अलग अंदाज़ से नज़रें मिलती हैं और नज़रें चुराई भी जाती हैं | इसी तरह मेरी दोस्ती के सफ़र चालू हुए और जिसकी फितरत समझ नहीं आई या अच्छी तरह समझ में आ गई, उससे दुबारा मिलने की ख्वाहिश का तो प्रश्न ही नहीं उठता | आंसू रुक तो रहे थे मगर मन अब भी बेहद उदास था | यह भी कहा जाता है न कि सुबह उठते ही हंसों तो पूरा दिन हंसी ख़ुशी निकलता है और सुबह रोए तो बस गए काम से |
ऊपर वाले से माँगा ही क्या था? शान्ति भरा,सुकून भरा जीवन ही तो माँगा | ना पैसा, ना रूतबा, ना बंगला, ना गाड़ी….सिर्फ शान्ति | पता नहीं इस “शान्ति” की परिभाषा कितने लोग जानते हैं और समझते हैं आजकल की बेअदबी से भरी भागदौड़ में…
दरअसल पैसों की अपार लालसा ने शान्ति का अस्तित्व मिटा दिया है | जिन दोस्तों की संगत में दिल हलके हुआ करते थे,वे सब अब सिर्फ पैसों के पीछे भाग रहे हैं | शायद इसी बात पर दिल उदास होता है कि बात करें तो किससे, दिल की बात कहें तो किससे, रोएं तो किसके कंधे पर सर रखकर | एक दोस्त की दुखभरी आप बीती सुनी थी | किसी ने उससे दोस्ती करते समय कुछ वादे किए थे, पर जब निभाने की बारी आई तो मसरूफ़ियत के बहाने ही सुनाई पड़े | जल्दी मिलने का वादा हमेशा से बहुत आसान तरीका रहा है किसी को भी टालने का | “जल्दी” की परिभाषा अगर मेरे शब्दों में लें तो कुछ यह होगी- “जल्दी” वह शब्द है जिसका अधिकतम प्रयोग किया जाता है और इसका अर्थ होता है “कभी नहीं” | अब आप अपने हिसाब से तय कर लीजिये कि आपको इंतज़ार करना है या नहीं और खुद समझ जाइए |
“मसरूफ़ रहने का अंदाज़ तुम्हें तनहा ना कर दे ग़ालिब, रिश्ते फुर्सत के नहीं तवज्जो के मोहताज होते हैं”….जाने कितने रिश्ते इसी वजह से टूट गए, जाने कितने बिखर गए, इस स्वार्थी दुनिया में टूट कर कहाँ जुड़ते हैं “रिश्ते” | “रहिमन धागा प्रेम का , मत तोरो चटकाए,टूटे पे फिर ना जुरे,जुरे गाँठ परि जाए” | होता है, अक्सर यही होता है | मगर इस हकीक़त को नकारना ही लोगों की ज़िन्दगी का नियम बन गया है, ये कभी ना टूटने वाला कायदा बन गया है | रिश्तें बनाते सब हैं मगर निभाता कोई नहीं, समय ही नहीं है निभाने का | सहूलियत के लिए रिश्ते बनाए जाते हैं,स्वार्थ से भरे हैं सबके मन…सिर्फ धन पाने की लालसा में लिप्त है मन | महंगाई भरे इस ज़माने में रिश्तों की एहमियत रही ही नहीं |
बात थी उन आंसूओं की जो सुबह अनायास ही निकल पड़े थे | शायद इन्हीं कुछ कारणों ने मेरे कोमल मन को एक लम्बे अरसे से द्रवित कर रखा है। अशांत, बिखरा मन, सब बातों को झेलते हुए इस कदर एकाकी हो चला है कि दफ्तर की भीड़, पड़ोसी, पैसा, लज़ीज़ व्यंजन, महंगे से महंगे कपड़े…ना तो मेरे मन को आकर्षित करते हैं ना ही कभी भी कुछ पलों के लिए भी शांत कर पाए |
आखिर “समय” गया कहाँ | यदि सब इतने व्यस्त हैं, स्वार्थ से भरपूर हैं, तो मन के गुबार को किसके कंधे पर बहाऊँ और मन के सुगन्धित फूलों को भी किसे पेश करूँ?
ना जाने कितने गाने मन को बेचैन कर देते हैं | गानों के दर्द भरे शब्दों को जीने लगते हैं हम, समझने लगते हैं और एक बार फिर खुद को भीड़ में भी तनहा महसूस करने लगते हैं “हम” | या सिर्फ “मैं”??
मैं बहुत संवेदनशील हूँ, इसलिए अपनी भावनाओं को कागज़ पर उतारकर कागज़ का बोझ बढ़ाने की आदत हो गई है मुझे | बात तो बस इतनी है कि आंसू फिर शुरू हो चले हैं, क्योंकि आज छुट्टी का दिन है | भीड़ में एकाकी मन के लिए छुट्टी का दिन …बस…दिल भर चुका है… |
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